कितने हसीन रिश्ते हैं यहाँ पर…..! – कंचन सिंह चौहान : Moral Stories in Hindi

प्रदीप से मिली थी मैं जुलाई २००२ में। वो शांता अम्मा का बेटा था। SSC परीक्षा द्वारा हिंदी अनुवादक पद पर चयन होने के पश्चात मुझे पहली पोस्टिंग मिली थी अनंतपुर, आंध्र प्रदेश में। सन् २००१ का अंत मेरे लिये ऐसे घटनाक्रमों का वर्ष था जो मेरी सपनो की तो सीमा में था लेकिन कल्पनाओं की सीमा से परे था।

क्योंकि सपने तो मेने देखे थे अपनी व्हीलचेयर से उड़ान भरने के, अपनी बैसाखियों से बुलंदियों की सीमा सीढ़ियाँ छूने की! लेकिन कल्पना नही की थी कि घर की चार दीवारी को अपनी दुनिया समझने वाली मैं एक दिन घर से २००० कि०मी० दूर रहने का निर्णय लूँगी और डट जाऊँगी।

खैर वो बातें फिर कभी! आज तो बात करनी है प्रदीप की.! तो शांता अम्मा मुझे आफिस कैम्पस में मिले क्वार्टर से आफिस और आफिस से क्वार्टर मेरी व्हीलचेयर से ले जाया करती थीं। ऐसे में अक्सर लगभग १८ वर्ष का ६ फुटा, दुबला पतला, पक्के साँवले रंग का किशोर दौड़ता हुआ और लगभग हाँफता हुआ आता

और अम्मा से मेरी व्हीलचेयर अपने हाथ में ले लेता। रास्ते में बहुत अधिक बातें तो होती नहीं थी। बस मेरे प्रश्न और उसके उत्तर और उसी प्रश्नोत्तरी में मुझे पता चला कि २-३ बार में हाई स्कूल पास करने के बाद प्रदीप ने से आगे पढ़ने की कोशिश नही की। गलत संगत में पड़े उस लड़के की दो कमजोरियाँ थी।

एक उसका किशोरावस्था का एक पक्षीय प्रेम जो मात्र मृगतृष्णा था लेकिन वो २४ मे ४८ घंटे उसी फेर में पागल रहता था और दूसरी उसकी पान मसाले की लत जो वो २४ घंटे में ९६ पुड़िया खाता था। उसकी जीभ,तालु हमेशा कटे रहते थे लेकिन वो उसे छोड़ने में असमर्थ था। अलग प्रांत, अलग शहर,

अलग संस्कृति से आई हुई मैं कह भी क्या सकती थी। बस दुःख होता था शांता अम्मा पर जिनका अतीत था उनका शराबी पति जो शराब में डूब कर खतम हो चुका था और उन्हे कर्ज में डुबो गया था और भविष्य था यह लड़का।

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ऐसे में आया राखी का त्यौहार, भावना प्रधान होने के कारण मेरा सबसे प्रिय त्यौहार। पर इस बार मैं घर से बहुत दूर थी। सुबह से ही मेरे आँसू बह रहे थे। खाना नही बनाया…. बिना भाईयों को राखी बाँधे आज तक कहाँ खाया था जो आज खा लेती।

शाम को मैं घर पहुँची तो प्रदीप एक राखी का धागा लिये चला आया “क्या दीदी मेरे रहते तू रो रही है, चल बाँध मुझे राखी और अच्छा-अच्छा खाना बना कर खिला।

अहा! मैं तो खुश हो गई। झट से टीका बना लाई। बगल की आंटी ने टिप्पणी की ” वो क्रिश्चियन है, टीका नही लगवाता” मैने उसकी तरफ देखा वो मुस्कुराया ” अभी तो मैं सिर्फ तेरा भाई हूँ दीदी!”

हम दोनो ने मिल कर खाना खाया। मैने खाना खाते समय उससे कहा ” तूने मेरी राखी बँधाई नही दी?”

