लीडर लेडी – संध्या त्रिपाठी

रजनी हमेशा अपनी कॉलोनी में सबसे सक्रिय महिलाओं में गिनी जाती थी। किसी भी कार्यक्रम, किसी भी आयोजन, किसी भी सामाजिक काम—सबसे पहले उसका नाम आता। उसकी तेज़ आवाज़, उसका चटक-दमक वाला अंदाज और दूसरों से एक कदम आगे रहने की आदत ने उसे मोहल्ले की “लीडर लेडी” बना रखा था।

उसी मोहल्ले के पीछे वाली सड़क पर उमा रहती थी। उम्र और स्वभाव में रजनी से बिलकुल अलग—सीधी, शांत, विनम्र, लेकिन गहरी समझ रखने वाली।
दोनों की जान-पहचान थी, पर गहरी दोस्ती कभी नहीं बनी।
जहाँ रजनी की आवाज़ हवा में तैरती, उमा चुपचाप अपना काम करती रहती।
पर पिछले कुछ महीनों से दोनों के रिश्ते में एक अनकही ठंडक बढ़ गई थी।

दरअसल, एक जमीन के हिस्से और पानी की मोटर की टाइमिंग को लेकर दोनों परिवारों के बीच हल्की-फुल्की तकरार हुई थी।
गली भर की औरतों ने नमक मिर्च लगाकर बात को बढ़ा दिया और दोनों घर चुपचाप एक-दूसरे से कट गए।

रजनी बाहर से मोटी आवाज़ में हँसती रहती, पर अंदर से पता नहीं क्यों, उसे उमा के प्रति एक हल्की चुभन महसूस होती थी।
उसे लगता था—“ये उमा जितनी मासूम दिखती है, उतनी है नहीं।
जमीन की बात में भी इसका ही हाथ था… वरना मेरे घर के खिलाफ कैसे बोल दिया उसके पति ने?”

उधर उमा भी सोचती रहती—“रजनी में हमेशा एक रौब रहता है।
छोटी-छोटी बातों में भी खुद को बड़ी समझती है।
बस, अच्छा हुआ अब बोलचाल कम है।”

गहराई में देखा जाए तो दोनों को एक-दूसरे की गलतफहमी थी, पर रिश्ते पर धूल दोनों ने ही जमा दी थी।


एक दिन दोपहर के लगभग तीन बजे, रजनी अपने बड़े हॉल में खड़ी थी।
वह अपने मोबाइल पर किसी व्हाट्सऐप ग्रुप के संदेश पढ़ रही थी।

“आज शाम 6 बजे हमारी ‘नो-स्पाइंडल सोसाइटी’ की महिलाओं की ‘फ्लेवर फेस्ट प्रतियोगिता’ है।”

उसकी आंखें चमक उठीं।
हर साल की तरह इस साल भी वह पहला स्थान जीतना चाहती थी।
इधर-उधर हटकर कुछ बनाने की सोच रही थी, पर आज थीम थी—“एक ही अनाज, दस स्वाद”

रजनी ने तुरंत अपनी नौकरानी वासंती को बुलाया,
“अरे सुन! आज तू ज़रा जल्दी आना। मुझे प्रतियोगिता के लिए ‘मूंग दाल का मिश्रित चखना’ बनाना है। पूरा चार-पाँच तरह का टेस्ट एक प्लेट में चाहिए। तू बस सब सामग्री ला देना—नमक, मसाला, प्याज, हरी मिर्च, और वो चने वाला कड़पन भी ले आना।”

वासंती बोली,
“मैडम, मैं पाँच बजे तक पहुँच जाऊँगी। आप चिंता मत करना।”

रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“बस, टाइम पर आ जाना। इस बार मुझे अवॉर्ड जीतना है, समझी?”

वासंती सिर हिलाकर हाँ में हाँ मिलाते हुए चली गई।


शाम के करीब पाँच बजने में पाँच मिनट ही शेष थे—
पर वासंती का कोई अता-पता नहीं।

रजनी पहले तो बार-बार फोन मिलाती रही, फिर झल्लाकर बोली,
“अरे ये नौकरानियाँ भी ना! जिस दिन ज़रा भी खास काम हो, उसी दिन ग़ायब हो जाती हैं!”

इसी बीच मोबाइल पर कॉल आया—वासंती का नंबर।
रजनी ने गुस्से में फोन उठाया,
“हाँ! कहाँ मर गई थी? एक काम दिया था वो भी…”

उधर से एक पुरुष की आवाज़ आई,
“मैडम… वासंती का एक्सीडेंट हो गया है। वो सब्ज़ी लाने जा रही थी, तभी बाइक वाले ने टक्कर मार दी। हम उसे अस्पताल ले जा रहे हैं।”

रजनी के मुँह से आवाज़ ही नहीं निकली।
फोन हाथ में पकड़े-पकड़े वह जैसे पथरा गई।
घर में प्रतियोगिता है, छह बजे महिलाएँ आ जाएँगी, कुछ तैयार नहीं… और नौकरानी हॉस्पिटल में!


