सुबह के साढ़े चार बजे थे। अभी अँधेरा पूरी तरह छँटा नहीं था। अलार्म की घंटी के साथ अनन्या की नींद खुल गई। वह कुछ पल चुपचाप लेटी रही। पास ही सो रहे पति आदित्य की नींद न टूटे, इसलिए वह धीरे से उठी।
नहाने के बाद उसने तुलसी के सामने दीपक जलाया। हाथ जोड़ते हुए होंठ हिले, “हे प्रभु, आज भी सब ठीक रखना। मुझे सामर्थ्य देना कि मैं किसी को दुख न दूँ।”
रसोई में कदम रखते ही जैसे दिन की जिम्मेदारियाँ उसके कंधों पर आ बैठीं। सभी के लिए ताज़ा नाश्ता और खाना तैयार किया। उसके बाद, साफ़-सफ़ाई की। घड़ी की सुइयाँ जैसे अनन्या की दिनचर्या के साथ तालमेल बिठाती चलती थीं।
अनन्या ट्रेंड ग्रेजुएट टीचर थी। साढ़े सात बजे स्कूल के लिए निकलना होता था। इसलिए सुबह का हर मिनट उसके लिए कीमती था।
छह बजे उसकी सास शांता जी उठीं। वे प्यार से अनन्या से बोलीं, “अरे बेटी, इतनी जल्दी सब निपटा लिया?” अनन्या मुस्कुरा दी,“मम्मी, आप सब आराम से नाश्ता कर लीजिएगा, मुझे आज थोड़ा जल्दी निकलना है, असेंबली में मेरी ड्यूटी लगी है।”
ससुर प्रमोद जी अख़बार मोड़ते हुए गर्व से बोले,
“आजकल की लड़कियाँ नौकरी करते हुए घर भूल जाती हैं। पर हमारी बहू ने दोनों बखूबी संभाल लिए।”
अनन्या के चेहरे पर हल्की लाली आ गई। सास-ससुर के ये शब्द उसकी ऊर्जा का स्त्रोत थे।
अनन्या का पति आदित्य घर का सबसे छोटा बेटा था। उसके दो बड़े भाई दूसरे शहरों में कार्यरत थे और वहीं अपने परिवारों के साथ रहते थे। आदित्य स्वभाव से शांत और समझदार था। उसे कभी यह भ्रम नहीं रहा कि शादी के बाद अनन्या की ज़िंदगी केवल रसोई तक सिमट जानी चाहिए। पति-पत्नी, दोनों के बीच समझ की एक अदृश्य डोर थी।
आदित्य की एक ही बहन थी, नेहा। घर की सबसे बड़ी, मायके की इकलौती बेटी। घर के शांत और सौहार्दपूर्ण माहौल में बदलाव की हवा तब आती थी, जब वह अपने मायके आती थी।
जैसे ही नेहा घर आती, प्रमोद जी और शांता जी का व्यवहार अनन्या के प्रति थोड़ा उखड़ा-उखड़ा सा हो जाता था। नेहा को हमेशा यह महसूस होता था कि अनन्या की नौकरी के कारण उसके माता-पिता को तकलीफ़ उठानी पड़ रही है।
एक बार नेहा ने डिनर के समय थोड़े उपदेशात्मक स्वर में कहा, “अनन्या, तुम मेरी सबसे छोटी भाभी हो। तुम्हें समझाना मेरा फ़र्ज़ है। तुम टीचर हो, बच्चों को संभालती हो। पर मुझे लगता है कि तुम्हें घर के प्रबंधन पर और ध्यान देना चाहिए। मम्मी-पापा बुज़ुर्ग हो रहे हैं, इन्हें समय पर सब कुछ मिले, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। तुम्हारी नौकरी की व्यस्तता कहीं इनके आराम में बाधा न बन जाए।”
