गाड़ी का हॉर्न लगातार बजाए जा रहा था सुबोध…..
सुमेधा 5 मिनट पहले ही…. हां – हां आ रही हूं बाबा ….बोलकर अभी तक नहीं पहुंची थी….
सुबोध कभी घड़ी की ओर कभी दरवाजे की तरफ देखता और उसका गुस्सा बढ़ता जाता …
सुमेधा आते ही …ओ सॉरी यार… बोलकर जैसे ही गाड़ी में बैठी सुबोध का एकदम से गुस्सा फूट पड़ा…
देखो सुमेधा मेरे बाप का ऑफिस नहीं है …जो देर से भी पहुंचने से कुछ नहीं होगा… दस बातें सुननी पड़ती है यार….. तुम महिलाओं को तो कोई कुछ कहता नहीं …!
अब लगता है हमें अपने-अपने ऑफिस अलग-अलग जाने की ही व्यवस्था करनी पड़ेगी …दरअसल सुमेधा को ऑफिस छोड़ते हुए सुबोध अपने ऑफिस के लिए निकल जाते थे…!
लगभग पूरे रास्ते भर आज सुबोध देर हो जाने का कारण और जिम्मेदार सुमेधा को ठहराते हुए सारा गुस्सा उस पर ही निकाल रहे थे….अब ऑफिस आने ही वाला था कि सुबोध ने सुमेधा को शांत और कुछ सोचनीय मुद्रा में बैठे देखा तो पूछा ….अच्छा एक बात बताओ …तुम तो तैयार थी… अभी आई …ऐसा बोली भी थी फिर इतना देर क्यों लगा दिया था…!
अभी तक धैर्य से सुबोध की सारी बातें , गुस्सा सुनते और सहते आ रही सुमेधा ने एक लंबी सांस ली और धीरे से कहा….
…. आपका हो जाए तब ना मैं कुछ बोलूं….
सुबोध…. ऑफिस से लौटते वक्त मां जी की दवाइयां और एक डायपर का पैकेट भी लेते आइएगा….
डायपर….? वो किसके लिए….?
तभी ऑफिस आ गया… सुमेधा बोली… दवाइयां के साथ डायपर लाना मत भूलिएगा ….मैं आपसे शाम को बात करती हूं…!
पूरे दिन सुबोध ऑफिस में ऊहापोह की स्थिति में रहा…. क्या बात है… कहीं सुमेधा की तबीयत….
नहीं – नहीं…यदि उसे कुछ होता तो मुझे मालूम होता ही ….
मां भी तो ठीक ही है… बुजुर्ग है ज्यादातर बिस्तर में ही रहती हैं दवाई वगैरह सब रख कर ही तो हम दोनों ऑफिस के लिए निकलते हैं …फिर कुछ ही देर बाद सहायिका सुमित्रा भी तो आ ही जाती है… फिर ऐसी क्या बात हो गई है ….अब शाम को ही पता चलेगा…!
शाम को लौटते वक्त कार में बैठते ही सुमेधा का पहला सवाल…. मां जी की दवाइयां और डायपर ले ली है ना आपने सुबोध…. हां .. वो तो मैंने ले ली है…. पर तुम कुछ बताने वाली थी सुमेधा….
सुबोध…जब सुबह मैंने तुम्हें बोला था… हां- हां आई बाबा ….और मैंने बाहर निकलने के लिए जैसे ही कदम बढ़ाया….. बस उसी समय टेबल से गिलास गिरने की आवाज आई… मैंने पीछे मुड़कर देखा…..
मां जी के लिए जो दवाई और गिलास में पानी रखा था गिलास मां जी के हाथ से लगकर गिर गया था और सारा पानी फर्श पर बिखर गया था…. मैं जल्दी से अंदर जाकर पोछा लाई और पानी पोछ ही रही थी …तभी मेरी नजर मां जी के बिस्तर पर पड़ी…
बिस्तर के किनारे से बूंद बूंद कर पानी टपक रहा था …जबकि गिलास जिस टेबल पर रखा था वो मां जी के पलंग से थोड़ी दूरी पर था….।
मुझे समझते देर नहीं लगी सुबोध …आज मां जी को बिस्तर पर ही बाथरूम हो गया है… ऐसा आज पहली बार हुआ है…
जानते हैं सुबोध….शर्म और झेंप छुपाने के लिए मां जी ने अपना हाथ लगाकर… गिलास गिरा दिया… ताकि पानी गिर जाए और बाथरूम वाली बात हमें पता भी ना चले….
