माँ होना नाटक नहीं – ज्योति आहूजा 

किरन मोदरां के उस छोटे से घर में पली थी जहाँ दीवारें खुरदरी थीं और सपने कभी पूरे नहीं लिखे गए थे। माँ की रसोई में मसाले भी कर्ज़ के होते थे और बापू की आँखें हर शाम जैसे बुझी सी लगती थीं। बीए की पढ़ाई कर रही थी,

लेकिन घरवालों को डर था कि लड़की पढ़ जाएगी तो जवाब देने लगेगी, इसलिए बीस पूरे होने से पहले ही उसकी शादी कर दी गई दीपक से, जो जयपुर में एक ड्राइवर था। किरन चुप रही। शादी हुई तो मन में कोई बड़ी आशा नहीं थी, बस सोचा था कि शायद वहाँ रोटियाँ गरम मिलेंगी और बातें थोड़ी सी मीठी होंगी। कुछ साल तक तो सब ठीक चला। एक छोटा किराया का मकान, थोड़ी सी कमाई, दीपक की हँसी और किरन की थाली। फिर बेटा अमन हुआ, फिर बेटी अदिति।

जब लगने लगा कि अब ज़िंदगी थम रही है, अब चलना सीख गई हूँ, तभी एक एक्सीडेंट ने सब कुछ छीन लिया। दीपक के दोनों पैर चले गए। घर में कमाई का एकमात्र सहारा टूट गया और किरन का मन भी। उस दिन से किरन ने खुद को बाँध लिया, जैसे किसी ने उसे एक भारी रस्सी से ज़िंदगी की चारपाई से बाँध दिया हो। उसने पास के सरकारी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी पकड़ ली।

छोटी सी तनख्वाह, लेकिन किसी तरह काम चलने लगा। अब दिन ऑफिस के, शाम घर की, और रात थकान की। अमन अब स्कूल जाने लगा था, पर पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था। जब आठवीं के बाद फीस भरने की बारी आई, तो पैसे नहीं थे। स्कूल ने नाम काट दिया। किरन कुछ नहीं कर सकी, उसने आँखों से बेटे की नाराज़गी देखी, पर उसका सामना नहीं किया। अमन की चुप्पी माँ के खिलाफ़ दीवार बनती गई।

उधर अदिति धीरे-धीरे बढ़ती गई। पढ़ने में तेज़ थी, ज़िद्दी भी, और अंदर से कहीं किरन जैसी ही। एक दिन किरन ने हिम्मत की और अपने ऑफिस के बड़े बाबू से कहा कि बेटी की फीस भरने में मदद चाहिए। बड़े बाबू ने बस इतना कहा, “मैं भर देता हूँ, धीरे-धीरे ओवरटाइम कर लेना, और अगर नहीं भी कर पाई तो कोई बात नहीं। बेटी पढ़ जाए, यही सबसे बड़ी बात है।” किरन की आँखों में आँसू थे, पर उसने सिर झुका लिया और काम में लग गई। उसने कभी छुट्टी नहीं ली, बुखार में भी ऑफिस गई, घर में काम करके ऑफिस गई, ऑफिस से आकर दीपक की सेवा की, और रात को बच्चों के कपड़े धोकर सोई।

अदिति बारहवीं तक पहुँच गई। अब घर बैठकर UPSC की तैयारी कर रही है। माँ ने पुरानी किताबों को जिल्द चढ़ाकर उसके आगे रख दिया। वही रजिस्टर जिसमें कभी किरन ने अपने सपने लिखे थे, अब अदिति के नोट्स से भरे थे। लेकिन एक दिन जब किरन थकी हुई आई, और रसोई में झुकी कमर से रोटियाँ सेंक रही थी, तब अदिति ने कह दिया — “हर बार रो देती हो माँ, हर चीज़ में नाटक करती हो। थोड़ी सी हिम्मत दिखाया करो।” किरन कुछ नहीं बोली।

न जवाब दिया, न ताना मारा। बस रात को अपनी भूरे रंग की डायरी निकाली और लिखा — नाटक? अब थक जाना भी नाटक हो गया है? मैंने कब किसी से सहारा माँगा? किसने दिया भी? मायका कभी मेरे आँसू समझ नहीं पाया, ससुराल ने मुझे सिर्फ़ नौकरानी समझा, और पति… वो तो अब खुद मुझ पर निर्भर है।