” हाँ दीदी..!” कहते हुए उसने जेब में हाथ डाला और दस रुपये का नोट मुझे पकड़ाने लगा।

” दस रुपये तो कल ही खतम हो जायेंगे।” मेरे इस जवाब ने उसे उदास कर दिया और वो दबे स्वर में बोला ” इससे ज्यादा तो मेरे से होगा ही नही दीदी !”

” तो रुपये देने को बोल कौन रहा है ?”

“……..?”

” मुझे तो एक प्रॉमिस चाहिये।”

“promise….?” कछ सेकण्ड के मौन के पश्चात वो बोला ” देख दीदी मैं जानता हूँ तू दो में से एक चीज माँगने वाली है मुझसे और मैं भी ना तू जो माँगेगी वो दे दूँगा तुझे….. ललेकिन तू भी दीदी जरा सोच समझ के माँगना।”

अब इतने भोलेपन से कही गई बात के बाद मैं उसकी मृगतृष्णा तो उससे माँग नही सकती थी…. सो दूसरी चीज ही माँगी जानी थी। एक दाँव ही खेलना था, वर्ना कितने ही लती इससे पहले मिल चुके थे जो

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“रोज़ तौबा उठाई जाती है रोज़ नीयत खराब होती है” के ढर्रे पर चल रहे थे।

तो मैने उससे माँगा पान मसाला ना खाने का वचन। ये सोच कर कि छोड़ेगा नही तो कम से कम सोचेगा तो छोड़ने की…. फिर अब भाई बन गया है तो देख लेंगे धीरे -धीरे।

उसने कहा saturday last दिन दीदी, उस दिन एक पार्टी है, फिर कभी नही लूँगा।

इतनी छूट देना तो मेरी मजबूरी थी। खैर उसने कहा कि वो अब पान मसाला नही खाता…. और मैं मन में ये सोच कर कि बोल रहा है तो कुछ कम तो किया ही होगा, चुप रह जाती।

एक दिन मैं घर पर बैठी थी तब तक कुछ किशोरों ने दरवाजा खटकाया हाथ में फूल लिये साँवले सी लगान फिल्म जैसी टीम खड़ी थी। मैं क्या पूछूँ समझ मे नही आ रहा था… तभी उसमे से जिसको हिंदी बोलनी आती थी उसने बोलना शुरू किया ” दीदी हम आपको thank you बोलने आया दीदी ! प्रदीप तो कैसे भी सुधरने वाला नही था दीदी ! पर अभी तो वो एकदम बदल गया। आपका बहुत respect करता वो दीदी ! हम सब को भी आपका भाई बनाएगा दीदी…?”

मैं भाव विभोर सी उन सब को देख रही थी…राखी के धागे ने ये कमाल कर दिया…. मुझे खुद नही पता था।

जनवरी २००३ मे मेरा स्थानांतरण लखनऊ हो गया। प्रदीप को अब भी राखी भेजी जाती है।

मैने कभी भी उससे उसकी मृगतृष्णा नही माँगी….. लेकिन जब मैं लखनऊ आ रही थी, लोग विदाई में ढेरों उपहार दे रहे थे…. वो आया और उसने मेरे हाथ में एक कागज थमा दिया…. ये वो कागज़ था जिस पर उसने उस लड़की के साथ अपनी शादी का सपना बनाया था ….. एक शादी का कार्ड…!

ये मैं तुझे दे रहा हूँ दीदी…! ये सब सच्ची बात नही है….! सच्ची बात वो है जो तू बोलती है…..! प्यार तो प्यार होता है और तुझसे ज्यादा प्यार कौन कर सकता है मुझे”

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उस साल उसने इण्टर का फार्म भरा और पास हो गया, अभी वो ग्रेजुएशन कर रहा है। हच में सर्विस कर रहा है और कंपटीशन तैयारी कर रहा है। अब वो ये सोचता है कि माँ का कर्ज कैसे कम किया जाये…..!

और ये सब किया है एक राखी के तार ने …..!

विश्वास मानिये मेरा………..! 

लेखिका : कंचन सिंह चौहान

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