कुछ तो लोग कहेंगे – डाॅ संजु झा

अस्सी वर्ष तक डॉक्टर उमा मरीजों की सेवा तन-मन से करती रही।सत्तर साल तक तो वह तन-मन से स्वस्थ

 थी, परन्तु उसके बाद से ही उम्र ने उसपर  हावी होना शुरू कर दिया। लोगों ने भी कहना शुरू कर दिया कि इस उम्र में अब डॉक्टर उमा किसके लिए काम कर रही है? परन्तु उसने कभी लोगों की बातों की परवाह नहीं की,

हमेशा अपने दिल की सुनती रही।आज सुबह से ही उसकी तबीयत खराब थी।उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी।आज उसके दिल ने कहा-“उमा!अब डाॅक्टरी बहुत हो गई,कुछ दिन खुद के लिए भी जीकर देखो!”

आज दिल की बात उसे बिल्कुल सही लगी।उसने सोचा -“अब मेरी उम्र भी काफी हो गई है,जब मरीज देखते समय हाथ-पैर हिलने लगें,तो काम से अवकाश लेना ही बेहतर है!”

डॉक्टर उमा ने अपने नर्सिंग अस्पताल के  सीनियर डाॅक्टर नवीन को निस्वार्थ  भाव से जिम्मेदारी सौंप दी।उसे  डाॅ नवीन की सेवा-भावना और काबिलियत पर पूर्ण भरोसा था।उसके बाद डाक्टर उमा ने अपनी सहायिका से कहा -“रीता!आज से अब मैं केवल आराम करुॅंगी,काम नहीं करुॅंगी, तुम्हें तो कोई दिक्कत नहीं है?”

रीता -” दीदी! मुझे क्या दिक्कत है? मैं तो आपके जाने के बाद दिन भर बेकार ही पड़ी रहती थी।अस्सी साल तक आपने काम किया,वह क्या कम है?”

डॉक्टर उमा -“रीता!एक तू ही तो मेरा साथ निभाती आई है,बाकी तो अपने भी एक-एककर  साथ छोड़कर चले गए!”

रीता -“दीदी! चिन्ता मत करो, जानेवालों को पकड़कर रखा नहीं जाता है!”

डॉक्टर उमा -“तू सच कहती है,लगता है कि मेरा बुखार उतर रहा है,कुछ हल्का-फुल्का खाने को दे दो, फिर दवा खाकर सो जाऊॅंगी।”

सहायिका रीता रसोई में चली गई,तब तक डॉक्टर उमा नर्सिंग होम से सम्बन्धित कुछ कागजातों पर दस्तखत करने लगी।

कुछ देर बाद खाना देते हुए रीता  कहा -“दीदी! कुछ खा लो,बाकी काम बाद ‌में कर लेना।”

डॉक्टर उमा थोड़ा खाकर दवा लेकर बिस्तर पर लेट गई।आज  उसके मन में बेचैनी और  ऑंखों में  एक तरह के खालीपन का एहसास था,जो उसे अतीत में झाॅंकने को मजबूर कर रहा था। साधारण परिवार में जन्मी उमा  बचपन से ही पढ़ने में कुशाग्र थी।

दसवीं पास करते ही घर में उसकी शादी की चर्चा शुरू हो गई, क्योंकि उस समय कोई लड़कियों को आगे पढ़ाने की बात नहीं सोचता था।उमा ने शहर जाकर आगे पढ़ने के लिए घर में विद्रोह कर दिया।उसके पिता ने उसे समझाते हुए कहा -“उमा!समझने की कोशिश करो।एक अकेली लड़की को शहर पढ़ने भेज दूॅंगा,तो लोग क्या कहेंगे?”

उमा ने पिता के समक्ष डटकर कहा -“पिताजी! लोगों का तो काम ही है कहना। कुछ-न-कुछ तो लोग कहेंगे ही, परन्तु मुझे उनकी परवाह नहीं है।बस !मुझे आगे पढ़ना है!”

