सुबह का वक्त था। रमा अपने छोटे से आंगन में तुलसी को पानी दे रही थी, तभी उसकी बेटी काजल का फोन आया।
“माँ, इस बार गर्मियों में मायके आने को सोच रही हूँ ?”
रमा जी ने मन ही मन आह भरी। सच तो यह था कि पति के गुजरने के बाद घर का माहौल बदल गया था। एक ही बेटा था विजय, बहू कुसुम अपने ढंग से घर संभाल रही थीं, पर माहौल अब पहले जैसा खुला और अपनापन भरा नहीं था।
काजल ने पति अमित से कहा, “अमित, टिकट करा दो। मैं कल माँ के पास जा रही हूँ।”
“अचानक क्यों?” अमित ने पूछा।
“बस, माँ को देखना है। मुझे लगता है माँ बहुत कुछ छुपा रही हैं।”
काजल जब पहुँची तो घर के बाहर विजय अपनी स्कूटी स्टार्ट कर रहा था। अंदर जाते ही उसने देखा—माँ भारी भरकम आटे की बेलन से रोटियाँ बेल रही थीं, पसीने से भीगी हुई।
“माँ! आप ये सब क्यों कर रही हैं? भाभी कहाँ हैं?”
रमा ने सकुचाते हुए कहा, “बेटी, कुसुम को अपनी माँ के पास अस्पताल जाना होता है। वो बहुत बीमार हैं, और वहाँ देखभाल करने वाला कोई नहीं। सुबह-सुबह बस विजय का टिफिन बना देती है, बाकी मैं देख लेती हूँ।”
काजल के मन में गुस्सा आया—”माँ, आपको इस उम्र में आराम करना चाहिए, और आप यहाँ सारा काम कर रही हैं! भाई-भाभी को जरा भी शर्म नहीं आती?”
रमा ने हाथ पकड़कर उसे बैठाया—”पहले मेरी बात सुन ले, फिर कुछ बोलना।”
रमा ने समझाया—”बेटी, तेरी भाभी कुसुम भी तो एक बेटी है। उसकी माँ की हालत बहुत नाजुक है। सोच, अगर मैं अपनी बहू को मायके न जाने दूं, तो क्या मैं इंसान कहलाऊंगी? मैंने भी तो तुझे और मीना को हमेशा मायके आने दिया है, चाहे मेरे हाल कैसे भी हों।”
“लेकिन माँ, काम का क्या? आपकी सेहत का क्या?”
“अरे, थोड़े-बहुत काम करने से मुझे अच्छा लगता है। और कुसुम रोज़ अस्पताल से लौटकर मुझसे कहती है—’माँ, आप कुछ मत कीजिए, मैं सब कर लूंगी।’ पर मैं जानती हूँ, वो थक कर चूर हो जाती है। अगर मैं ये छोटे-मोटे काम कर लूँ, तो उसका बोझ हल्का हो जाता है।”
काजल चुप हो गई। उसका गुस्सा धीरे-धीरे ठंडा हो रहा था।
शाम को कुसुम घर लौटी। चेहरे पर थकान थी, लेकिन आते ही उसने रमा के पैरों में हाथ लगाया।
“माँ, आप फिर से काम कर रही थीं ना? मैंने कहा था न, आपको सिर्फ आराम करना है!”
काजल ने गौर किया—कुसुम ने खुद तो कुछ खाया भी नहीं, सीधा चाय बनाकर रमा के हाथ में दे दी और फिर सास के लिए गर्म पानी तैयार किया।
रमा मुस्कुराते हुए बोली, “देखा, यही है मेरी बहू। दिनभर अपनी माँ के अस्पताल के चक्कर लगाकर भी मेरी सेवा करना नहीं भूलती।”
अगले दिन काजल ने कुसुम से कहा, “भाभी, आपने हमें मायके आने का न्योता क्यों नहीं भेजा? लगता है, आप हमें दूर रखना चाहती हैं।”
कुसुम की आँखें भर आईं—”दीदी, परिस्थितियां ही ऐसी हैं। मेरी माँ ICU में हैं। अस्पताल, घर और दुकान के बीच भागते-भागते थक गई हूँ। मुझे डर था कि अगर आप लोग आए तो मैं आपको वक्त नहीं दे पाऊँगी और आप बुरा मान जाएँगी।”
काजल ने कुसुम का हाथ थाम लिया—”भाभी, हमें सिर्फ माँ से मिलने का मौका चाहिए था, समय नहीं। आप पर इतना बोझ है और हम सोच रहे थे कि आप माँ को परेशान कर रही हैं। हमें गर्व होना चाहिए कि माँ को आप जैसी बहू मिली।”
काजल ने माँ और कुसुम को साथ बैठाकर कहा, “अब से आंटी का खाना यहीं बनेगा। मैं रोज़ कार से टिफिन लेकर अस्पताल जाऊंगी। माँ सिर्फ हल्का-फुल्का काम करेंगी। भाभी, तुम आराम से रहो और अपनी माँ के पास समय बिताओ। भाई को दुकान से बार-बार आने की ज़रूरत नहीं।”
कुसुम हिचकिचाई—”लेकिन दीदी, मेरे मायके वाले ससुराल से आया खाना नहीं खाएँगे।”
काजल ने दृढ़ स्वर में कहा, “ये पुरानी सोच है। सेवा का कोई जात-घर नहीं होता। अगर बेटियाँ अपने मायकेवालों को खाना खिला सकती हैं, तो बहुएँ क्यों नहीं? अब वक्त है इन छोटी सोचों को बदलने का।”
रमा यह सुनकर गर्व से मुस्कुरा दीं।
धीरे-धीरे सुमित्रा जी (कुसुम की माँ) की तबीयत सुधरने लगी। कुसुम के चेहरे पर फिर से मुस्कान लौट आई।
काजल के मायके के इस दौरे ने रिश्तों में जमी गलतफहमियों की धूल साफ कर दी थी।
रमा ने काजल को गले लगाते हुए कहा, “बेटी, तूने आज साबित कर दिया कि बेटियाँ सिर्फ अपने मायके की इज्जत नहीं बढ़ातीं, बल्कि बहू का भी मान रख सकती हैं।”
काजल की आँखें भीग गईं—”माँ, आज मुझे समझ में आया कि सास अगर बहू को बेटी जैसा मान ले, तो बहू भी अपनी जान लगा देती है।”
दोस्तों
रिश्ते खून से नहीं, अपनापन और समझ से चलते हैं।
जब सास बहू को बेटी समझे और बेटी बहू के दर्द को महसूस करे, तो घर सिर्फ मकान नहीं, सच में “घर” बनता है।