मैं भी तो एक बेटी हूं – सुदर्शन सचदेवा

शाम के पाँच बज रहे थे। बारिश की हल्की-हल्की बूँदें छत पर पड़ते हुए एक अजीब-सी बेचैनी पैदा कर रही थीं।

डोरबेल बजी, और गीता ने दरवाज़ा खोला। सामने एक लड़की खड़ी थी—भीगी हुई, डर से कांपती, और आँखों में अजीब-सा दर्द।

“आंटी… क्या मैं अंदर आ सकती हूँ? मैं… मैं और कहीं नहीं जा सकती।”

गीता घबरा गईं, पर लड़की के चेहरे का डर देखकर दरवाज़ा खोल दिया।

“बेटा, तुम कौन हो?”

लड़की कुछ पल चुप रही, फिर धीमे से बोली—

“मैं… आपकी बहू हूं।”

गीता का दिल धक् से रह गया।

बहू? लेकिन उनका बेटा तो किया ही नहीं करता था। या शायद उसने बताया नहीं?

गीता ने उसे सोफे पर बैठाया, पानी दिया।

“बेटा, ठीक से बताओ। तुम कौन हो?”

लड़की रो पड़ी।

“मेरा नाम खुशी है।

आपके बेटे आरव से मेरी शादी छह महीने पहले हुई थी… पर उन्होंने यह बात किसी को नहीं बताई।”

गीता का दिमाग सुन्न पड़ गया।

आरव ने झूठ बोला? क्यों?

खुशी ने काँपते हुए कहा—

“आरव मुझे घर नहीं लाना चाहते थे।

कहते थे कि आप गुस्सा हो जाएंगी।

धीरे-धीरे उनका व्यवहार बदलने लगा।

कल रात तो उन्होंने मुझे घर से निकाल ही दिया… कहा कि सब भूल जाओ, शादी को भी।”

गीता ने कप पकड़ते-पकड़ते हाथ रोक लिया।

उनके दिल में तूफ़ान उठ रहा था—

दर्द, गुस्सा, भ्रम… सब एक साथ।

“बेटा, तुम मेरे पास क्यों आई?”

खुशी ने आँसू पोंछे।

“क्योंकि…

मैं भी तो किसी की बेटी हूं आंटी।

मेरे अपने घर में मुझे दोषी ठहरा दिया गया।

मुझे कहा—

‘तुम ही गलत हो, तभी पति ने छोड़ दिया।’

और मैं?

मैंने तो बस प्यार किया था।”

गीता का दिल पिघल गया।

उसने लड़की का हाथ पकड़ लिया—

“आओ, बैठो। सब बताओ।”

आरव देर रात घर आया

गीता ने दरवाज़ा खोला तो वह चौंक गया—

“मम्मी, आप जाग रही हैं?”

“हाँ आरव,” गीता ने कठोर आवाज़ में कहा,

“और तुम्हारी पत्नी मेरे कमरे में सो रही है।”

आरव का चेहरा उतर गया।

“मम्मी वो… मैं समझा नहीं, वो मेरी मर्ज़ी… मैं उसे नहीं रखना चाहता।”

गीता ने पहली बार बेटे पर जोर से आवाज़ उठाई—

“तुम मुझसे झूठ बोलते रहे?

शादी की और मुझे बताया भी नहीं?”

आरव झल्लाया—

“मम्मी, आप राज़ी नहीं होतीं!

इसलिए शादी छुपानी पड़ी।”

“और अब?”

गीता की आवाज़ टूट रही थी।

“जब लड़की अपने घर से निकाल दी गई, तो तुम उसे सड़क पर छोड़ आए?

क्योंकि तुम ‘थक चुके’ थे?”

आरव ने गुस्से में कहा—

“मम्मी, उससे मेरी लाइफ डिस्टरब होती थी। मैं आज़ादी चाहता हूँ।”

गीता फूट पड़ीं

“आरव!

क्या लड़की कोई सामान है?

तुम्हें चाहिए तो रखो, नहीं चाहिए तो फेंक दो?

वो किसी की बेटी है, किसी की जान है।

तुम भूल गए कि मैं खुद एक औरत हूं?

मैं भी किसी की बेटी थी!

प्यार करती थी… सपने देखती थी…”

गीता की आवाज़ भर्रा गई।

“एक उम्र मैंने तुम्हारे लिए काट दी।

और तुम आज किसी और की बेटी का दिल तोड़कर आए हो।”

आरव खामोश हो गया।

मां की आँखों में पानी देखकर वह पछता रहा था।

सुबह हुई – गीता ने फैसला सुना दिया

खुशी अभी भी डरी हुई थी।

गीता उसके पास बैठीं, उसके सिर पर हाथ फेरा—

“बेटा, अब जो भी होगा, तुम्हारी इच्छा से होगा।

तुम चाहो तो मेरे घर में रहो।

मैं तुम्हें बेटी की तरह रखूंगी।”

खुशी रो पड़ी—

“पर समाज क्या कहेगा आंटी?”

गीता मुस्कुराईं—

“समाज ने कभी किसी बेटी की परवाह की है?

अब मुझे उसकी परवाह नहीं।”

आरव ने शर्मिंदा होकर कहा—

“मम्मी… मैं माफी चाहता हूँ।

मैंने गलती की।

खुशी, अगर तुम चाहो तो… हम फिर से—”

खुशी ने उसकी बात काट दी।

उसकी आवाज़ टूटी हुई पर दृढ़ थी—

“आरव, एक बेटी टूटकर भी दोबारा जी सकती है।

लेकिन वह उसी हाथ के सहारे नहीं जी सकती

जो उसे गिराता हो।

मैं अब अपना फैसला खुद लूँगी।”

गीता ने उसका हाथ थाम लिया—

“मैं तुम्हारे साथ हूं।

जिंदगी तुम्हारी है—

इसे डर नहीं, इज़्ज़त के साथ जीना।”

खुशी ने धीरे-धीरे खुद को संभाला।

गीता ने उसे पढ़ाई और नौकरी के लिए सपोर्ट किया।

आरव ने अपनी गलती स्वीकार की, पर खुशी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

और एक दिन गीता ने बहुत गर्व से कहा—

“जिस दिन मैंने खुशी को बेटी की तरह अपनाया,

उस दिन मैंने खुद को भी दोबारा पाया।

क्योंकि मैं भी तो… एक बेटी हूं।”

मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा !

सुदर्शन सचदेवा

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