उमा की जिद्द के आगे परिवार की एक न चली।उमा आगे की पढ़ाई के लिए शहर चली गई। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण बारहवीं के बाद उसका चयन मेडिकल में हो गया।

मेडिकल पढ़ाई के द्वितीय वर्ष में ही परिवार उस पर शादी के लिए दबाव बनाने लगा।उसकी माॅं ने उसे समझाते हुए कहा -“बेटी! तुम आगे की पढ़ाई करती रहना। तुम्हारी उम्र की सभी लड़कियों की गाॅंव में शादी हो चुकी है।हम तुम्हारी शादी के लिए लड़का ढ़ूॅंढ़ रहें हैं!”

उमा -“माॅं! मैं खुद अपनी पसन्द के लड़के से शादी करूॅंगी,आपलोगों  को मेरी शादी के लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं है!”

माॅं-“उमा!एक तो लोगों के खिलाफ तुझे शहर पढ़ने भेजा,अब तुम शादी के लिए खुद लड़का ढ़ूॅंढ़ोगी तो लोग क्या कहेंगे?”

उमा -“माॅं! लोगों की चिन्ता मत करो,लोग तो कुछ-न-कुछ कहेंगे ही।”

उमा के माता-पिता ने बेटी की बात सुनकर माता पीट लिया।

पढ़ाई के चतुर्थ वर्ष में उमा ने अपने सीनियर अन्तर्जातीय डॉ अमन  से शादी कर ली।उसके अन्तर्जातीय विवाह की बात पूरे गाॅंव में आग की तरह फ़ैल गई।उस समय अन्तर्जातीय विवाह बहुत बड़ी बात मानी जाती थी।

इस विवाह के कारण उसके परिवार की इलाके भर में बदनामी हो गई।उमा को इन सब बातों की कोई परवाह नहीं  थी।उसने गाॅंव जाना ही बंद कर दिया। प्राईवेट ट्यूशन पढ़ाकर खुद का खर्च निकाल लेती।

शादी के कुछ ही दिनों बाद उमा को गर्भ ठहर गया। परेशान होते हुए उसने पति से कहा -“अमन!अभी हम दोनों पढ़ाई ही कर रहें हैं।काफी पढ़ाई बाकी है।इस स्थिति में अभी हम बच्चे का भार वहन नहीं कर सकते हैं। मैं एबार्शन करवा लेती हूॅं?”

अमन -“उमा!मेरी माॅं इसके लिए हर्गिज तैयार नहीं होंगी!”

उमा -“अमन!बस तुम हाॅंं कहो।माॅं को पता भी नहीं चलेगा!”

अब अमन के पास स्वीकृति देने के सिवा कोई रास्ता नहीं था।

उमा एबार्शन को जितना आसान समझ रही थी,वो उसके लिए उतना ही कठिन साबित हुआ। एबार्शन के एक महीने तक उसकी तबीयत खराब रही।उसके बाद ठीक होने पर उमा जी-जान से पढ़ाई में जुट गई। पढ़ाई पूरी होने पर उमा सरकारी अस्पताल में नौकरी करने लगी।कुछ ही दिनों में उसकी गिनती शहर की प्रमुख गायनोलोजिस्ट में होने लगी।

कुछ समय बाद उमा दम्पत्ति ने शहर में अपना नर्सिंग होम खोला।उसके पति अमन जनरल फिजिशियन थे। दोनों पति-पत्नी सप्ताह में एक दिन गरीबों का मुफ्त इलाज करतें। डॉक्टर उमा के इलाज से बहुत सारी महिलाऍं ,जो माॅं नहीं बन पा रहीं थीं,

उनके ऑंगन में खुशियों के फूल खिल उठे। उन्हें खुश देखकर उमा के मन में भी माॅं बनने की अभिलाषा तीव्र हो उठी, परन्तु लाख कोशिशों के बाद भी उसकी गोद भरी न हो सकी।

उमा के माता-पिता का देहांत हो चुका था।अब उसके भतीजे-भतीजी उसके पास आकर पढ़ने लगें।उमा उन पर ही अपना वात्सल्य लुटाती,

परन्तु पढ़ाई पूरी होते ही उनलोगों ने अपनी राह पकड़ ली।उनलोगों के जाने पर उमा खुद को ठगा महसूस करती।उसे उदास देखकर उसके पति अमन कहते -“उमा!निराश होने की जरूरत नहीं है। लोगों की तो फितरत ही है कि काम निकल जाने पर भूल जातें हैं!”