रजनी का सर भन्नाने लगा।
सोचा—“फूड ऑर्डर कर दूँ? पर आज की थीम में चीज़ें घर की बनी होनी चाहिए…”
वह इधर-उधर हड़बड़ा कर घूमने लगी।

उसी वक्त खिड़की के बाहर से आवाज़ आई—
“रजनी दीदी…”

दरवाज़ा खोलकर देखा—उमा खड़ी थी।
उसकी आँखों में एक सधी हुई चिंता और हाथों में एक बड़ी थाली थी।

थाली खोलते ही रजनी हैरान रह गई।
चार तरह के मूंग दाल के नाश्ते—नमकीन, खट्टा, मसाला और हरा धनिया वाला।
उमा ने धीरे से कहा—

“अभी-अभी मैंने तुम्हें फोन पर बात करते सुना कि वासंती का एक्सीडेंट हो गया है।
तुम परेशान हो रही थीं… तो सोचा, मैं मदद कर दूँ।
घर-गली के झगड़े अलग होते हैं, लेकिन आज तुम सबके सामने मेहनत से तैयार हो—तो तुम्हारी इज्जत भी मेरी ही इज्जत है।
लो, ये मैंने जल्दी-जल्दी बना लिए हैं।
अगर चाहो तो ये ले जाओ। मैं चाहती हूँ तुम जीतकर आओ।”

रजनी जैसे स्तब्ध रह गई।
उसने तो उमा को हमेशा अपने से कमतर या विरोधी माना था।
पर आज उसके सामने खड़ी उमा पूरे मन से उसकी मदद कर रही थी।

उसने धीरे से पूछा,
“तुमने ये सब मेरे लिए क्यों किया…? हम तो बोलचाल भी… कम करते थे…”

उमा मुस्कुराई—
“रजनी दीदी, झगड़ा तब तक रहता है जब तक दोनों तरफ जुनून होता है।
पर मान-सम्मान… वो एक का नहीं, पूरे घर का होता है।
आप बाहर जाएँगी, तो लोग आपसे पहले आपके घर का नाम देखेंगे।
और हम एक ही मोहल्ले में रहते हैं।
आज मदद करना जरूरी था।”

रजनी की आँखें भर आईं।
वह एकदम धीमे स्वर में बोली—
“उमा… मुझे कभी लगा नहीं था कि तुम…”

उमा ने हाथ रोककर कहा,
“अरे, औरतें साथ रहें तो कितना अच्छा जीवन बन जाता है दीदी।
बस गलतफहमियाँ दिल में जगह न बना लें।”

इतना कहकर उमा थाली मेज पर रखकर चली गई।

रजनी ड्रेस बदलने भागी।
थाली हाथ में ले औरतों के बीच पहुँची।
सबने एक-एक चखना चखा और वाह-वाह कर उठीं—

“अरे रजनी, क्या स्वाद है! मसाला कितना सही है!”
“आज तो फर्स्ट प्राइज पक्का तुम्हारा है!”
“लगता है दिन भर मेहनत की तुमने!”
“बहुत ही बढ़िया! बिल्कुल मार्केट जैसा स्वाद!”

रजनी खड़ी मुस्कुराती रहती, पर भीतर कहीं एक टीस भी होती—
“ये सब मैंने नहीं, उमा ने बनाया है…”

दो घंटे बाद प्रतियोगिता का परिणाम आया—
पहला स्थान—रजनी अग्रवाल!

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पुरस्कार लेकर जब वह घर लौटी,
उमा बरामदे में तुलसी को पानी दे रही थी।

रजनी उसके पास से होते हुए ठहर गई।
उसने धीरे से कहा—
“उमा… ज़रा एक मिनट…”

उमा मुड़ी।
रजनी ने पुरस्कार वाली सुंदर टोकरी उसके हाथों में रख दी।

“ये तुम्हारा है उमा।
जो ईमानदारी से काम करे, जो दिल से घर की इज्जत बचाए…
सच्चे मायने में विजेता वही होता है।
आज अगर मैं जीती हूँ तो वो सिर्फ़ तुम्हारी वजह से।
ये इनाम भी तुम्हारा है… और ये सम्मान भी।”

उमा चौंकी, बोली—
“अरे दीदी, ये क्या कर रही हैं? आपने कमाया है ये…”

रजनी ने उसकी बात काटी—
“नहीं उमा। आज मैंने सिर्फ़ एक बात सीखी है—
रिश्ते हमेशा बराबरी की जमीन पर टिकते हैं।
और तुमने आज मुझे अपने दिल की उस जमीन पर खड़ा कर दिया है…
जहाँ कोई दीवार नहीं होती।”

उमा की आँखें भी भीग आईं।
दोनों एक-दूसरे को चुपचाप देखते रहे—
उनके बीच की सारी गलतफहमियाँ, सारी दूरी, सारी ठंडक
यहीं इस बरामदे में पिघलती चली गई।

रजनी ने आगे बढ़कर उमा को गले लगा लिया।

उस एक आलिंगन के साथ
उनके दोनों घरों की हवा बदल गई—
दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच से
दो सहेलियों की शुरुआत हो चुकी थी।

मूल लेखिका 

श्रीमती संध्या त्रिपाठी

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