आदित्य ने खाते-खाते निवाला रोका। उसने अपनी दीदी नेहा की तरफ़ देखा, पर अनन्या ने उसे चुप रहने का इशारा किया।
अनन्या ने नेहा को आश्वासन दिया, “दीदी, मैं अपनी पूरी कोशिश करती हूँ कि समय से सब काम करूं। मुझे ख़ुशी है कि मम्मी-पापा को कोई शिकायत नहीं है। पर अब से मैं अपने दायित्व और अच्छे से निभाने का प्रयास करूंगी। आप चिंता न करें।”
नेहा जितने दिन रहती, उसकी तुनकमिजाजी का असर अनन्या के साथ-साथ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से पूरे घर पर छाया रहता। अनन्या को मन में क्रोध आता पर वह रिश्तों की मर्यादा बनाए रखती। नेहा के जाने के बाद घर में सब कुछ सामान्य होने में कई दिन लग जाते।
अगली बार जब नेहा कुछ दिन मायके रहने के लिए आई, उसे अनन्या की नौकरी, माता-पिता और भाई का उसके प्रति सामंजस्यपूर्ण व्यवहार फिर असहज करने लगा। एक दिन अनन्या स्कूल में अधिक थक गई। इसलिए वह घर आकर लंच करने के बाद सो गई। शाम के छह बज गए, जब वह सबके लिए चाय लेकर ड्राइंग रूम में आई।
नेहा ने चाय का कप उठाते हुए, एक व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ कहा, “अनन्या, तुम्हारी क़िस्मत बहुत अच्छी है। नौकरी के बहाने घर से निकल जाती हो। इतने अच्छे सास-ससुर मिले हैं, जो तुम्हें कुछ नहीं कहते।”
अनन्या ने यह बात सुनी, कटाक्ष को समझा, पर हंसकर जवाब दिया, “हां दीदी, मैं सच में भाग्यशाली हूं कि मम्मी-पापा इतने अच्छे हैं। इन्हीं के सहयोग और समर्थन से मैं वास्तव में नौकरी कर रही हूं, नौकरी का बहाना नहीं।” अनन्या के उत्तर से नेहा का मुंह उतर गया।
एक शाम, अनन्या रसोई में थी और अगले दिन की तैयारी कर रही थी। शांता जी और नेहा, लिविंग रूम में बैठी बातें कर रही थीं। प्रमोद जी बाजार से सब्जियां लेकर आए थे। रसोई से थोड़ा बाहर आते हुए अनन्या ने सब्जियों का थैला पकड़ा तो वह असली सच सुन लिया, जो नेहा के मन में था।
नेहा शांता जी से कह रही थी, “मम्मी, क्यों भाभी को इतना सिर पर चढ़ा रखा है? सुबह-सुबह पापा को नाश्ते में गर्मागर्म परांठे चाहिए होते हैं, और इसकी नौकरी के चक्कर में ठंडा खाना गर्म करके खाना पड़ता है। क्यों इतना समझौता कर रहे हैं आप लोग?
