मानवता – बालेश्वर गुप्ता,

        रात्रि के नौ बजे होंगे, दरवाजे  पर कॉल बेल का स्विच लगा होने के बावजूद कोई दरवाजा जोर जोर से पीट रहा था. ये तो समझ में आ गया था कि निश्चित ही कोई बड़ी परेशानी है. तभी तो दरवाजा पीटने की व्यग्रता है, यह स्वाभाविक ही होता है. मेरे सामने धर्म संकट आ खड़ा हुआ,कोविड महामारी पूरी दुनिया में फैली हुई थी,दुनिया थम चुकी थी, सब घरों में दुबके पड़े थे, अपनों से भी डर कर.यहाँ कोई पता नहीं कौन दरवाजा जोर जोर से  पीट रहा है, तो कैसे खोला जाए. दरवाजा लगातार और जोर से पीटा जाने लगा था,घबराहट और रोने की आवाज से स्पष्ट हो गया था कि बाहर कोई महिला है. पत्नि भी दरवाजा खोलने को मना कर रही थी. उसका कहना था कि भगवान की कृपा से इस बीमारी से अभी तक बचे हुए हैं, बाहरी व्यक्ति से मिलने से कहीं बीमारी अपने घर में  भी न घुस जाये.बात सही भी थी  उस कोविड के समय में किसी से सम्पर्क बहुत बड़ी भूल होती. 

       फिर भी मन नहीं माना  पता नहीं कौन महिला किस परेशानी में है,बिल्कुल निर्विकार भी तो नहीं रहा जा सकता, मानवता भी कोई चीज़ होती है. मैं पत्नि की बात अनसुनी करके चेहरे पर मास्क लगा कर दरवाजे की ओर बढ़ ही गया. मेरी पत्नि मुझे रोकती ही रह गयी. 

      मेरे दरवाजा खोलते ही पड़ोस की भाभी रोते रोते मेरा हाथ पकड कर खींचने लगी,वे मुझे अपने फ्लेट पर ले जाना चाहती थी. रोते रोते बोलती जा रही थी, देखो भैया  इन्हें क्या हो गया है, मैं क्या करूं,हम तो यहाँ नये नये आये हैं,हमारा तो इस शहर में कोई भी नहीं.मैं अकेली क्या करूं?भाभी के आर्तनाद ने मुझे अंदर तक हिला दिया. उस समय मैं कोविड  महामारी को भूल गया,और उनके फ्लेट की ओर खिंचा चला गया.

          तीन चार महीने पहले ही  टावर के मेरे माले पर एक दंपति ने किराये पर एक फ्लेट लिया था. उनको दो चार बार लिफ्ट में ही देखा था. तभी पता चला उनका नाम मनीष एवं मालती था.मनीष किसी बड़ी कंपनी में कंसल्टेंट था, मालती भी जॉब करती थी. बच्चे हास्टल में रहते थे. उनके बोल चाल के लहजे तथा पहनावे से कुलीन और सम्पन्न प्रतीत हो रहे थे. मेरा सोचना था कि अच्छे पड़ोसी मिल गये हैं. पर उनकी व्यस्तता और कुछ संयोग न बन पाने के कारण चाहते हुए भी उनसे हमारा मेल जोल बढ़ नहीं सका. इसी बीच पूरे विश्व में कोरोना महामारी का प्रकोप छा गया. हर कोई हर किसी से बचने लगा. चेहरों पर मास्क लग गये. घर में हर कोई घर में ही कैद होकर रह गया. ऑफिस बंद हो गये. वर्क फ्रॉम होम का चलन शुरू हो गया. लगने लगा था, दुनिया चार दीवारी में सिमट गयी है. ऐसे समय में ही मेरे पेट में भयंकर दर्द उठ गया,घरेलू उपचार काम नहीं कर रहा था, हॉस्पिटल जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. सोच बन रही थी कोविड महामारी के समय घर से निकलने का मतलब मौत को दावत देने जैसा था,पर दर्द से कैसे निजात मिले?घर में पत्नि, बेटा, बहू,सब परेशान थे साथ ही असहाय महसूस कर रहे थे. रात के नौ बज गये, दर्द असह्य हो गया तो मेरा बेटा बोला, पापा आपको हॉस्पिटल चलना होगा,मैं आपको दर्द से तड़फते नही देख सकता. वह मुझे सहारा देकर लिफ्ट की ओर लेकर चला मेरे मुंह से कराहने  की आवाज निकल रही थी. ऐसे में कोई पड़ौसी मामला क्या है, यह जानने को भी नहीं  निकला सिवाय मनीष के. मनीष ने मेरे बेटे से बस इतना कहा कि क्या मैं साथ चलूँ?बेटे ने मना कर दिया अंकल आप रिस्क न ले,मैं सब सम्भाल लूंगा. बेटा मुझे हॉस्पिटल ले गया. 

