खाली कुर्सी – बालेश्वर गुप्ता

घर से सामान के ट्रक में लदते समय मेरे बेटे समीर ने मेरे कमरे में रखी पुरानी कुर्सी को हटा दिया,और पैकर्स से कहा कि  इसे लादने की जरूरत नही है।मैंने सुना तो मेरी तंद्रा टूटी और मैं अचकचा कर बोला,नहीं-नहीं, इस कुर्सी को भी लेकर चलना है,ये मेरे बाबूजी की कुर्सी है।उनकी याद है, इससे ही तो मैं जीने की प्रेरणा लेता हूँ,समीर इस कुर्सी को हम नही छोड़ सकते।अनमना सा होकर समीर चुप कर गया।असल मे उस कुर्सी का मेरे जीवन मे क्या महत्व है, उसे तो कभी मेरी पत्नी भी नही समझ पायी, तो भला समीर क्या समझता?

        उस दिन भी ऐसा ही हुआ था,मानसिक तनाव से ग्रस्त हो, मुझे कोई उपाय ही नही सूझ रहा था,क्या करूँ?मेरा बेटा समीर हमे अपने साथ ले जाना चाहता था,उसका कहना था कि पापा जब मम्मी अवसाद ग्रस्त हैं और अकेलेपन की शिकार हैं तो अब उन्हें हमारे पास रहना चाहिये,बड़े शहर में इलाज भी अच्छा होगा और मम्मी का अकेलापन भी दूर होगा, जबकि अब मैं पूरी तरह से आपकी देखभाल और सेवा करने में समर्थ हूँ।आपको मेरे साथ चलना ही होगा।

          यह प्रस्ताव मान लेना इतना आसान नही था,आखिर अपने जन्म स्थल और कर्मभूमि से लगाव को मेरा बेटा नही समझ सकता था।पत्नी की ओर देखता तो समीर का प्रस्ताव उचित प्रतीत होता,अपनी सोचता तो लगता इतनी जल्दी रिटायर होकर अपनी कर्मस्थली को छोड़ना इतना आसान नही था।घोर असमंजसता की स्थिति में मैं बाबूजी की कुर्सी पर उन्हें याद करते हुए जा बैठा,जहाँ मैं कभी नही बैठता था।

अनजाने में उस कुर्सी पर बैठ मेरी आँखों में आंसू आ गये, बरबस ही मेरे मुंह से निकल पड़ा बाबूजी आप क्यूँ हमें अकेला छोड़ चले गये?तभी मानो आवाज आयी, अरे मुन्ना मैं कहाँ गया हूँ,मैं तो यही तेरे सामने ही तो रहता हूं,यही बैठे तुझे निहारता रहता हूँ, तू ही आज मेरी गोदी में आकर बैठा है।मेरे बच्चे दुःखी मत हो जा समीर के साथ,उसे भी तो तेरी जरूरत है,

बहू को उसकी जरूरत है।जा बेटा जा। मेरी तंद्रा टूटी तो वहां भला कौन होता,कौन उस आकाशवाणी को समझ सकता था।बाबूजी ने मुझे मार्गदर्शन दे दिया था।मैंने समीर को उसके साथ चलने की सहमति दे दी।वह पूरे उत्साह से चलने की तैयारी में  व्यस्त हो गया।

         समीर के पास बैंगलोर आये, तीन वर्ष बीत गये, इस बीच मेरी पत्नी का स्वास्थ्य भी बेहतर हो गया,मैं एक सामाजिक संगठन से जुड़ गया।इस प्रकार दिनचर्या चलती रही।कभी भी अपने पुराने घर,वहां के साथियों की,वहाँ की अपनी गतिविधियों की याद आती तो मन व्यथित हो जाता तो अब मैं जब किसी भी मानसिक परेशानी से गुजरता तो बाबूजी की गोद मे आंख बंद कर बैठ जाता, हाँ-हाँ, बाबूजी की गोद मे यानि उनकी खाली पड़ी कुर्सी पर।जहाँ बैठकर मुझे सुकून भी मिलता और बाबूजी का अदृश्य मार्गदर्शन भी।बाबूजी मुझे समझा देते मुन्ना ये तेरी नई कर्मभूमि है रे,यही देश के लिये कुछ कर।

      एक दिन मैं बाहर एक मीटिंग में गया था आने में शाम हो गयी,थकान भी महसूस हो रही थी,सो मैं सीधे अपने कमरे में आराम करने के उद्देश्य से चला गया।मैं धक से रह गया बाबूजी की कुर्सी वहां नही थी।मैं बदहवास सा हो गया,चिल्ला कर समीर को आवाज दी,समीर भी भागता हुआ आया,उसे लगा कि पता नही पापा को क्या हो गया।मैंने लगभग चीखते हुए कहा कि बाबूजी की कुर्सी यहां से किसने हटाई और कहां गयी?

