क्या मैंने गलत किया? – पुष्पा जोशी   

उम्र के इस पड़ाव पर जब  सब कुछ सामान्य चल रहा है, एक प्रश्न को लेकर मेरे मानस में हमेशा मंथन चलता रहता है कि मैंने रिश्तों की मर्यादा निभाई या नहीं? परिवार से अलग होकर क्या मैंने गलत किया?

कहने के लिए मैं परिवार से अलग हो गई, मगर मेरे जीवन में उनका महत्व कम कभी नहीं हुआ। उनके सुख-दु:ख में मैं हमेशा जाती हूँ, कभी इस बात का इन्तजार नहीं किया कि वे मुझे बुलाएंगे। आखिर वो है तो मेरा ही परिवार। काश जो परिस्थितियाँ निर्मित हुई, वे न होती तो शायद मैं अपने परिवार के साथ होती।

     आज जब से मेरी बेटी रिया ने मुझसे पूछा कि मॉं रिश्तों की मर्यादा क्या होती है? मन उलझ गया है अपने ही सवालों और जवाबों में। अतीत की गलियों में विचरण करने लगा है। मुझे अपना बचपन याद आया, वह छोटा सा गाँव याद आया जहाँ , हम तेरह भाई बहिन एक साथ खेलते-खाते, पढ़ते -लिखते बड़े हुए।

संयुक्त परिवार था, दादा- दादी, ताऊ -ताई, काका-काकी, और एक भुआ जो उम्र मे हमसे कुछ ही बड़ी थी, सब साथ में रहते थे। बच्चों का खाना, कपडे़  सब समान कोई भेद नहीं था। दादा -दादी का सब पर पूरा नियंत्रण था।

घर में बच्चों को यही शिक्षा दी गई थी कि बड़ो का सम्मान करो, छोटो के साथ प्रेम का व्यवहार करो। एक दूसरे की मदद करो, बोली में हमेशा नियंत्रण रखो अच्छा बोलो, किसी का मन न दुखाओ। ऐसे  सौहार्द पूर्ण वातावरण में बचपन बीता, विवाह हुआ तो घर पर सभी ने यही शिक्षा दी कि बेटा रिश्तो को स्नेह और विश्वास से सींचना।

रिश्तों की मर्यादा का मान रखना। लिखते -लिखते सुभद्रा जी की ऑंखों‌ में नमी तैर गई। धुंधला सा दिखने लगा सोचा कुछ दैर सो जाती हूँ। वे बिस्तर पर लेट गई, लिखना बंद कर दिया था, मगर, मन चुप कहाँ रहता है ,उसमें तो भावनाऐं उठती रहती है। विचारों का प्रवाह चलता रहता है।

मन ससुराल की गलियों में घूम रहा था। सास- ससुर, जैठ-जैठानी, ननन्द, दैवर  भरा पूरा परिवार था। वह बहुत खुश थी कि इतना बड़ा परिवार है, सबके साथ रहने में आनन्द आएगा। परिवार से अच्छे संस्कार लेकर आई थी, सास-ससुर की सेवा, जैठ-जैठानी का सम्मान।

दैवर, ननन्द के साथ भाई बहिन की तरह व्यवहार करती। कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं, छल- कपट नहीं निर्मल मन से पूरे परिवार को अपनाया था उसने। पति सौरम की अच्छी नौकरी थी, वो भी परिवार के लिए खर्च में कोई कमी नहीं रखता, सुभद्रा ने भी कभी मन छोटा नहीं किया। जैठ-जैठानी का रवैया कुछ अलग था, उनकी दुनियाँ  वो और उनके दोनों बच्चों तक सीमित थी।

बोली मे भी संयम नहीं था कुछ भी कह देते। मगर सुभद्रा ने कभी किसी बात को मन पर नहीं लिया, ईमानदारी से घर के सभी काम व्यवस्थित करती और किसी विवाद में नहीं उलझती थी। सास ससुर किसी के मामले में नहीं बोलते थे, तटस्थ रहते और एक मूक दर्शक की भांति जो हो रहा है होने देते। समय के साथ सुभद्रा एक बेटे और बेटी की माँ बन गई।

उसका कार्य भी बढ़ गया था और खर्च भी। उसने खर्च की चिंता कभी की नहीं उसका विचार यही था कि जरूरत पढ़ने पर पूरा परिवार साथ ही है।मगर सब उसकी तरह निर्मल हृदय नहीं होते। उसे इसका कटु अनुभव उस समय हुआ जब उसके पति का हृदयाघात से असमय निधन हो गया।