अब अगर मैं थक जाऊँ, तो वो भी दिखावा कहलाता है? मैंने अमन की फीस नहीं भरी, क्योंकि थी नहीं, अदिति को पढ़ाया क्योंकि मदद मिल गई, क्या ये मेरा जुर्म था? क्या अब मेरे शरीर की कमज़ोरी भी बहाना है? एक दिन ये समझेगी, जब खुद माँ बनेगी, तब समझेगी कि माँ होना नाटक नहीं, एक ऐसी भूमिका है जिसमें कोई ब्रेक नहीं मिलता।

अमन अब बड़ा हो चुका है। एक दुकान पर सेल्स का छोटा सा काम करता है। ज्यादा नहीं कमाता, लेकिन माँ की थाली में रोटी लेकर बैठ जाता है, तो किरन अब भी मुस्कुरा देती है। कभी उसने ताना दे दिया था — “हमें पैदा ही क्यों किया?” उस दिन भी किरन कुछ नहीं बोली थी, बस एक लंबी साँस ली थी। अब वो सवाल किरन के अंदर रह-रहकर गूंजता है, लेकिन जवाब वो आज भी किसी को नहीं देती। उसकी डायरी में जरूर लिखा है — मैंने सब कुछ छोड़ दिया था, अपने लिए नहीं, बच्चों के लिए, और आज वो ही पूछते हैं कि हमें क्यों लाया दुनिया में?

किरन अब 45 की हो गई है। आँखों के नीचे गड्ढे हैं, हाथों में नसें उभर आई हैं, लेकिन आज भी सुबह उठती है, सबके लिए चाय बनाती है, अदिति को पढ़ने बैठने को कहती है, अमन को दुकान जाने से पहले रोटी देती है, फिर अपने लिए एक कप चाय बनाकर पुराने संदूक के पास बैठती है। वही संदूक जिसमें उसकी डायरी रखी है, वही डायरी जो अब उसके हिस्से की एकमात्र आवाज़ है।

एक दिन जब उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ी, उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। दोनों बच्चे घर पर अकेले रह गए। अदिति ने वो संदूक खोला, अमन पास आ गया। दोनों ने एक साथ उस डायरी के पन्ने पलटने शुरू किए। हर पन्ना माँ की चुप्पी का सबूत था। माँ ने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन सब कुछ लिखा था — कैसे दिन-रात एक किए, कैसे ओवरटाइम से अदिति की फीस भरी, कैसे अमन की चुप्पी ने उसे अंदर से तोड़ा, कैसे उसने हर बार खुद को माफ किया, बच्चों को भी।

उसे आज भी याद है जब वो सरकारी दफ़तर में काम करती थी तब कितनी ही बार आदमियों की पैनी नजरें उसे जिस तरह से देखती थी वो कभी नहीं भूल सकती। कुछ तो ये भी कहते थे कि बिल्कुल मर्दों जैसा काम करती है। औरत हो औरत बन कर रहो।

पर उन्हें कौन कहे की मैं माँ हूँ एक योद्धा।

जिसे घर भी चलाना है।

 और डायरी के अंतिम पन्ने पर लिखा था — अब मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस चैन चाहिए… थोड़ा सा।

उस दिन पहली बार अदिति रोई, अमन भी कुछ नहीं बोल सका। माँ की थकावट, माँ का चुप रहना, माँ का अकेलापन… सब उन्हें अब महसूस हुआ।

अब किरन अस्पताल से घर आ चुकी है। फिर वही चाय, वही थाली, वही पुराने कुर्ते। लेकिन अब अदिति उसके पास बैठती है, चुपचाप किताबें उसके घुटनों पर रख देती है, अमन ऑफिस से आकर माँ के पैरों में तेल लगा देता है। अब किरन बोलती नहीं है, लेकिन उसके आस-पास सन्नाटा नहीं, समझ है।

अब उसके बच्चे पढ़ चुके हैं — वो सब जो कभी कहा नहीं गया।

“माँ की सबसे बड़ी ताक़त उसकी खामोशी होती है, और उसकी सबसे बड़ी जीत वो दिन जब बच्चे उसे पढ़ लेते हैं — बिना एक शब्द कहे।”

ये कहानी सच्ची घटना पर आधारित है।

उम्मीद है हर माँ किसी  न किसी रूप में इसमें  ख़ुद को देखेगी।

ज्योति आहूजा 

#माँ के आंसू

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