        हतप्रभ से समीर ने कहा कि पापा वह कुर्सी काफी पुरानी हो गयी थी,यहां अच्छी भी नही लग रही थी,इसलिये मैंने ही उसे कबाड़ी को उठवा दी है।मैंने आपके लिये बिल्कुल मॉडर्न और बहुत ही आरामदायक कुर्सी का आर्डर दे दिया है,दो तीन दिन में ही आ जायेगी।

मैं अपना माथा पकड़ कर बैठ गया।कैसे समीर को अपने बाबूजी की कुर्सी से जुड़े जज्बात को बताऊं?कैसे बताऊं वह कुर्सी नही थी,वह मेरे बाबूजी की गोद थी,जिसमे मैं कभी भी बैठ जाता था।मुझे लग रहा था मेरे बाबूजी तब स्वर्ग नही सिधारे थे जब मैंने अपने हाथों से  शमशान में उनकी कपालक्रिया की थी,सच मे मुझे लग रहा था मेरे बाबूजी आज स्वर्ग सिधार गये।

मेरी समझ नही आ रहा था क्या करूँ?मेरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था।मेरी हालत देख समीर घबरा गया, उसे लगा कही पापा को हार्ट अटैक तो नही आ गया,वह तुरंत मुझे हॉस्पिटल ले जाना चाहता था।मैंने ही मना कर दिया।मैं धीरे से बोला समीर बेटा मेरी बात सुन,देख वह कुर्सी पुरानी जरूर थी,पर मेरे लिये वो खास थी,बेटा वो कुर्सी मेरे बाबूजी की मात्र निशानी ही नही थी,बेटा वो बाबूजी की मेरे लिये गोद थी।असल मे समीर आज मैं अनाथ हो गया।

      आश्चर्य से समीर मेरे विलाप को देख रहा था चुपचाप, मैं कुछ समझ पाता कि वह अचानक ही बाहर की ओर दौड़ लिया।मैं उसे आवाज ही देता रह गया,पर वह रुका ही नही।मैं फिर मानसिक तनाव में था,समीर को कही बुरा तो नही लग गया,वह यूँ ही कहाँ चला गया।आज मुझे सांत्वना देने के लिये बाबूजी की गोदी नही थी,वह तो साधारण कुर्सी समझ समीर ने कबाड़ी को दे दी।सोचते सोचते पता नही कब मेरी आँख लग गयी।

        घर मे कुछ कोलाहल सुन आँख खुल गयी,मैं अपने कमरे से बाहर आकर मामला क्या है, कोलाहल कैसा है, देखने आया तो देखा समीर मेरे बाबूजी की कुर्सी को अपने दोनो हाथों से ऊपर उठाये ला रहा है।उसने वह कुर्सी लाकर मेरे कमरे में पहले वाले स्थान पर ही रख दी।फिर उसने उस कुर्सी को अपनी कमीज से साफ करके मुझसे बोला पापा आप सच कह रहे थे,यह लकड़ी की कुर्सी मात्र नही है,इसमें दादू की आत्मा है,इसमें आपके प्राण है,इस कुर्सी में दादू का अस्तित्व है।मैं तो इस भावना को पापा आपकी आंखों में इस कुर्सी के लिये आये आंसुओं को देख आज ही समझ पाया,महसूस कर पाया,तभी तो मैंने उस कबाड़ी को खोज उसकी मनचाही कीमत दे,ले आया।वास्तव में पापा यह कुर्सी नही यह तो हमारे दादू की विरासत है।

       बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

 मौलिक कहानी।

अस्तित्व  साप्ताहिक शब्द पर आधारित कहानी

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