मैंने तुम्हें दिल से प्यार किया  है। – ज्योति आहूजा : Moral Stories in Hindi

सान्वी को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वो अंदर से टूटी हुई है।

हर सुबह वो वैसी ही मुस्कान पहनती, जैसी लोग देखने के आदी हो गए थे।

घर सँवारती, ऑफिस जाती, सबके लिए उपलब्ध रहती —

लेकिन जब अकेली होती, तो आँखों से बहता सन्नाटा ही उसका सच्चा साथ होता।

आर्यन से उसकी मुलाक़ात तीन साल पहले एक ऑफिस मीटिंग में हुई थी।

आर्यन मुंबई ब्रांच से दिल्ली आया था, और सान्वी वहीं की मैनेजर थी।

वो पहली मुलाक़ात थी — शांत, लेकिन भीतर बहुत कुछ कहती हुई।

सान्वी की सादगी, उसके लहजे की आत्मीयता और गंभीर मुस्कान ने आर्यन को आकर्षित किया।

धीरे-धीरे बातचीत बढ़ी, और फिर वो रोज़मर्रा का हिस्सा बन गई।

सुबह की शुभकामनाओं से लेकर दिन भर की छोटी-छोटी बातें और रात के आख़िरी गुडनाइट तक —

दोनों की दुनिया एक-दूसरे के आसपास घूमने लगी।

कुछ ही महीनों में आर्यन को यक़ीन हो गया —

“अगर जीवनसाथी चाहिए, तो यही।”

घर पर बात रखी।

पिता सहज थे, लेकिन माँ सरोज जी को थोड़ी हिचकिचाहट हुई —

“लड़की हमारे जैसे संस्कारों में ढल पाएगी?”

आर्यन ने मुस्कुरा कर कहा —

“माँ, जिसे दिल से अपनाया जाए, वो सब सीख जाती है।”

अंततः सब मान गए।

शादी हुई, और फिर एक सुंदर यात्रा की शुरुआत।

सान्वी ने पूरे मन से घर अपनाया।

सरोज जी की सेवा, घर की साज-सँवार, और आर्यन का हर छोटा-बड़ा ख्याल —

वो हर रिश्ते में खुद को घोलती चली गई।

आर्यन को लगता था, उसका घर सच में एक वरदान है।

लेकिन तीन साल बाद भी जब कोई किलकारी नहीं गूंजी,

तो कानों में धीमे-धीमे बातें गूंजने लगीं —

“अब तो कुछ करना चाहिए बहू…”

“इतना समय हो गया…”

सान्वी ने सब सुना, सब सहा।

आर्यन चुप रहा।

शायद वो भी भीतर से जवाब चाहता था।

कुछ जांचों के बाद डॉक्टर श्रुति ने रिपोर्ट हाथ में लेकर कहा —

“सान्वी, तुम्हारी ओवरीज़ अंडाणु नहीं बना रही हैं। कन्सीव करना संभव तो है, लेकिन बेहद कठिन होगा।” कितना समय  लगेगा कुछ कह नहीं सकते।

हम कोशिश पूरी करेंगे।

 ये सब सुन  सान्वी वहीं कुर्सी पर बैठी रह गई।

बाहर निकलते वक्त उसने आर्यन की ओर देखा —

वो पहले की तरह उसका हाथ नहीं थाम रहा था, बस जेब में हाथ डाले सामने देख रहा था।

घर लौटते हुए कोई बात नहीं हुई।

अब आर्यन देर रात तक ऑफिस में रुकता, सुबह जल्दी निकल जाता।

सान्वी रोज़ कोशिश करती कि कुछ बदले, पर सब वैसा ही बना रहता।

एक रात उसने हिम्मत करके पूछा —

“आर्यन, क्या अब मैं तुम्हारे लिए अधूरी हो गई हूँ?”

