दीपावली की छुट्टियों में बेटी दस दिनों के लिए आ रही थी।मधु को बड़ा आराम मिल जाता था,बेटी के आने से।पूजा -पाठ की पूरी तैयारी अपने जिम्मे ले लेती थी वह।बचपन से मां के कामों में हांथ बंटाती थी वह।बिना बोले भांप जाती थी मां के मन की पीड़ा।बेटा(राघव) भी खुश था बहन के आने से।दो साल छोटी थी भाई से रिया,पर समझदारी में दस साल बड़ी ही थी।आज भी भाई की पूरी शॉपिंग वही करती थी।जहां कुछ पसंद आया,तुरंत बहन को बताया”बोनू,देख ना,अच्छा लगेगा ना मुझ पर यह रंग?ले लूं क्या?”
उधर से बहन भी चहककर कहती” दादा,तुझे पसंद है तो मैं कर देती हूं ऑर्डर।ले ले।अच्छा लगेगा।”
मधु कभी-कभी बेटी पर गुस्सा होकर झल्लाती” क्यों हर चीज दिला देती है तू?कुछ ख़ुद के लिए भी बचाया कर।मना नहीं कर सकती उसे।हर शौक पूरा करना जरूरी है क्या?”रिया तपाक से कहती” मम्मी,ये क्या बात हुई?पूरे घर का खर्च उठाता है ना दादा,फिर अपने शौक की चीजें किस से कहें?पापा थे ,तो पापा ला देते थे।अब तुमसे नहीं मांगता।मुझसे कहता है ,तो मैं ही ना पूरे करूं उसके शौक?वाह!!!!हमेशा जिम्मेदारी उठाने के लिए नहीं होते बड़े बेटे।अपने शौक मारे दादा,ऐसा मैं कभी होने नहीं दूंगी।”
मधु निरुत्तर हो जाती थी।बहन के आने की खबर से राघव भी बहुत खुश था।अपने वार्षिक बोनस को बचाकर रखा था।पिछले साल ही जिद कर के बहन के लिए सोने का एक सैट खरीदना लिया था मधु को साथ ले जाकर। बार-बार पूछता जाता था”और क्या-क्या देते हैं मम्मी?कुछ कमी नहीं रहनी चाहिये।शादी से पहले सारे गहने बनवा लेंगे हम।पापा के रहते जैसे शादी करते बोनू की,वैसी ही करेंगे हम।तुम कंजूसी मत करना,और ना ही संकोच करना।” मधु को पता थी बेटे की आदत। बिल्कुल अपने पापा पर गया था।कम पैसों की चीज कभी पसंद ही नहीं आती थी।बच्चों के लिए पैसे छोड़ गए थे पति।रिया ने साफ-साफ कह ही दिया था कि फिजूलखर्ची में पापा की जिंदगी भर की कमाई नहीं लुटानी।जो भी मुझे दोगी,उतना ही दादा की पत्नी के लिए भी देना होगा।भाई के ऊपर जिम्मेदारी थोपनी नहीं है,उसका भी भविष्य है।
अब लड़के के लिए चेन खरीदना ही बचा था।राघव ,बहन को साथ ले जाकर ही खरीदना चाहता था।मधु की बहुत इच्छा थी कि बहू के लिए भी कुछ खरीद ले अभी,पर बेटे ने मना कर दिया।बोला-“एक -एक करके लेंगे मम्मी।पहले बहन के लिए हो जाए पूरा,फिर आने वाली के लिए लेंगे।बेटे की दूरदर्शिता पर कभी संदेह नहीं था मधु को।
रिया घर पहुंच गई थी।दीपावली से पांच दिन पहले।आते ही भाई ने पूछना शुरू कर दिया”क्या लाई मेरे लिए बोनू?” वह भी बड़ी बहन बनकर अपना सूटकेस खोलकर सामान दिखाने लगी।यहां तक कि सलाद के लिए कटर भी लेकर आई थी।भाई खुश होकर बोला”हां,अब सलाद जैसा सलाद मिलेगा। मम्मी तो इतने बड़े-बड़े टुकड़ों में गाजर -खीरा देती है कि पूछ मत।” मधु समझ रही थी कि चिढ़ा रहा है उसे।अगले ही दिन चेन खरीदने पहुंचे दुकान सब।भाई का पूरा बोनस खर्च होते देखकर बहन खुश नहीं थी।टोके जा रही थी”बहुत मंहगा है,थोड़ा कम वजन वाला देखते हैं ना मम्मी।” उधर से बेटा इशारा कर रहा था कि वही लेना है।खैर ,चेन ले लिया गया।राघव के चेहरे में जो संतोष दिखा मधु को,वह एक पिता की अनुपस्थिति की अनगढ़ कहानी थी।
घर आकर राघव ने सभी चीजों को एक साथ निकालकर बहन के सामने रखा,और बोला”बोनू,ये मायके से मिलने वाला स्त्रीधन है बेटी के लिए।तू हर चीज में कंजूसी करती है,पर गहने मां की तरफ से हैं।तुझे हल्के पहनने हों तो बनवा कर पहनना,पर शादी में यही देंगे हम तुझे।लड़के को भी कम ही सही पर अच्छा देंगे हम,समझी।”
रिया को अपने सारे जेवर बहुत पसंद आए।नेकलेस देखकर बोल ही पड़ी” दादा, बिल्कुल आधुनिक और पुरातन का बेजोड़ डिजाइन चुना है तूने।पापा होते तो वो भी ऐसा ही दिलवाते मुझे।”बहन को गहने पसंद आ गए,यह जानकर राघव बहुत खुश हुआ।तभी रिया ने अपने सूटकेस से एक पोटली निकाली और भाई को दी।राघव ने आश्चर्य से वह पोटली खोली,तो रिया बोली ” मम्मी को हम दोनों की तरफ से दीपावली का गिफ्ट।कैसा लगा दादा?ऐसा ही मम्मी को पसंद था ना?इस साल एक ही ले पाई।अगले साल एक और देंगे हम।”दोनों ने मिलकर जब पोटली मधु के हाथों में रखी,तो पोटली खोलते ही मधु अवाक रह गई।रिया से पूछा” ये कब खरीद लिया तूने?यह डिजाइन कहां मिला तुझे?इतने पैसे कैसे बचाए तूने बेटा?”
