मर्यादा एक स्त्री की – ज्योति आहूजा : Moral Stories in Hindi

संध्या के घर में एक छोटा सा फंक्शन था।

जब भी उसे ब्यूटी से जुड़ा कोई काम करवाना होता, वह अपनी जान-पहचान वाली ब्यूटीशियन रूपा को ही बुला लेती थी।

रूपा वही करती थी जैसा कहा जाए — बिना चूं-चपड़, बिना बहस।

संध्या को लगता था कि काम करवाना सिर्फ़ पैसे देना नहीं होता — व्यवहार भी मायने रखता है।

दोपहर के तीन बजे डोरबेल बजी।

दरवाज़ा खोला तो रूपा थी — वही जानी-पहचानी लड़की।

पर इस बार उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं थी।

थोड़ी बुझी, थोड़ी बिखरी हुई सी लगी।

संध्या ने चुपचाप उसे अंदर बुलाया।

रूपा ने बिना कुछ बोले काम शुरू किया।

पर उसके हाथ काँप रहे थे।

चेहरा शांत था, पर आँखों में हलचल थी।

फोन बार-बार बज रहा था।

संध्या ने धीमे स्वर में कहा —

“फोन साइलेंट कर दो न।”

रूपा ने बिना कुछ बोले फोन साइलेंट पर कर दिया।

उसके चेहरे की उदासी संध्या से छुपी न रह सकी।

कहने को तो बस काम की बात होनी चाहिए थी,

पर संध्या ने एक इंसान बनकर पूछा —

“कुछ हुआ है क्या?”

रूपा एक पल चुप रही, फिर बोली —

“मैंने उसे ब्लॉक कर दिया है — इंस्टाग्राम और वॉट्सएप दोनों पर।”

संध्या ने चौंककर पूछा —

“किसे ब्लॉक कर दिया?”

रूपा ने धीमे से कहा —

“मैम… एक लड़का है।

मैं उससे एक साल से बात कर रही हूँ।

वो मुझे इंस्टाग्राम पर मिला था।

दरअसल मैं पुराने गानों पर रील बनाती हूँ — थोड़ा एक्टिंग जैसी।

एक रील थोड़ी वायरल हो गई थी।

उसी पर उसने कॉमेंट किया —

‘मुस्कुराती हो तो अच्छी लगती हो।’

फिर उसने मुझे DM किया।

पहले तो ज़्यादा जवाब नहीं दिया, लेकिन धीरे-धीरे बात होने लगी।

पता चला वो भी यहीं का रहने वाला है।

पहली बार हम मॉल में मिले… और फिर मुलाक़ातें शुरू हो गईं।”

संध्या कुछ पल चुप रही, फिर बोली —

“पर रूपा, तुम तो कहती थी कि तुम्हारे पति अब इस दुनिया में नहीं हैं… तो फिर?”

रूपा की आवाज़ धीमी हो गई —

“मेरी शादी तब हुई थी जब मैं बीस साल की थी।

पाँच साल बाद ही मेरे पति की मृत्यु हो गई।

अब दो बच्चे हैं।

मैंने दो-चार साल तक अकेले जीने की कोशिश की।

मेरा कोई इरादा नहीं था कि अपनी ज़िंदगी में फिर किसी को आने दूँगी।

लेकिन वो सब अपने आप हो गया।

मैं भी इंसान हूँ… अकेलापन खलता है।

इसलिए ही तो ब्यूटीशियन का कोर्स किया,

ताकि किसी पर निर्भर न रहकर —

खुद अपने दम पर अपनी और बच्चों की ज़िंदगी चला सकूं।

जब उसने मेरी रील पर पहली बार कॉमेंट किया था,

उसे नहीं पता था कि मैं विधवा हूँ और दो बच्चों की माँ।

मैंने उसे सब कुछ दो-तीन मुलाक़ातों के बाद बताया।

और साफ़ कहा —

‘मैं एक विधवा हूँ… और तुम कुंवारे हो।’

उसने कहा —

‘मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।’

वो मेरा बहुत ध्यान रखता था।”

संध्या चुप रही।

रूपा आगे बोलती रही —

“अब उसकी सगाई हो गई है।

उसके मम्मी-पापा मेरे लिए कभी नहीं मानेंगे।

पर वो मुझसे कहता है —

‘मैं उससे शादी करूँगा… लेकिन तुझे भी नहीं छोड़ूँगा।’

पर मैं नहीं चाहती कि किसी और की ज़िंदगी मेरी वजह से टूटे।

इसलिए मैंने उसे ब्लॉक कर दिया।

अब भी वो अलग-अलग नंबरों से कॉल करता है…”

रूपा की आवाज़ काँपने लगी।

संध्या ने हल्के से कहा —

“तो आज छुट्टी ले लेतीं…”

रूपा मुस्कुराई — एक थकी हुई, टूटी हुई मुस्कान।

“कैसे लूँ मैम?

पति नहीं है… बच्चे हैं… स्कूल की फीस है… किराया है…

पेट तो हर दिन रोटी माँगता है।

मन रोए या मुस्कुराए — कमाई तो करनी ही है।

और वैसे भी, अगर उसे मुझसे सच में प्यार होता —

तो वो मेरे लिए अपने माँ-बाप से लड़ता।

ज़मीन-आसमान एक कर देता… लेकिन उसने नहीं किया।

वो अपने पेरेंट्स के कहने पर उस लड़की से शादी कर रहा है।

और क्या कभी दो औरतों को साथ रख पाना सही साबित हुआ है?

नहीं। बदनामी ही मिलती है।

मैं तो वैसे भी अपने ससुराल में थोड़ी बदनाम तो हो ही चुकी हूँ।

अब मैं अपनी ज़िंदगी में कोई और झोल नहीं चाहती।

इसलिए… मैंने ये सब ख़त्म कर दिया।”

काम पूरा हुआ।

रूपा ने बैग उठाया, दरवाज़े की ओर बढ़ी।

जाते-जाते पलटी और बहुत धीमे से बोली —

“मैंने सही किया ना मैम?”

उसकी आँखों में एक डर था —

कि कहीं अब भी उसे गलत न ठहरा दिया जाए।

संध्या बस चुपचाप उसे देखती रही —

क्योंकि सामने खड़ी थी एक औरत…

जिसने चाहा बहुत कुछ,

पर जितना चाहा — उतना ही पीछे हट गई।

उसने मर्यादा को नहीं लांघा,

पर समाज की निगाहों में शायद वो पहले ही लांघ चुकी थी।

क्योंकि वो विधवा थी…

और अकेलेपन से उबरना उसकी भूल नहीं — उसकी इंसानियत थी।

मर्यादा…

जो किसी किताब में नहीं,

बसती है एक औरत की आत्मा में।

रूपा ने किसी रेखा को नहीं लांघा —

बल्कि हर बार उसे थामकर जीती रही…

एक माँ की तरह, एक इंसान की तरह… और सबसे बढ़कर,

एक सम्मानित स्त्री की तरह।

ज्योति आहूजा

स्वरचित

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