शांता जी ने दबी आवाज़ में कहा, “अरे नेहा, कोई बात नहीं! हमें एडजस्ट करने की आदत हो गई है। अब वह नौकरी करती है, तो उसे सपोर्ट करना ही पड़ता है।”
नेहा ने तपाक से कहा, “यह सपोर्ट नहीं, कमज़ोरी है। ये कामकाजी औरतें, बस अपना कम्फर्ट देखती हैं, घर की परंपरा नहीं। मैं तो नौकरी नहीं करती और अपने सास-ससुर की कितनी इज़्ज़त करती हूं! आप लोग बस अपनी इज़्ज़त दाँव पर लगा रहे हैं। इसे याद दिलाओ कि इसका पहला कर्तव्य घर है।”
अनन्या के कान यह बात सुनकर गर्म हो गए। उसे लगा, जैसे उसके पूरे समर्पण और श्रम पर किसी ने पानी फेर दिया हो। उसका स्वाभिमान बुरी तरह आहत हुआ। उसने सास-ससुर के साथ अपने रिश्ते को प्रेम और सम्मान से सींचा था, लेकिन नेहा की नज़रों में, वह सिर्फ़ एक ‘छूट लेने वाली कामकाजी औरत’ थी। अनन्या को यह बात बहुत प्रभावित करती थी कि उसके सास-ससुर अपनी बेटी की बातों में आकर उसके प्रति कठोर हो जाते थे।
अनन्या तुरंत जाकर प्रतिक्रिया देना चाहती थी, पर तभी उसे ध्यान आया,”दीदी तो कल सुबह ही सुसराल वापस चली जाएंगी, ऐसे समय क्यों घर और रिश्तों में तनाव बढ़ाना!” उसने अपने दर्द को भीतर ज़ब्त किया और तय कर लिया कि वह चुप नहीं बैठेगी, बस सही समय की प्रतीक्षा करेगी।
रात को, आदित्य ने अनन्या की उदासी महसूस की और उससे पूरी बात जानी। आदित्य की आँखों में गुस्सा और पश्चाताप दोनों थे। वह बोला, “आई एम सॉरी, अनन्या। मुझे पहले ही नेहा दीदी को टोकना चाहिए था। वे मम्मी-पापा के मन में भी ग़लतफ़हमी पैदा कर रही हैं। मैं सुबह ही उनसे बात करूंगा।”
अनन्या बोली, “अभी नहीं, आदित्य। जाते समय उनका मूड़ खराब करना ठीक नहीं। अगली बार उन्हें तर्क से समझाना होगा, मैं ही बात करूंगी। आपको मेरा साथ देना होगा।”
आदित्य ने अपनी पत्नी का हाथ थामा, “ठीक है, मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं किसी भी हालत में, तुम्हें अकेला नहीं महसूस होने दूँगा।”
कुछ दिनों बाद, नेहा की बेटी रिया का रिश्ता तय हो गया। नेहा और उसके पति नीरज मिठाई और खुशखबरी लेकर आए तो घर में खुशी का माहौल था। वे दोनों ही इस रिश्ते को लेकर अत्यधिक उत्साहित थे। अनन्या ने देखा कि, हर मिलने वाले के सामने वे डींगे मार रहे थे।
नीरज ने गर्व से कहा, “हमारी बेटी रिया की क़िस्मत बहुत अच्छी है। उसके होने वाले सुसराल वाले बहुत अमीर हैं। कई नौकर-चाकर लगे हैं। उसे किचन में झाँकना भी नहीं पड़ेगा। रिया को वहाँ आराम से नौकरी करने की पूरी आज़ादी मिलेगी।”
नेहा ने तुरंत बात आगे बढ़ाई, “हाँ, और हमने तो लड़के वालों के आगे पहले ही शर्त रख दी है कि हमारी पढ़ी-लिखी बेटी घरेलू काम नहीं करेगी। जैसा हमने चाहा था, वैसा ही घर-वर मिल गया है। रिया को कोई रोक-टोक नहीं रहेगी। उसकी ज़िंदगी आराम से चलेगी।”
