“कौन अपना, कौन पराया”

गिरीजा देवी का चेहरा उस दिन कुछ खास चमक रहा था। वजह थी – उनके सबसे बड़े बेटे नरेश की सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट पार्टी।
पार्टी बड़े होटल में रखी गई थी, पूरा परिवार सजधज कर पहुँचा था। गिरीजा देवी का छोटा बेटा महेश, उसकी पत्नी दीपा, और बेटी  प्रिया – सब व्यस्त थे मेहमानों को संभालने में।

गिरीजा देवी साड़ी के पल्लू को बार-बार संभालतीं और मंच के किनारे चुपचाप बैठी रहतीं, जैसे समारोह का हिस्सा होकर भी उनसे कोई लेना-देना न हो।

रात जब सब थककर घर लौटे, तो नरेश की पत्नी उमा ने बुदबुदाते हुए कहा,
“माँ जी तो पार्टी में बस बोझ लग रही थीं। ज़रा मुस्कुरा भी नहीं रही थीं। ऐसे मौकों पर तो सबको खुश दिखना चाहिए!”

गिरीजा देवी ने कुछ नहीं कहा, बस हल्की मुस्कान के साथ चुप रह गईं। वे कब से चुप रहना सीख चुकी थीं।

पति रामदयाल जी के गुजर जाने के बाद गिरीजा देवी को नरेश अपने घर ले आए थे। “माँ अब हमारे साथ रहेंगी,” उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा था।
पर धीरे-धीरे वह आत्मविश्वास घर के जिम्मेदारियों और पत्नी की नाराज़गी के बीच दबता चला गया।

गिरीजा देवी को एक अलग छोटा कमरा दे दिया गया, जहाँ धूप नहीं आती थी। समय से चाय न मिलती, न कोई बातचीत।  कभी फ्रिज से मिठाई लेकर खा लेती थीं तो उसपर भी बहू सुना देती थी ।

महेश और उसकी पत्नी दीपा पास के ही शहर में रहते थे, महीने में एक बार आते, वो भी सिर्फ यह पूछने कि “माँ को कुछ चाहिए तो नहीं?”

गिरीजा देवी की एक बेटी भी थी—संध्या।
संध्या की शादी दूर के शहर में हुई थी, पर माँ के हर फोन पर उसका पहला सवाल होता था—”माँ, दवा समय से लेती हो ना? कोई कुछ कहता तो नहीं? खाना खाया?”

गिरीजा देवी कहतीं, “मैं ठीक हूँ बेटा, बस तू अपना ध्यान रख।” लेकिन आँखें छलक ही जातीं।

एक दिन गिरीजा देवी की तबीयत बिगड़ी। नरेश ऑफिस चला गया, उमा किटी पार्टी में थी। पड़ोसी की मदद से अस्पताल पहुँचीं।
महेश को फोन किया, पर वह मीटिंग में था।
आख़िर में गिरीजा देवी ने संध्या को फोन किया।

संध्या दोपहर तक पहुँच गई। डॉक्टर से बात की, दवाइयाँ लीं और माँ को घर लाकर सीधा नरेश के सामने बोली—
“भैया, अब माँ मेरे साथ रहेंगी। ये कोई एहसान नहीं है, ये मेरा अधिकार है।”

नरेश चौंका—”लेकिन… वो तो यहाँ ठीक हैं।”

संध्या ने कड़ा स्वर अपनाया—”ठीक हैं? अस्पताल आप नहीं ले गए, दवा आपने नहीं दिलाई, माँ अकेले कमरे में सूखती रहीं और आप कह रहे हैं ठीक हैं?”

उमा ने चुपचाप सिर झुका लिया।

संध्या ने माँ का बैग तैयार किया और बोली—”आप सबने माँ को ज़िंदा होते हुए भी अकेला बना दिया। अब मैं माँ को उनके हिस्से का सम्मान और सुकून दूंगी।”

संध्या के घर में माँ का कमरा खिड़की के पास था, जहाँ से सूरज की किरणें आती थीं। वो रोज़ उनके लिए चाय बनाती, उनके पसंद के पुराने गाने लगाती।
गिरीजा देवी का चेहरा फिर से खिला। वो अब फिर से बुनाई करने लगीं, अपनी नातिन को कहानियाँ सुनाने लगीं।  


दोस्तों किसी ने सच कहा है 

बेटे घर देते हैं,पर बेटियाँ अक्सर माँ-बाप को “घर जैसा” सुकून देती हैं।

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