उमा -“नहीं! मैं मायूस नहीं हूॅं, परन्तु कभी-कभी लोग परोक्ष रूप से मुझे बाॅंझ कह देते हैं,जिससे मेरा हृदय विदीर्ण हो उठता है। ज़िन्दगी की एक भूल मेरे लिए भारी साबित हो गई।”

अमन -“उमा! पश्चाताप करने से कुछ नहीं होगा। गरीबों की मदद करो,वहीं हमारा पश्चाताप है और तुम कबसे लोगों की बातें सुनने लगी?लोग तो कुछ-न-कुछ कहेंगे ही!”

कुछ समय पश्चात् उमा ने सरकारी नौकरी छोड़ दी। पति-पत्नी अपने नर्सिंग होम में ही मरीजों की सेवा में तन-मन से लगे रहते।जो मरीज काफी गरीब होता,

उसका इलाज उनके यहाॅं मुफ्त में होता था। नर्सिंग होम के सभी कर्मचारी डाॅ दम्पत्ति का बहुत सम्मान करते।वे लोग भी अपने कर्मचारियों के सुख-दुख का ख्याल रखते,अपने कर्मचारियों और मरीजों की खुशियाॅं ही उनकी खुशियाॅं बन चुकीं थीं।

एक दिन उमा को  सेमिनार के  सिलसिले में एक सप्ताह के लिए विदेश जाना पड़ा। विदेश से लौटने के पश्चात् अगले दिन वह तैयार होकर मरीजों का हाल-समाचार जानने के लिए अपने नर्सिंग होम पहुॅंच गई।

सभी मरीजों को देखते-देखते अचानक से एक बेड पर अकेली नवजात बच्ची को देखकर वह ठिठककर रूक गई।उसने नर्स से पूछा -“शीना!यह बच्ची अकेली क्यों है?इसकी माॅं कहाॅं है?”

नर्स शीना ने जबाव देते हुए कहा -“मैडम!आपके जाने के दिन ही एक मरीज दाखिल हुई थी,जिसका  नार्मल  प्रसव डॉक्टर मीना ने करवाया था, परन्तु अगले ही दिन इसकी माॅं इसे छोड़कर भाग गई।

डॉ उमा -“तुमलोगों ने उसके बारे में कोई छान-बीन नहीं की?”

नर्स शीना -“हाॅं!मैडम,हमने पता लगाने की कोशिश की, परन्तु मरीज का फोन नम्बर और पता सभी गलत निकला। लगता है कि मरीज बिन ब्याही ही माॅं बन गई थी!”

डॉक्टर उमा ने तत्काल पुलिस को खबर कर दी।आने पर पुलिस इंस्पेक्टर ने सारी बातें सुनने पर कहा -“मैडम! जब तक बच्ची के माता-पिता का पता लगाता हूॅं,तब तक बच्ची को यहीं रहने दीजिए।”

डॉक्टर उमा ने इंस्पेक्टर की बात मान ली।अब प्रतिदिन वह मरीजों के देखने के बाद सुबह-शाम बच्ची को देखने जरूर जाती। बच्ची को देखते-देखते उमा के मन में उसके प्रति लगाव बढ़ता जा रहा था।उसने नर्सों को हिदायतें दे रखी थी कि बच्ची की देखभाल में कोई कोताही न बरती जाऍं।

पुलिसवाले भी उस बच्ची के माता-पिता का पता नहीं लगा पाऍं।एक दिन नर्स शीना ने कहा -“मैडम!अब इस बच्ची का क्या करें?”

