गाँव की संकरी गलियों में धूप की एक किरण ने जैसे हीरा बिखेर दिया था। मगर मीनाक्षी की आँखों में उस चमक का कोई असर नहीं था। वह अपनी झोंपड़ी के सामने बैठी, सूखी लकड़ियों को तोड़ते हुए, उन टूटते तंतुओं में शायद अपना ही बिखरा हुआ जीवन देख रही थी।
उसकी पीठ पर बँधा बच्चा चुपचाप सो रहा था। पाँच साल की बेटी माया उसके पास बैठी, मिट्टी के बर्तनों में काल्पनिक खाना बना रही थी। “माँ, आज दाल में नमक ज्यादा नहीं डालना,” उसने गंभीर होकर कहा। मीनाक्षी ने उसकी ओर देखा—उसकी आँखों में वही सवाल था, जो हर रोज़ उठता था—क्या आज भी बच्चों को भूखे सोना पड़ेगा?
वह उठी और चूल्हे के पास जाकर बैठ गई। आटा गूँथते हुए उसके हाथ रुक गए। सामने की दीवार पर टँगा कैलेंडर—जिसमें उसके पति की तस्वीर लगी थी—उसे घूर रहा था। वह कैलेंडर पिछले साल आया था, जब उसका पति अभी जीवित था
और शहर में मजदूरी करके महीने के अंत में कुछ रुपये भेज देता था। फिर एक दिन, किसी ने खबर दी कि वह कंस्ट्रक्शन साइट पर गिरे स्लैब के नीचे दबकर मर गया। मुआवज़े के नाम पर ठेकेदार ने दस हज़ार रुपये फेंक दिए और कहा, “और कुछ नहीं मिलेगा।”
उस दिन से मीनाक्षी ने अपने आँसू गिनना शुरू कर दिया। हर सुबह उठते ही वह अपने दिल से पूछती—*कितने आँसू बचे हैं? कब तक रो सकूँगी?* मगर बच्चों के सामने वह कभी नहीं रोई। वह जानती थी कि उसके आँसू उनकी मासूमियत को डुबो देंगे।
उसी शाम, गाँव के सरपंच ने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी। “मीनाक्षी, तुम्हारा नाम विधवा पेंशन के लिए लगा दिया गया है। महीने में पाँच सौ रुपये मिलेंगे,” उन्होंने कहा। मीनाक्षी ने उनकी ओर देखा—उसकी आँखों में कोई उम्मीद नहीं थी। “पाँच सौ में क्या होगा, सरपंच जी? दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटेगी,” उसने धीमे स्वर में कहा।
सरपंच ने एक कागज़ निकाला। “यहाँ साइन कर दो। और… अगर कभी ज़रूरत पड़े, तो मेरे घर आ जाना।” उनकी आँखों में छिपी मंशा को मीनाक्षी ने पढ़ लिया।
उसने कागज़ लौटा दिया। “नहीं, सरपंच जी। मैं अपने बच्चों को भूखा रख लूँगी, मगर उनकी माँ की इज़्ज़त नहीं बेचूँगी।”
उस रात, जब बच्चे सो गए, तो मीनाक्षी ने अपना पुराना डायरी बॉक्स खोला। उसमें उसके पति की यादों के सिवा कुछ नहीं था—एक पुरानी रुमाल, कुछ फटे हुए चिट्ठे, और एक सिक्का। वह सिक्का उसके पति ने उसे दिया था, शादी के बाद पहले साल।
“यह हमारी किस्मत का सिक्का है,” उसने कहा था। मीनाक्षी ने सिक्के को हथेली पर रखा और आँसूओं की बूँदों से धो दिया।
अगली सुबह, वह गाँव के स्कूल के बाहर खड़ी थी। प्रिंसिपल से मिलकर उसने कहा, “मैं यहाँ बच्चों के लिए मिड-डे मील बनाने का काम कर सकती हूँ। मुझे पैसे नहीं चाहिए, बस मेरे बच्चों को पढ़ने का मौका मिल जाए।”
प्रिंसिपल ने उसकी ओर देखा—उसकी आँखों में संघर्ष और संकल्प का दुर्लभ मिश्रण था। “ठीक है,” उन्होंने कहा, “लेकिन हम तुम्हें थोड़ी मजदूरी भी देंगे।”
धीरे-धीरे, मीनाक्षी के जीवन में बदलाव आने लगा। बच्चे स्कूल जाने लगे, और वह अपने हाथों से बनाए भोजन को देखकर संतुष्टि महसूस करती। एक दिन, माया ने उससे पूछा, “माँ, तुम कभी रोती क्यों नहीं?”
मीनाक्षी ने उसे गले लगा लिया। “क्योंकि माँ के आँसुओं का हिसाब अब बच्चों की मुस्कानों से चुकाया जाता है, बेटा।”
उस दिन, उसने अपने डायरी बॉक्स में लिखा—”माँ के आँसू कभी व्यर्थ नहीं जाते। वे धरती में बीज की तरह गिरते हैं, और फिर उनसे संघर्ष के फूल खिलते हैं।”
और फिर, बहुत सालों बाद, जब माया डॉक्टर बनी और उसका बेटा इंजीनियर, तो उन्होंने अपनी माँ को गाँव की पहली महिला सरपंच बनते देखा। मीनाक्षी के चेहरे पर आँसू थे—मगर इस बार, वे दुःख के नहीं, बल्कि उस जीत के थे जो एक माँ के अथक संघर्ष और उसके बचाए हुए आँसुओं का हिसाब था।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा ( पंचरुखी)
हिमाचल प्रदेश