“हाँ, हम आधुनिक सास-ससुर चाहते थे। रिया ने जो चाहा था, वैसा ही हो गया…………।” वे लोग लगातार अपनी बेटी के आराम और आज़ादी की बातें कर रहे थे, और अनन्या चुपचाप चाय परोस रही थी। सब सुनकर, अनन्या ने आदित्य की तरफ़ देखा। आदित्य ने एक गहरी, मूक सहमति दी। सही समय आ गया था।
चाय का कप मेज़ पर रखते हुए, अनन्या ने मुस्कुराकर, अपनी ननद और ननदोई की ओर देखा। उसकी आवाज़ में कोई कटुता नहीं थी, सिर्फ़ आत्म-विश्वास था, “दीदी, जीजा जी, मुझे रिया के लिए ये सब जानकर बहुत ख़ुशी हुई। यह हर माता-पिता का सपना होता है कि उनकी बेटी को ससुराल में पूरा सम्मान और समर्थन मिले। बेटियों के करियर में सपोर्ट चाहना और करना, अत्यंत प्रगतिशील सोच है।”
अनन्या ने गहरी साँस ली और अपनी बात पूरी की, “#मैं भी तो एक बेटी हूँ! अपने मम्मी-पापा की लाडली। उन्होंने भी मुझे उच्च शिक्षा दिलाई, ताकि मैं अपनी पहचान बना सकूँ। वे भी यही चाहते थे कि जब मैं सुबह स्कूल के लिए निकलूँ, अपने दायित्व निभा कर जाऊं, पर मेरे ससुराल में मुझे पूरा सहयोग और सम्मान मिले।”
नेहा और नीरज, दोनों ही थोड़ा असहज हो गए। अनन्या की आँखें नम हो गई, पर उसकी आवाज़ दृढ़ थी, “दीदी, जब आप रिया के लिए सर्वोत्तम जीवन की कामना करती हैं, तो आप यह कैसे भूल गईं कि मैं भी तो किसी की रिया हूँ, किसी की बेटी हूं? जब आप कहती हैं कि मेरी नौकरी के कारण ठंडा खाना खाना पड़ता है, तो क्या मेरा शारीरिक श्रम और करियर की महत्वाकांक्षा सिर्फ़ इस कारण तुच्छ हो जाते हैं, क्योंकि मैं आप लोगों के लिए एक ‘बहू’ हूँ?”
पूरे कमरे में गहन चुप्पी छा गई। प्रमोद जी और शांता जी की आँखें खुली रह गईं। उन्हें पहली बार अपनी बहू का दर्द दिखाई दिया। उन्हें अहसास हुआ कि वे भी तो हमेशा नेहा की संकीर्ण सोच से प्रभावित होते रहे हैं और अपनी बेटी और बहू के बीच दोहरे मापदंड अपनाते रहे हैं।
तब, आदित्य उठा। वह अनन्या के पास आया और सार्वजनिक रूप से उसका हाथ थाम लिया। वह सबको संबोधित कर बोला,”आज अनन्या ने जो कहा है, वह हर बेटी का दर्द है। अनन्या अपनी ओर से घर को खुशहाल रखने का हर संभव प्रयत्न करती है। यह इसलिए नहीं कि वह ‘बहू’ है, बल्कि इसलिए कि वह ‘इंसान’ है और सबसे प्यार करती है। मैं आज यह घोषणा करता हूँ कि कल से, अनन्या सुबह साढ़े चार बजे अकेले नहीं उठेगी। मैं समान रूप से इसके साथ किचन में काम करूँगा। हमारी ज़िम्मेदारी साझेदारी की है। क्योंकि जब हम सब रिया के लिए आज़ादी चाहते हैं, तो हम सब को मिलकर अनन्या को भी वही आज़ादी और सम्मान देना है।”
शांता जी की आँखों से आँसू बह निकले। वह उठीं और अनन्या को गले लगा लिया, “मुझे माफ़ कर दे, मेरी बच्ची। नेहा के पूर्वाग्रह ने मेरी आँखें बंद कर दी थीं। मैंने तेरे प्यार और समर्पण का मोल नहीं समझा। आज के बाद, तुम घर और करियर दोनों को बिना किसी दबाव के जीओगी।”
प्रमोद जी ने भी अनन्या के सिर पर हाथ रखकर कहा, माफ़ करना, बेटी। हमारी सोच में कहीं न कहीं कमी थी। हमने तुम्हें बेटी माना, लेकिन समाज की बातों में आकर, तुम्हें दुख दिया। आज के बाद, तुम सिर्फ़ हमारी बहू नहीं, इस घर की बराबर की बेटी हो, जिसकी मेहनत का पूरा सम्मान होगा।”