अब उसे घर ऐसा लगने लगा जैसे उसका है ही नहीं ,जैठ जैठानी का व्यवहार एकदम रूखा हो गया। दैवर  ननन्द अजनबी की तरह व्यवहार करने लगे जैसे उनके भैया ने उनके लिए कुछ किया ही नहीं हो, जिस भाई की कमाई पर वे ऐशोआराम से रहते अपने शोक पूरे करते उसकी पत्नी और बच्चे उनके लिए महत्वहीन हो गए थे।

शुभम और रिया अपने ही घर में सहमे से रहने लगे थे। सुभद्रा चाहती थी कि उसके सास ससुर उसके सिर पर हाथ रखे और एक बार कहदे कि बेटा हम तेरे साथ है। मगर वे तो पहले से ही घर के मामले में उदासीन से रहते थे और सौरम के जाने के बाद तो वे चिड़चिड़े हो  गए थे। सुभद्रा ने बहुत कोशिश की घर के माहौल में तालमेल बिठाने की।

मगर स्थिति यह हो गई के बच्चों की परवरिश के लिए पाई-पाई के लिए तरसना पढ़ रहा था। शुभम आठवीं में पढ़ रहा था और रिया पॉंचवी कक्षा में। जैठ- जैठानी हमेशा उन्हें कामों में उलझाए रखते ,इसके विपरित उनके बच्चे आराम से रहते पढ़ाई करते।

परीक्षा के दिन थे और घर के कामों के कारण बच्चों की पढ़ाई नहीं हो रही थी, बच्चे उनके ताऊजी और ताई जी को मना नहीं कर पाते थे, वे भी अपनी माँ की तरह रिश्तों की मर्यादा को समझते थे। सुभद्रा को चिन्ता हो रही थी कि अगर बच्चे पढ़ाई नहीं करेंगे तो उनका भविष्य बिगड़ जाएगा।

एक दिन शुभम पढ़ाई कर रहा था, दूसरे दिन उसका गणित का पेपर था। उसके ताऊजी ने उसे कोई काम बताया तो सुभद्रा के मुख से अनायास निकल गया कि ‘भाई साहब अभी शुभम पढ़ रहा है, यह काम कल कर देगा।’इस बात पर घर में बवाल मच गया।

ज़ैसे तैसे बच्चों की परीक्षा समाप्त हुई और उसके बाद सुभद्रा ने निश्चय कर लिया कि वह अब साथ में नहीं रहेगी। उसने अपनी सास से बात की तो घर के माहौल में तनातनी आ  गई थी। सारे दोषारोपण सुभद्रा पर लगाए जा रहै थे, कि उसने रिश्तों की मर्यादा का मान नहीं रखा। इस समय सुभद्रा को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता थी।

जैठ जी ने साफ कह दिया था, घर का बटवारा नहीं होगा। सास -ससुर मौन थे। जैठ -जैठानी के रवैये में जरा भी परिवर्तन नहीं था। ऐसे में बच्चों को परवरिश करना और ऐसे माहौल में रहना सुबद्रा जी के लिए मुश्किल हो गया था। हिम्मत करके वे अपने बच्चों को लेकर घर से निकल गई। कुछ महीने अपने मायके में रही और फिर एक विद्यालय में नौकरी कर ली।

विद्यालय के पास ही एक छोटा सा कमरा किराए से लिया और अपने बच्चों के साथ वहाँ रहने लगी, नौकरी के साथ वह बच्चों की ट्यूशन भी लेती। आर्थिक तंगी तो थी मगर मन शांत रहता था। बच्चे भी मन लगाकर पढ़ाई करते। शुभम की एलआइसी में नौकरी लग गई थी और रिया बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ाई कर रही थी।

सोचते- सोचते उनको नींद आ गई। शुभम ऑफिस से आ गया था ,उसने माँ को आवाज लगाई तो उसकी नींद खुली। रिया चाय बनाकर ले आई थी। तीनों बैठे हुए बातचीत कर रहै थे। शुभम ऑफिस के किस्से सुना रहा था। रिया भी अपने कॉलेज की बातें बता रही थी।सब प्रसन्न थे और सुबद्रा जी सोच रही थी, उस घर के साथ मेरे बच्चों के प्रति भी तो मेरे कर्तव्य थे जो मैं निभा रही हूँ,

क्या बच्चों के प्रति किए कर्तव्य रिश्तों की मर्यादा की सीमा में नहीं आते? अगर मैं उस घर में रहती तो क्या मेरे बच्चे इस तरह जी पाते? मेरे साथ जो घर के लोगों ने किया क्या रिश्तों की मर्यादा के अन्तर्गत था?  उन्होंने दिमाग को एक झटका दिया,और बच्चों की बातों में शामिल हो गई।

प्रेषक

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

Leave a Comment

error: Content is protected !!