डॉक्टर उमा -“इंसान का बच्चा है,इसे फेंक तो नहीं सकते हैं। यहीं पलने दो।”

देखते-देखते बच्ची एक साल की हो गई। बच्ची अब अपने पैरों पर चलने लगी।एक दिन घर जाते समय बच्ची ने आकर उमा की साड़ी का ऑंचल कसकर पकड़ लिया और जोर-जोर से रोने लगी।बच्ची के प्रति डाॅ उमा के दिल में ममता तो बहुत पहले ही जाग्रत हो चुकी थी,

उस दिन बच्ची के प्रति उसका ममत्व समंदर की भाॅंति हिलोरें लेने लगा, परन्तु उसके लिए अभी भी द्विविधा के स्थिति बनी हुई थी।घर में उसे सास की चिंता थी,जो पुराने ख्यालों की थीं। पहले भी उन्होंने पराया खून कहकर किसी बच्चे को गोद लेने से  मना कर दिया था।

आखिरकार मन में एक कठोर फैसला लेते हुए डॉ उमा ने नर्स से कहा -“शीना! बच्ची का सामान मेरी गाड़ी में रखवा दो।”

बच्ची को जैसे उसने गोद में लिया,बच्ची लिपटकर उसके गले से लग गई। मातृत्व के इस अनमोल अनुभव के लिए डॉ उमा हमेशा से तड़पती रही थी।उसी क्षण उसने फैसला लिया की अब मैं ही इस बच्ची की माॅं बनूॅंगी!

डाॅ उमा बच्ची को गोद में लेकर जैसे ही गाड़ी से उतरी,वैसे ही पति अमन और सास ने उसकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा।घर के अंदर आकर उमा ने पति और सास को सारी बातें बताईं।

उसके पति को तो बच्ची को स्वीकारने में कोई दिक्कत नहीं थी, परन्तु उसकी सास ने तुनकते हुए कहा -“पराया खून पराया ही होता है। बच्चों में संस्कार तो खून से ही बनते हैं!”

डॉक्टर अमन ने अपनी माॅं को समझाते हुए कहा -“माॅं! संस्कार खून से नहीं परवरिश से जिंदा होते हैं।जब कभी माॅं का नाम आता है तो यशोदा का नाम पहले आता है।यशोदा क्या जानती थी कि कृष्ण का खून क्या है? आज माॅं की महत्ता और ममता ही यशोदा का पर्यायवाची बन गया है! बच्ची को तहेदिल से स्वीकार कर लो।”

एकांत में उमा ने पति से पूछा -“अमन!तुम तो मेरे फैसले से दुःखी नहीं हो?”

डॉक्टर अमन -“उमा! मैं तुम्हारे फैसले से दुःखी नहीं, बल्कि चिन्तित अवश्य हूॅं!”

डॉक्टर उमा -” अमन!चिन्तित क्यों?”

डॉक्टर अमन -“उमा!तुम अपनी व्यस्तम ज़िन्दगी में से इस बच्ची के लिए कैसे समय निकाल सकोगी?”

डॉक्टर उमा -“अमन! जहाॅं चाह होती है, वहीं राह निकल आती है। मैं इस बच्ची के माध्यम से अपने‌ मातृत्व के एहसास को जीना चाहती हूॅं।इसके लिए मैं कुछ भी कर सकती हूॅं।”

उमा की सास -“बहू!इस उम्र में गोद लेना ही था तो बेटा गोद ले लेती!बेटी गोद लेने पर लोग क्या कहेंगे?”

डॉक्टर उमा -“माॅं जी! मैंने कभी लोगों की परवाह नहीं की।लोगों का तो काम ही है कहना। कुछ-न-कुछ तो लोग कहेंगे ही!”

