उमेश ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा—
“नीना, यार सॉरी… अब ये गलती नहीं होगी। चलो, खाना खा लेते हैं। सच में, पेट में तो चूहे कूद रहे हैं।”
उनके स्वर में चुहल और मुस्कान दोनों थे।
नीना ने आँखें तरेरीं। माथे की उभरी रेखाओं और कड़ी नज़र से गुस्से का आभास साफ़ झलक रहा था।
“हुंह! पेट में चूहे कूद रहे हैं तो कूदने दो ना! कभी सोचा है, नीना के बिना और इस घर के बिना तुम्हारी हालत क्या होगी?”
उमेश क्षणभर को चुप हो गए।
उन्होंने धीरे से नीना का हाथ थाम लिया और संयत स्वर में बोले—
“सच कहूँ तो यह घर, यह रसोई, यह सब कुछ तुम्हारे बिना अधूरा है। पर सुनो… मैं कुछ कहना चाहता हूँ। समझ में न भी आए तो कोई बात नहीं, पर सुन तो लो।”
नीना का चेहरा कुछ नरम पड़ा। उसने पास आकर बैठते हुए एक लंबी गहरी साँस ली और कहा—
“कहिए, क्या मसला है?”
उमेश हल्की झिझक के साथ बोले—
“वैसी कोई बड़ी बात नहीं… कल मैं फेसबुक पर स्क्रॉल कर रहा था। देखा कि ज़ोमैटो ने एक नई स्कीम शुरू की है। जो लोग चाहें, घर का बना खाना हॉस्टल या जरूरतमंदों तक पहुँचा सकते हैं। बस रजिस्ट्रेशन करना है, फिर वो खुद घर आकर खाना ले जाते हैं। सोचा… क्यों न हम भी जुड़ जाएँ? तुम्हारा मन भी लगा रहेगा और हमारा भी।”
नीना ने भौंहें सिकोड़ीं। धीमे स्वर में बोली—
“सोच गलत नहीं है… पर लोग क्या कहेंगे? बच्चे अमेरिका में सेट हैं। बंगला, गाड़ी, सब कुछ है। फिर भी काम करना? समाज क्या सोचेगा?”
उमेश ने हल्की हँसी के साथ कहा—
“तो? लोग क्या कहेंगे! खाली बैठने से तो बेहतर है हम कुछ काम करें। और काम करेंगे तो सोशल भी रहेंगे। वरना इस Gen-Z पीढ़ी के पास हमारे लिए फुर्सत कहाँ है? उनके साथ कदम मिलाने के लिए हमें भी सक्रिय रहना होगा।”
नीना कुछ देर सोचती रही। फिर धीमे से बोली—
“लोगों का काम है कहना। आज कहेंगे—बच्चों के बावजूद काम कर रहे हैं। कल वही लोग ताली बजाएँगे। अगर सफल हुए तो खुद ही गुणगान करेंगे। और जब तक संघर्ष चलेगा, तब तक कुछ न कुछ कहते रहेंगे।”
उमेश मुस्कुराए। अचानक गुनगुनाने लगे—
“कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना… हमको हमारे बुढ़ापे में भी स्वस्थ, तंदुरुस्त है रहना…”
नीना ने मुस्कुराकर उनकी बात काटी—
“ठीक है, ओके डन। लेकिन सारा काम मेरे भरोसे नहीं चलेगा।”
“अरे नहीं,” उमेश ने तुरंत कहा। “हम बिल्कुल प्योर खाना बनाएँगे। जितना होगा उतना ही। शुरुआत हॉस्टल के बच्चों से करेंगे। और नाम रखेंगे—‘मम्मी के हाथ का खाना’।”
नीना की आँखों में चमक आ गई।
“हाँ, और हेल्प पापा भी करेंगे।”
शुरुआत आसान नहीं थी। दो-चार दिन तक उमेश को कई हॉस्टलों में पैकेट मुफ्त में बाँटने पड़े। कभी गरमागरम दाल-चावल, कभी पराठे-अचार, कभी सब्ज़ी-रोटी। नीना बड़े प्यार से बनातीं और उमेश पैक कर बच्चों तक पहुँचा आते। पर धीरे-धीरे ऑर्डर आने लगे।
‘मम्मी के हाथ का खाना’ का नाम फैलने लगा।
खाना उतना ही बनता जितना ऑर्डर होता। धीरे-धीरे काम की रफ़्तार बढ़ी तो चार-पाँच नौकर भी रख लिए गए। रसोई व्यवस्थित हो गई और दोनों का मन भी लगने लगा। अब सुबह का समय एक नए उत्साह से भर जाता—नीना किचन में, उमेश ऑर्डर संभालते।
लोगों की बातें?
हाँ, थीं। कभी कोई ताना मारता—“इतनी उम्र में ये काम?” तो कोई व्यंग्य करता—“इतनी दौलत के बाद भी?”
पर उमेश और नीना ने परवाह करना छोड़ दिया। उनके चेहरे पर संतोष की मुस्कान रहती। धीरे-धीरे वही लोग उनसे जुड़ने लगे।
‘मम्मी के हाथ का खाना’ के ऑर्डर हर ओर से आने लगे। कई घरों की रसोई भी उनसे जुड़ गई। जो परदेश में रहते थे, उन्हें भी अपने बच्चों तक घर जैसा खाना पहुँचाने का सुकून मिला।
फोन पर कभी बच्चे नाराज़ हो जाते—
“माँ-पापा, आपको इस उम्र में ये सब करने की क्या ज़रूरत है?!”
पर उमेश हँसकर जवाब देते—
“काम ही जीवन है।”
अब घर का हर कोना फिर से जीवंत था। रसोई से आती खुशबू, डाइनिंग टेबल पर रखे पैकेट, डोरबेल की आवाज़ और ऑर्डर का इंतज़ार—सब मिलकर उमेश और नीना के जीवन में एक नया रंग भर रहे थे।
यह पहल केवल उनके लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी एक मिसाल बन गई।
‘मम्मी के हाथ का खाना’—सिर्फ एक सेवा नहीं, बल्कि स्नेह, अपनापन और अपनेपन की थाली थी।
— दीपा माथुर