क्या यही संस्कार है –

रात के सन्नाटे में रिया खिड़की के पास बैठी थी। बाहर बारिश की बूंदें काँच पर दस्तक दे रही थीं, लेकिन उसके भीतर जो तूफ़ान चल रहा था, वह किसी को सुनाई नहीं दे रहा था। शादी को तीन महीने ही हुए थे, पर इन तीन महीनों में उसने जितनी बातें सीखी थीं, उतनी शायद किसी किताब में भी नहीं थीं — वो भी ऐसी बातें जो इंसान के भरोसे को तोड़ देती हैं।

उसे याद आया, जब रिश्ता तय हुआ था, तो लड़के के पिता बड़े गर्व से बोले थे — “हमें कुछ नहीं चाहिए। बस एक संस्कारी लड़की चाहिए जो घर को संभाल सके।”

लड़के के परिवार को देखकर रिया के पिता की आँखें चमक उठी थीं। उन्होंने कहा था, “देखो, ऐसे लोग ही समाज को बदलेंगे। जो दहेज जैसी बुराई के खिलाफ खड़े हैं।”

रिया मुस्कुराई थी — उसे लगा, शायद उसने सच में एक ऐसा घर पाया है जहाँ उसे सम्मान मिलेगा, जहाँ “संस्कार” शब्द का अर्थ सही मायनों में समझा जाएगा।

लेकिन शादी के तीसरे ही दिन जब सास ने पहली बार कहा, “अरे बहन, पता नहीं इसके घरवालों को क्या गरीबी लगी थी। बेटी को कोरे हाथ भेज दिया। एक जोड़ी साड़ी और दो बर्तन! अब क्या संस्कार का अचार डालूँ मैं?” — तो रिया के भीतर कुछ टूट गया था।

वो चुप रही। उसने सोचा, नई जगह है, समय लगेगा सबको समझने में। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, बातों के तीर और गहरे लगने लगे।

पति रवि ऑफिस से आते तो कहते, “अरे ओ महारानी, चाय बना रखी है या फिर तू अभी भी टीवी देख रही है? तेरे बाप ने मुझे कोई हवाई जहाज दिया है क्या, जो मैं हर जगह वक्त पे पहुँचूँ?”

रिया चुपचाप रसोई की तरफ भाग जाती। जब कभी वह बात करने की कोशिश करती, रवि मोबाइल में व्यस्त रहता या दोस्तों के साथ बाहर चला जाता।

ससुर जी सुबह अखबार खोलकर बैठे रहते और जैसे ही रिया चाय लेकर आती, कह उठते — “ये क्या फीकी चाय बनाई है? तेरा मायका क्या नमक भी नहीं देता? और पराठे ऐसे कच्चे जैसे तूने आटा पहली बार गूँथा हो।”

सास पीछे से कहतीं — “संस्कार चाहिए थे न हमें, लो अब रोज संस्कार ही पी लो!”

रिया हर दिन कोशिश करती कि सब कुछ सही कर ले — चाय थोड़ी मीठी, खाना थोड़ा मसालेदार, मुस्कान थोड़ी और चौड़ी — पर किसी के चेहरे पर संतोष का भाव नहीं आता था।

देवर और ननद भी मजाक उड़ाने लगे थे — “भाभी, आप तो बहुत आधुनिक हैं न, अपने मायके से संस्कार लेकर आई हैं न? तो जरा सिखाइए हमें भी।”

हर बात ताने में बदल जाती।

रिया का मन धीरे-धीरे बुझने लगा। उसका आत्मविश्वास, उसकी मुस्कान, सब कहीं खो गया। एक दिन उसने फोन उठाकर माँ से बात करनी चाही, लेकिन सास ने कह दिया — “अभी फोन नहीं कर सकती। घर का काम पहले संभालो।”

माँ की आवाज़ सुनने की इच्छा भी अब अपराध बन गई थी।

रात को वो छत पर बैठी थी, आसमान में बादल घुमड़ रहे थे। सोच रही थी — *क्या संस्कार का मतलब बस झुकना, सहना और चुप रहना ही है?*

वो हर बार खुद से यही पूछती — “मैंने क्या गलत किया?”