अब नेहा ने आत्मग्लानि और शर्म से सिर झुका लिया। उसका पति नीरज बेशक अपनी बेटी रिया की आजादी चाहता था, पर उसे हैरानी हो रही थी कि उसकी पत्नी नेहा अपने मायके आकर अपनी ही भाभी अनन्या के प्रति ऐसा दुर्भावनापूर्ण व्यवहार करती है।
कमरे में कुछ क्षणों तक कोई नहीं बोला। सिर झुकाए बैठी नेहा के भीतर वर्षों से जमी धारणाएँ टूट रही थीं। ‘बेटी के लिए स्वतंत्रता का अधिकार और बहू के लिए सिर्फ कर्तव्य’- उसकी अपनी विभाजनकारी सोच आज पहली बार उसे ही चुनौती दे रही थी।
धीरे-धीरे उसने सिर उठाया। उसकी आँखों में न आत्मरक्षा थी, न तर्क। केवल एक गहरी स्वीकारोक्ति थी। उसकी आवाज़ रुंध गई, “अनन्या, तुमने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैंने आज पहली बार खुद को आईने में देखा है। मैं अपनी बेटी के लिए जो सुरक्षा और सम्मान माँग रही हूँ, वही मैं तुमसे छीनती रही। मैं स्वीकार करती हूं कि मैंने आज पहली बार तुम्हारे स्थान पर रिया को रखकर देखा है और मुझे अपनी दोहरी मानसिकता पर शर्म आ रही है।”
नेहा की आँखों से आँसू गिर पड़े। उसने एक पल रुककर कहा, “मैं चाहती हूँ कि रिया को कभी यह न कहना पड़े कि ‘मैं भी तो एक बेटी हूँ’, जैसा तुम्हें कहने को मैंने मजबूर किया। और अगर मुझे सच में अपनी बेटी को मजबूत बनाना है, तो मुझे पहले तुम्हारे प्रति न्याय करना होगा। सब बेटियों को समान समझना होगा। हो सके तो मुझे माफ कर देना।”
अब तक चुप बैठे नीरज ने नेहा की ओर देखा और उसके आत्मबोध को समझते हुए शांत स्वर में कहा, “नेहा, आज अगर अनन्या ने यह बात न उठाई होती, तो शायद हम रिया को सशक्त बनाते हुए, बाकी सब बेटियों के लिए कितना गलत करते रहते।”
फिर नीरज ने अनन्या की ओर हाथ जोडक़र कहा, “हम अपनी बेटी के लिए जो दुनिया चाहते हैं, निश्चित रूप से आप भी उसी दुनिया की हकदार हैं। मैं अपने साथ-साथ नेहा की ओर से भी आपको आश्वासन देता हूं कि हम लोग आपके लिए वही दुनिया बनेंगे। अब तक जो भी हुआ, उसका मुझे खेद है।”
अंत में अनन्या अपने स्थान से खड़ी हुई और कृतज्ञतापूर्वक कहा, “मैं आप सबसे छोटी हूँ। कृपया माफी मत मांगिए। मुझे किसी विशेषाधिकार की चाह नहीं थी। बस सबसे ‘समझ’ की चाह थी कि मेरी मेहनत, मेरी पहचान, मेरे ‘बहू’ होने से छोटी न हो जाए। हर बहू बेटी भी तो होती है, फिर भेदभाव क्यों? आप सब ने मेरी बात को समझा, इसके लिए मैं आप सब की आभारी हूं।”
अनन्या द्वारा “मैं भी तो एक बेटी हूँ” का उद्घोष, परिवार में सकारात्मक परिवर्तन लाया। अब घर में प्रेम, परस्पर समझ, सहयोग और सामंजस्य का वातावरण विकसित हुआ। इस उद्घोष ने सबको सिखा दिया कि बेटी का सम्मान, मायके की दहलीज़ से ससुराल की दहलीज़ तक, एक समान होना चाहिए।
सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: #मैं भी तो एक बेटी हूं।