आर्यन ने न कुछ कहा, न उसकी तरफ देखा —

बस करवट बदल ली।

सुबह जब वह अकेली बैठी थी, उसने अलमारी से वो तस्वीर निकाली

जो उसकी माँ ने शादी के वक़्त दी थी —

एक बच्चा, लड्डू गोपाल की तरह सजा हुआ, गोद में मुस्कुराता हुआ।

माँ ने कहा था —

“एक दिन ये सपना तेरे घर में भी सजेगा।”

उस तस्वीर को लेकर वह मंदिर में लड्डू गोपाल के सामने बैठ गई।

आँखों से चुपचाप आँसू बह रहे थे।

उधर, ऑफिस में आर्यन ने अपने सहकर्मी राहुल को फोन पर किसी से बहस करते सुना।

फोन रखने के बाद राहुल थककर कुर्सी पर बैठ गया और बोला —

“यार, मेरी बीवी कहती है कि मैं उसे समझता नहीं… पर मैं खुद ही टूट रहा हूँ।

जब हमारी शादी हुई थी, तो लगा था कि अब ज़िंदगी बहुत खूबसूरत हो जाएगी।

लेकिन अब जब देखो, मेरी पत्नी बस शिकायतें करती है…

कभी मैं देर से आया, कभी मुस्कराया नहीं, कभी ध्यान नहीं दिया।

हर दिन कुछ न कुछ गिनवाती है।”

फिर उसकी आवाज़ भर्रा गई —

“आज सुबह जब सान्वी को देखा —

जो सबकी सेवा करती है, बिना शिकायत, बिना गिला —

तो मन में ख्याल आया, क्या सबको ऐसी पत्नी मिलती है?”

आर्यन जैसे ठिठक गया।

ये शब्द जैसे उसके भीतर कहीं गूंजने लगे।

“क्या राहुल की बातों में मेरी सान्वी छुपी थी?”

“क्या मैं भी वही कर रहा हूँ?

मैं चुप रहा, लेकिन क्या मेरी चुप्पी ने उसे अकेला कर दिया?”

शाम को घर लौटकर जब माँ ने चाय माँगी,

तो ट्रे लेकर वह उनके कमरे की ओर बढ़ा।

लेकिन दरवाज़े पर ही रुक गया।

सान्वी वहीं मंदिर के सामने बैठी थी।

लड्डू गोपाल के पास —

गोद में वही तस्वीर लिए हुए… और आँसू लगातार बहते हुए।

वो दृश्य आर्यन की आत्मा में उतर गया।

धीरे से वह उसके पास आया, घुटनों के बल बैठा और उसका हाथ थाम लिया।

“मैंने तुमसे दिल से प्यार किया था, सान्वी…

और जब मैं खुद को भी संभाल नहीं पा रहा था, तब भी तुमने इस रिश्ते को नहीं छोड़ा।”

मैं तो यही सोचकर अपने  आप पर धिक्कार कर रहा हूँ कि यदि ये मेरे साथ हुआ होता तो क्या तुम मेरे साथ इस प्रकार का बर्ताव करती? नहीं शायद कभी नहीं।

इसमें तुम्हारी क्या गलती है?  कौन शादीशुदा औरत  माँ नहीं बनना चाहेगी।

सान्वी ने उसकी ओर देखा,

उसकी आँखों में पानी था — मगर मुस्कान लौट आई थी।

“मैं जानती थी, तुम लौटोगे।

क्योंकि मैंने तुम्हारे लौटने पर भरोसा किया था ।

न झगड़ा किया, न सवाल…

बस उस विश्वास की डोर को थामे रखा, जो हमें बाँधे हुए थी।”

आर्यन ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया —

“अब हम साथ चलेंगे।

चाहे इलाज कैसा भी हो, नतीजा कुछ भी हो —

अब मैं तुम्हारा हाथ कभी नहीं छोड़ूँगा।”

उस दिन के बाद सब बदल गया।

आर्यन पहले जैसा बन गया —

माँ से खुलकर बात की, डॉक्टर से समय लिया,

और सबसे ज़रूरी — सान्वी की आँखों में दोबारा भरोसा भर दिया।

कई महीने बाद, डॉक्टर श्रुति मुस्कुराते हुए बोले 

“इलाज असर कर रहा है।

अब दवा से ज़्यादा विश्वास काम करेगा।”

सान्वी ने आर्यन की ओर देखा —

और आर्यन ने वही कहा जो एक सच्चे साथी को कहनी चाहिए 

“मैं फिर कहता हूँ — तुम मेरी ताक़त हो।

और ये ताक़त उस विश्वास से बनी है,

जो तुमने एक दिन मेरे लिए चुना था।”

रिश्तों को संभालने के लिए प्यार ज़रूरी है,

मगर उन्हें टूटने से बचाने के लिए

ज़रूरत होती है —

एक ऐसी डोर की,

जो नज़रों से नहीं, दिलों से बंधी होती है।

जिसे कहते हैं — विश्वास की डोर।

✍️ लेखिका: ज्योति आहूजा

#विश्वास की डोर

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