रिया ने होंठों पर उंगली रखते हुए कहा” बस चुप!अब और कोई सवाल नहीं।तुम तो शिवगामी देवी हो ना।बाहुबली की मां”राजमाता”।बाहुबली देखकर आते ही कहा था तुमने दादा से कि मेरे लिए ऐसे ही कंगन खरीदकर देना,जब कमाएगा तू।दादा ने वादा किया था तुमसे।मुझे पता है ,कि नौकरी लगते ही जितने बार बोनस मिला,कहीं और ही खर्च हो गए उसके वो रुपए।दादी की आंख का ऑपरेशन से छूटा,तो तुमने मेरे गहनों की जिम्मेदारी सौंप दी।कहां से करता अपना वादा पूरा?वो हर महीने मुझे पैसे भेजता है बिना नागा।मैं खुद कमाती हूं,फिर भी।मैंने उन्हीं पैसों को बचाकर खरीदा है यह सोने का कंगन।यह मेरी तरफ से नहीं,दादा की तरफ से ही है।तुम पर यह कंगन बहुत जंचेगा।दूसरा भी जल्दी मिल जाएगा तुम्हें।अभी फिलहाल तुम हमेशा पहनना इन्हें।जब तुम्हारे बाहुबली की देवसेना आएगी,तब उसे देना ये कंगन।इस कंगन की अधिकारी तुम थी ,पर तुम्हें मिल नहीं पाया पहले।तुमने सारी जिंदगी अपनी बहनों को,उनके बच्चों को, हमारी बुआओं को ,उनके बच्चों को भर-भर कर सोना दिया है। अपने लिए कभी कुछ सोचा ही नहीं। कभी सोना पहनते हुए देखा ही नहीं हमने तुम्हें।मन मारकर जीती रही तुम अब तक।अब हमेशा कंगन पहन कर रखोगी तुम।”
मधु रो रही थी।इतनी बड़ी कब हो गई रिया।बचपन से मां की हर अनकही समझ जाती थी,पर अंतर की अनकही आस भी इसे पता चल गई।सालों पहले देखी हुई सबसे पसंदीदा मूवी(बाहुबली),उसमें मां के पहने कंगन,और तो और मजाक में भाई से किया हुआ मनुहार भी याद है इसे!!!बेटी से बोली मधु”मैं पहनूंगी कंगन,तेरे दादा की पत्नी को क्यों दूंगी?मैं इस कंगन की अधिकारी हूं ना,तूने ही कहा अभी।”
वह गंभीर होकर बोली” जो तुम्हारी बहू बनेगी,वह भी तुम्हारे लायक ही होनी चाहिए ना।शिवगामी देवी की बहू देवसेना जैसी ही होनी चाहिए,जो तुम्हारे बाहुबली के साथ आकर्षक लगे।उसे इस कंगन के योग्य होना पड़ेगा,तब तुम यह कंगन देना।उससे कहना कि ये हमारे खानदानी कंगन हैं।तुम्हें तुम्हारी सास से मिले हैं।और अब उसे अपनी सास से मिल रहें हैं।भविष्य में उसकी बहू को देने होंगे उसे ये कंगन।तब ये सोने के कंगन खास हो जाएंगे।”
बेटी ने कितनी आसानी से सोने के कंगन को खानदानी बना दिए।मधु को आज गर्व हो रहा था अपनी बेटी की बुद्धिमानी पर।
शुभ्रा बैनर्जी
साप्ताहिक विषय कहानी-सोने का कंगन