एक छोटे शहर की रहने वाली साक्षी बचपन से ही सवालों से घिरी रही — “लड़की हो, ज़्या दा मत उड़ो”, “पढ़-लिखकर क्या करोगी?” और “शादी ही तो करनी है अंत में!” इन सब तानों के बिच उसके मासुम में लेकिन कुछ और ही चल रहा था — एक आग, जो उसे बार-बार कहती थी: “मैं सिर्फ किसी की बेटी, बहन या पत्नी बनने के लिए नहीं बनी हूँ… मैं अपनी पहचान खुद बनाऊँगी।”
उसके घर में तीन भाई थे, और साक्षी सबसे छोटी। पढ़ाई में कभी भी बहुत तेज़ नहीं थी, लेकिन फिर भी वह पढ़ना चाहिए थी । उसके सपनों के लिए उसके परिवार में न तो जगह थी, न समय। उसके माता-पिता और भाई भी ना तो उसके सपनों को ना उसकी सोच को कभी समझ पाए ।
एक बार आठवीं कक्षा में उसने स्कूल की भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया — विषय था “नारी का अस्तित्व”। जब उसने मंच पर जाकर बोलना शुरू किया, तो पूरी भीड़ चुप हो गई। उसकी आवाज़ में डर नहीं, दृढ़ता थी। और जब उसने भाषण खत्म किया, तालियों की गूंज ने साक्षी के मन में पहली बार आत्म – विश्वास का बीज बो दिया — “मैं कर सकती हूं!”
मगर रास्ता आसान नहीं था। दसवीं के बाद घरवालों ने कह दिया –
“अब बहुत पढ़ लिया, अब घर के काम सीखो, कल को ससुराल जाना है।”
साक्षी ने हिम्मत नहीं हारी। वह सुबह जल्दी उठकर सब काम करती, फिर चुपचाप किताबें लेकर छत पर चली जाती और पढ़ती। उसे पता था – अगर उसे आगे बढ़ना है, तो खुद ही रास्ता बनाना होगा।
एक दिन उसके इलाके में एक मोबाइल वैन आई, जिसमें कंप्यूटर और इंटरनेट की जानकारी दी जा रही थी। साक्षी ने पहली बार “ऑनलाइन कोर्स” शब्द सुना। उसने पड़ोस की बुआ के फोन से नेट चलाना सीखा और फ्री कोर्स करने लगी। खुद ही इंग्लिश, डिजिटल मार्केटिंग और ब्लॉगिंग जैसी आधुनिक और ट्रेडिंग स्किल्स सीखना शुरू किया और काफी कुछ बहुत जल्दी सीख भी लिया ।
धीरे-धीरे उसने एक हिंदी ब्लॉग शुरू किया — “गाँव की लड़की, सपनों की उड़ान”। वह वहाँ अपनी कहानियाँ लिखती, अपने अनुभव साझा करती, और दूसरी लड़कियों को प्रेरित करती। शुरुआत में कोई पढ़ता नहीं था। लेकिन उसने हार नहीं मानी।
फिर एक दिन उसका एक लेख वायरल हो गया — “मैं सिर्फ बहन या बेटी नहीं, इंसान भी हूं”. उस दिन से उसके ब्लॉग पर लड़कियों के कमेंट्स आने लगे — “आपने तो दिल जीत लिया”, “आप हमारी आवाज़ हैं”, “हमें भी अब कुछ करने की हिम्मत मिल रही है।”
घरवालों को जब उसके ब्लॉग से मिलने वाली आमदनी का पता चला, तो वे भी चौंक गए। जो साक्षी कभी एक मोबाइल के लिए तरसती थी, अब खुद मोबाइल रिपेयरिंग सेंटर, गाँव की लड़कियों के लिए डिजिटल स्किल की क्लास और एक छोटा लाइब्रेरी चला रही थी।
अब वही लोग जो कहते थे, “लड़की हो, ज़्यादा मत उड़ो, क्या करोगी ज्यादा पढ़कर” , वही लोग अब साक्षी को बुलाकर गाँव की लड़कियों को प्रेरणा देने के लिए कहते हैं। और साक्षी हर बार मुस्कराकर कहती है —
“पहचान माँगने से नहीं मिलती, मेहनत से बनानी पड़ती है”। अपनी पहचान बनाने के लिए एक लंबा संघर्ष करना पड़ता है । यह साबित करना पड़ता है “मैं भी हूं”— और मैं रहूंगी… अपने नाम से – अपनी पहचान से !
—
शिक्षा:
इस समाज में हर लड़की को बार-बार साबित करना पड़ता है कि उसका अस्तित्व मायने रखता है। लेकिन अगर वो ठान ले, तो वह न सिर्फ अपनी पहचान बना सकती है, बल्कि दूसरों के लिए रास्ता भी खोल सकती है।
#अस्तित्व
मधु पारिक