     चार दिन बाद मैं गाल ब्लैडर के ऑपरेशन के बाद घर वापस आ गया. घर मे सब का कहना था देखो सात पड़ोसी है,पर मनीष जी के अतिरिक्त कोई मामला क्या है, ये तक पूछने नही आया. हमने निश्चय कर लिया कि इस महामारी के बाद हम मनीष जी से सम्पर्क बढ़ायेंगे. 

        उस दिन मालती जब मुझे अपने फ्लेट में खींच कर ले गयी तो  मैंने देखा मनीष को साँस लेने में भी दिक्कत हो रही थी, वह हांफ रहा था. उसको कोरोना हो गया था. लग रहा था उसे तुरंत ऑक्सीजन नहीं दी गयी तो अनर्थ हो सकता है. ऐसे में क्या किया जाये, ये समस्या मुँह बाये सामने खड़ी थी. फिर भी मैं मालती से यह कहकर उसे ढाढस देते हुए चला आया कि मैं मेडिकल सहायता का प्रयास करता हूँ.मेरे सामने प्रश्न था किस प्रकार मनीष की जान बचायी जाये?कोई रास्ता सुझायी नही दे रहा था मन खिन्न था.अचानक मेरे मस्तिष्क में आया कि सोसाइटी के सचिव से मालूम तो किया जाए, वो क्या सहायता कर सकते हैं? वे संयोगवश मेरे ही टावर में मेरे माले से चार माले नीचे फ्लेट में ही रहते थे  उनसे परिचय भी अच्छा खासा था, सो मैंने उनको फोन किया  और गुजारिश की कि वे किसी प्रकार मनीष के लिये तुरंत ऑक्सीजन की व्यवस्था तो कर ही दे साथ ही हॉस्पिटल भेजने में सहायता कर दे. सचिव बोले आप बिल्कुल चिंता न करे, मेरे फ्लेट पर ही मेरा अपना एक ऑक्सीजन सिलेंडर रखा हुआ है, जो इमर्जेंसी वास्ते मैंने अपने लिये मंगवा कर रखा हुआ था, मैं उसे तुरंत लिफ्ट में रख रहा हूँ, उतारना आपको पड़ेगा. सिलेंडर बिल्कुल कार्य स्थिति में है, बस उसका मास्क लगा कर  नोब खोलनी है. हॉस्पिटल ले जाने की व्यवस्था करता हूं. इतनी जल्दी सब कुछ हो जायेगा, इसकी कल्पना भी नही थी. ऑक्सीजन लगते ही मनीष जी को राहत मिल गयी. थोड़ी देर में ही सचिव का फोन भी आ गया. उन्होंने कहा कि दस मिनट के अंदर एम्बुलेंस आ रहीं है,आप मनीष को एम्बुलेंस में पहुचा दे,उनके साथ कोई जा नहीं सकेगा  ,फोन से ही उनकी खोज ख़बर लेते रहनी होगी. मालती साथ जाने की जिद कर रहीं थी, पर कोविड प्रोटोकॉल के कारण वे नही जा सकती थी. काफी समझा बुझा कर उन्हें फ्लेट पर वापस भेजा और मनीष हॉस्पिटल चले गये. मालती के खाने पीने की व्यवस्था मेरी पत्नि ने सम्भाल ली थी. 

      11 दिन बाद मनीष कोरोना को परास्त करके घर लौट आये, घर में भी कुछ दिन उन्हें अलग ही रहना था. लेकिन अब मालती खुश थी, बार बार मुझे धन्यवाद भी दे रही थी .मैं बस इतना ही कह पा रहा था कि सब ईश्वर की कृपा से ही हुआ है. मालती फिर भी कह रही थी भाईसाहब आप हमारे लिये ईश्वर बन कर आये थे. ऐसे में कौन भला अपनी जान जोखिम में डालता है. 

     मैं सोच रहा था  कि लिफ्ट में मात्र परिचय मात्र से मनीष इसी महामारी में मेरे कराहने की आवाज सुनकर अपने फ्लैट से निकल कर आया था,और हॉस्पिटल साथ चलने की पेशकश की थी, और कोई तो नही आया था, इसका मतलब उसमे इंसानियत थी, मैं भी इसी महामारी में मनीष के लिये चिकित्सा की व्यवस्था करा पाया तो कहीं ना कहीं मनीष की मानवता का वह उत्तर ही रहा होगा, तो सोसाइटी के सचिव ने अपने लिये रखे ऑक्सीजन के सिलेंडर को भी दे दिया और मनीष को हॉस्पिटल ले जाने की व्यवस्था करा दी, तो सचिव महोदय में भी कहीं न कहीं इंसानियत का पुट तो था ही. 

     मुझे लगा कि हम भारतीयों के जिंस में मानवता अंदर पैठ करके बैठी ही है, बस दूसरी सभ्यता से प्रभावित हो हम दूसरे के दर्द से आंख बंद कर लेते हैं. 

बालेश्वर गुप्ता,

  नोयडा 

मौलिक, अप्रकाशित

#इंसानियत 

error: Content is protected !!