पर जवाब कोई नहीं देता था।

कुछ हफ्तों बाद जब वह बीमार पड़ी, तो किसी ने ठीक से देखा तक नहीं। सास बोलीं, “बहुत नाज़ुक बनती है, ज़रा-सा बुखार हुआ नहीं कि बिस्तर पकड़ लिया। ये संस्कार नहीं, नखरे हैं।”

रवि ने भी बस इतना कहा, “इतना ड्रामा मत करो रिया। मेरी माँ सारा दिन काम करती हैं, उन्हें तो कभी कुछ नहीं होता।”

रिया की हालत बिगड़ती गई, पर किसी ने दवा तक नहीं दी। आखिर एक दिन उसने तय किया — अब या तो अपनी आवाज़ उठाएगी, या हमेशा के लिए खो जाएगी।

अगली सुबह जब रवि ऑफिस जा रहा था, रिया ने कहा, “सुनो रवि, ज़रा बैठो।”

रवि झल्लाया, “अब क्या है? ऑफिस लेट हो रहा है।”

रिया ने धीमे मगर दृढ़ स्वर में कहा, “तुम्हें याद है, शादी के वक्त तुम्हारे पिता ने कहा था कि उन्हें सिर्फ संस्कार चाहिए? तो अब मैं वो संस्कार निभा रही हूँ — पर इस घर में इंसानियत कहाँ है? अगर संस्कार का मतलब है कि मैं खुद को मिटा दूँ, तो माफ करना, मैं ऐसा संस्कार नहीं चाहती।”

सास और ससुर हैरान रह गए। रिया की आवाज़ में जो ठहराव था, वो किसी बगावत की नहीं, आत्म-सम्मान की थी।

“मैंने सोचा था इस घर में बेटी बनकर आऊँगी, पर यहाँ तो नौकरानी भी इज़्ज़त से जी ले। मैंने कोई हवाई जहाज नहीं माँगा, बस सम्मान माँगा था। पर यहाँ हर कोई मेरे संस्कार की परीक्षा ले रहा है, जैसे मैं कोई वस्तु हूँ।”

रवि गुस्से से बोला, “तो अब क्या करना चाहती हो?”

रिया बोली, “सिर्फ इतना कि अब मैं अपने मायके जाऊँगी। अपने लिए, अपनी साँसों के लिए। अगर कभी तुम्हें सच में समझ आया कि संस्कार सिर्फ चुप रहना नहीं, बल्कि सही के लिए खड़ा होना भी होता है — तब आकर मुझे बुला लेना।”

वो अपनी कुछ चीज़ें उठाकर चली गई।

किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की। शायद सबको लगा, वह दो दिन में वापस आ जाएगी।

लेकिन रिया वापस नहीं लौटी। उसने अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरू की। शहर के एक स्कूल में पढ़ाने लगी, किराए का छोटा कमरा लिया, और वहाँ उन लड़कियों को पढ़ाने लगी जिनकी ज़िंदगी में वही डर, वही चुप्पी थी जो कभी उसकी ज़िंदगी का हिस्सा थी।

कभी-कभी रात को जब वो आईने में खुद को देखती, तो मुस्कुरा देती — *“अब संस्कार का अर्थ समझ में आया — खुद का सम्मान करना ही सबसे बड़ा संस्कार है।”*

समय बीत गया। एक दिन रवि अपने पिता के साथ उसी स्कूल के बाहर से गुजर रहा था। गेट पर लिखा था —

**“संस्कार गृह — जहाँ लड़कियों को खुद की आवाज़ पहचानना सिखाया जाता है।”**

अंदर रिया कुछ बच्चियों को समझा रही थी —

“बेटियों, याद रखो, संस्कार सिर झुकाने में नहीं, सही वक्त पर सिर उठाने में है।”

रवि के कदम वहीं ठिठक गए। उसे पहली बार एहसास हुआ कि उसने क्या खोया है।

समाज अब भी वही था — बाहर से दिखावटी, अंदर से खोखला। लोग अब भी कहते थे, “हमें तो कुछ नहीं चाहिए, बस संस्कारी बहू चाहिए।”

लेकिन रिया जैसी औरतें अब उन झूठे शब्दों के पीछे की सच्चाई पहचान चुकी थीं।

वह जानती थी — संस्कार का अर्थ है *स्वाभिमान*, और स्वाभिमान की कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती।

उस दिन बारिश फिर हो रही थी, पर अब रिया के भीतर सन्नाटा नहीं, सुकून था।

वो मुस्कुराकर बोली, “अब मेरे संस्कार जीवित हैं… और मैं भी।”

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