सुबोध…. जैसे ही गिलास गिरने की आवाज आई और मैं पीछे मुड़ी….
मां जी दोनों हाथ जोड़कर दयनीय और निरीह सी स्थिति में माफी मांगती हुई मेरी ओर देख रही थी…..सुबोध पहली बार मुझे देर होने के बावजूद मां जी के ऊपर बिल्कुल गुस्सा नहीं आया…. उनकी स्थिति , मजबूरी , विवशता देखकर.. सच बताऊं… बहुत दया आ गई सुबोध ….वही मां जी है ना जिनके इशारों पर पूरा घर चलता था… उनके आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता था …. मां जी को देखते ही हम लोगों की हंसी रुक जाती थी….. आज वही मां जी…मेरे सामने हाथ जोड़कर क्षमा याचना की मुद्रा में थी …..उनकी आंखों में डर , भय और झेंप जैसे कितने भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे…
जबकि वृद्धावस्था में ये सब समस्याएं सामान्य है….
खैर… मैंने जल्दी से चादर चेंज कर उनका कपड़ा बदलने में सहायता की.. और सुमित्रा को जल्दी आने को फोन कर कहा…. इसीलिए देर हो गई थी सुबोध..।
ओह… मुझे माफ कर दो सुमेधा… मैंने सुबह ना जाने क्या-क्या कह दिया… और तुम मेरी मां के लिए ही….
नहीं सुबोध…. बात तेरी मां या मेरी मां की नहीं है …. सुमेधा ने बीच में ही बात काटते हुए कहा ….
बात उस अवस्था की है… उनकी मजबूरी की है…. हमारे दायित्व की है…. हमारे कर्तव्य की है…!
सुमेधा… मैं बेटा हूं उनका…. पर उनके बारे में , उनकी तबीयत के बारे में , उनके पसंद नापसंद के बारे में… मुझसे ज्यादा तुम्हें पता होती है…
वाकई …बेटा ज्यादा अपना है या बहू… अपनों की पहचान तो अब तक मां को अच्छे से हो गई होगी….हंसते हुए सुबोध ने सुमेधा को प्यार भरी नजरों से देखते हुए कहा…!
आप सुबह उनकी विवशता और लज्जित भरे चेहरे से हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए देखते ना सुबोध….
सच में मुझे लगा …उन्हें बाहों में भरकर एक बार बोल ही दूं ….चिंता मत कीजिए मां जी….. मैं हूं ना….
पर ड्यूटी पर जाना था ….समय मुझे अपनी भावना दिखाने की इजाजत नहीं दे रहा था ….फटाफट किसी तरह चीजों को समेट कर सुमित्रा को फोन कर ऑफिस के लिए निकल आई थी…।
बातों ही बातों में कब घर आ गया पता ही नहीं चला…..चप्पल उतार कर जैसे ही बरामदे में सुमेधा पहुंची….
मां जी आंख बंद कर सोने का अच्छा सा नाटक कर रही थी…. क्योंकि उन्हें सवेरे की झिझक शर्मिंदगी दुगनी लग रही थी …. शायद वो सोच रही थीं ….
सुबह तो सिर्फ बहू को ही ये बात पता थी …इस समय तो बहू के साथ-साथ बेटे को भी सारी बातें पता होंगी….!
पास पहुंचते ही सुमेधा मां जी के कानों में धीरे से बोली….मां जी उठिए ..देखिए… मैं आपके लिए क्या लाई हूं…. जैसे ही मां जी ने आंखें खोली …सुमेधा उनके हाथ में डायपर रखते हुए बोली …. पर मैं आपसे नाराज भी हूं मां जी… इसलिए नहीं कि….. आपने बिस्तर पर…
बल्कि इसलिए कि आपने मुझे बताया नहीं …बल्कि छिपाने की कोशिश की …क्यों …मां जी क्यों …?
आप मुझे अपना नहीं मानती… आपको तो अधिकार से.. हक से बोलना चाहिए ,बताना चाहिए…
मां जी….वृद्धावस्था में ऐसी कुछ चीजें हो जाती हैं ….पहली बार है ना शायद इसीलिए…
मां जी …एक बात और…मुझे आप दयालु ,असहाय निरीह टाइप की सासू मां नहीं ….वही रॉबीली ,कड़क ,दमदार सासू मां …आज भी चाहिए …
और हां किसी बात की चिंता मत कीजिएगा मां जी….” मैं हूं ना “……।
(स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित और अप्रकाशित रचना )
साप्ताहिक विषय : # अपनों की पहचान
संध्या त्रिपाठी