डॉक्टर उमा ने बच्ची को कानूनी रूप से गोद ले लेने पर उसके नामकरण पर बड़ी -सी पार्टी रखी।उसने अपने सभी परिचितों को बुलाया। बच्ची को ईश्वर का आशीर्वाद मानकर उसने उसका नाम नेमत रखा।नेमत के आ जाने से उनकी जिंदगी में खुशियों की बहार आ गई। धीरे-धीरे अमन की माॅं भी बच्ची से प्यार करने लगी। नेमत देखने में जितनी सुंदर थी,उतनी ही कुशाग्र बुद्धि की भी।

 देखते-देखते समय पंख लगाकर उड़ चला।अमन की माॅं का देहांत हो चुका था।नेमत भी डॉक्टर बन चुकी थी। डॉक्टर दम्पत्ति अपने नर्सिंग होम का कार्य-भार बेटी को सौंपकर निश्चिन्त हो जाना चाहते थे।एक दिन अप्रत्याशित फैसला सुनाते हुए नेमत ने कहा -“माॅं! आप लोगों को कोई ऐतराज न हो तो मैं  अपने दोस्त डॉक्टर रंजन से शादी करना चाहती हूॅं!”

डॉक्टर उमा -” बेटी!डॉक्टर रंजन से तुम्हारी शादी से हमें क्या ऐतराज हो सकता है? वर्षों पूर्व हमने अपनी शादी में जाॅंत-पात का बंधन तोड़ दिया था।”

नेमत -“माॅं!जाॅंत-पात की बात नहीं है।रंजन शादी के बाद अमेरिका सेंट्ल होना चाहता है।”

बेटी की बात सुनकर डॉक्टर उमा को एकबारगी चक्कर -सा आ गया, परन्तु बात को सॅंभालते हुए अमन ने पूछा -“बेटी!तुम बताओ कि तुम्हारी क्या इच्छा है?”

नेमत -“पापा!हम दोनों ने मिलकर अमेरिका बसने का फैसला लिया है।”

अमन -“बेटी!तुम्हारी खुशी ही हमारी खुशी है। हमें कोई ऐतराज नहीं है!”

उमा दम्पत्ति ने कलेजे पर पत्थर रखकर धूम-धाम से नेमत का विवाह किया और खुशी-खुशी उन्हें विदेश रवाना कर दिया। दोनों पति-पत्नी ऊपर से खुश रहने का दिखावा कर रहें थे, परन्तु उनके भीतर कुछ दरक-सा गया था।

डॉक्टर अमन बेटी का बिछोह सह नहीं पाऍं।एक दिन सोऍं-सोऍं उनकी हृदय गति रुक गई।पति के जाने से डॉक्टर उमा की जिंदगी वीरान-सी हो उठी।बेटी नेमत ने बार-बार उन्हें अपने पास आने को कहा, परन्तु अपनी मिट्टी और अपने मरीजों को‌  छोड़कर परदेस में बसने का निर्णय

उससे हो न पाया।उसी कठिन घड़ी में तीन बच्चों समेत सहायिका रीता उसकी जिंदगी में आई। डॉक्टर उमा ने रीता के तीनों बच्चों की पढ़ाई का जिम्मा ले लिया।

उसके तीनों बच्चे पढ़ -लिखकर नौकरी करने लगें, परन्तु रीता ने उसका साथ नहीं छोड़ा।उसके साथ ही रहने लगी। अतीत में विचरण करते-करते उमा नींद की आगोश में समा गई।

अगले दिन चाय के लिए उसे जगाते हुए रीता ने कहा -“दीदी!उठो, नहीं तो लोग कहेंगे कि कोई काम नहीं है तो  डॉक्टरनी दिनभर होती रहती है!”

डॉक्टर उमा -“कहने दो।लोग तो कुछ-न-कुछ कहेंगे ही।”

डॉक्टर उमा और सहायिका रीता एक साथ ही हॅंस पड़तीं हैं।

समाप्त।

लेखिका -डाॅ संजु झा।

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