कठपुतली – पुष्पा पाण्डेय : Moral Stories in Hindi

बहन से बात करने के बाद विनोद जी अपनी बजट बनाने में लग गये। जैसलमेर आना- जाना और फिर ‘मामा-भात’ रस्म के लिए जेवर- कपड़े आदि उपहार…

कोई कमी नहीं होनी चाहिए। अंतिम भांजे की शादी है। घर में पत्नी और बच्चे भी खुश थे कि चलो इसी बहाने घूमने का मौका मिलेगा।

गुड़िया ने सुन रखा था कि राजस्थान में कठपुतली का नृत्य होता है।

“मम्मी मेरी दोस्त बता रही थी कि राजस्थान में कठपुतली का नृत्य बहुत अच्छा होता है। मुझे भी देखना है।”

मम्मी कुछ बोलती इसके पहले पापा ही बड़ी गर्मजोशी से बोल पड़े।

” हाँ-हाँ बेटा, जरूर दिखायेंगे।”

” लेकिन पापा, बेजान कठपुतली कैसे नाचती है?”

विनोद बेटी को समझाने की कोशिश करने लगे।

” गुड़िया, ऐसा है कि वह बेजान कठपुतली स्वयं नृत्य नहीं करती है। उसके पीछे लगी डोर कठपुतलीवाले की हाथ में रहती है। वह उसे जैसे चाहे अपने हाथों के करामात से नचाता है।”

“अरे वाह पापा, कठपुतली वाले तो बहुत अच्छे अभ्यास किए होंगे।”

“हाँ, बिल्कुल।”

बहन और पापा की बात को बड़ी तन्मयता से बबलू सुन रहा था।

” पापा, मुझे भी देखना है कठपुतली का डांस।”

“हाँ-हाँ, सभी देखेंगे।”

बबलू दौड़ता हुआ कुसुम के पास गया।

” मम्मी तुम्हें भी कठपुतली का डांस देखना है?”

मम्मी कुछ कहती इसके पहले ही बबलू वापस अपनी बहन के पास आ गया।

कुसुम सोचने लगी-

कठपुतली का नृत्य…

हम सभी भी तो एक कठपुतली हैं , जिसकी डोर कभी ऊपर वाले की हाथ में रहती है तो कभी मनुष्य के जीवन की डोर परमात्मा मनुष्य के हाथों में ही थमा देता है। कर्म के आधार पर परमात्मा उसे नचाते रहते हैं और मनुष्य द्वेष और स्वार्थ बस।

कुसुम अतीत के गलियारों में भटकने लगी।

बाबूजी ने अंतिम घड़ी में कहा था- बेटा, मम्मी का ख्याल रखना। अब मैं जा रहा हूँ। उसके बाद से तो परिवार में माँ- बेटी को सभी दया की नजरों से देखने लगे। अक्सर यह सुनने को मिल जाता था कि

 “बेचारी बिन बाप की बच्ची।”

ये ‘बेचारी’ शब्द मुझे शूल की तरह चूभते थे। इसके अर्थ की गहराई में जाकर न कुछ सोचती थी और न ही सोचना चाहती थी। चुपचाप सुन लेती थी। माँ का चेहरा भी हमेशा भाव विहिन नजर आता था। खामोशी से दिनभर कुछ-न-कुछ काम करती रहती थी। स्व की इच्छा से या… किसी का दबाव मुझे नजर नहीं आता था, पर कुछ तो बात जरूर थी।

मेरे खातिर सबकी टहलुआ बन गयी थी। आखिर चाचा-चाची ही घर के कर्ता- धर्ता थे। कुछ साल बाद माँ भी बीमार रहने लगी। अब तो माँ की मेरी चिन्ता और बढ़ गयी। धीरे- धीरे माँ कमजोर होती गयी और एक दिन बिस्तर पर ही आ गयी।

अंत में डाॅक्टर साहब ने बड़े अस्पताल में ले जाने को कहा। चाचा ले भी गये लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। बहुत देर हो चुकी थी। माँ कैंसर जैसी भयानक राक्षस से हार गयी।

मेरी जिन्दगी की डोर भी तो ऊपर वाले के हाथ में थी और पाँच साल बाद माँ भी मुझे छोड़कर चली गयी। कुछ दिन तो ठीक रहा लेकिन न जाने कब और कैसे मेरे जीवन की डोर  परमात्मा के हाथों से निकलकर चाचा- चाची के हाथ में आ गयी।

स्कूल जाने भर की छूट थी। बाकी समय तो गृह-कार्य में ही निकल जाते थे। हमेशा मेरी नजरें चाची की आँखें ही देखती रहती थी कि कहीं उन आँखों में मेरे लिए क्रोध तो नहीं है। चाची को खुश रखना ही मेरी पहली प्रथमिकता  थी। मेरी जिन्दगी की डोर जो उनके हाथ में थी।

चाचा का प्यार अन्दर के घाव पर मरहम का काम जरूर करता था।

बारहवीं का परीक्षा-फल देखकर चाचा काफी खुश थे। स्कूल में तीसरा स्थान था। काॅलेज में दाखिला भी हो गया, लेकिन 

काँलेज की पढ़ाई अभी पुरी भी नहीं हुई थी कि फुफा जी ने चाचा के पास मेरे लिए एक रिश्ता भेज दिया। चाची के दबाव में आकर उन्हें रिश्ते के लिए हाँ करना पड़ा। भले ही उस लड़के का एक पैर नकली हो लेकिन था नौकरी वाला। बैंक में नौकरी करता था। उम्र में दस साल का फर्क कोई मायने नहीं रखता। बिना दहेज का नौकरीवाला लड़का मिलना भी किस्मत की बात चाची मानती थीं।

         मैं भी तो एक कठपुतली थी। जैसे-जैसे डोर घूमती थी मैं नाचती चली गयी। दुल्हन बनकर ससुराल आ गयी लेकिन  वहाँ भी कुछ अधिक सम्मान नहीं पा सकी, क्योंकि जेठानी और देवरानी की नजर में तो मैं सिर्फ तीन वस्त्रों में आई थी। दान-दहेज आदि उपहार लेकर आई होती तो शायद…

बिन सास के ससुराल में जेठानी-देवरानी के साथ…

वहाँ भी कठपुतली की तरह नाचती रही। कुछ दिनों के लिए मेरी जिन्दगी की डोर इन लोगों के हाथों में आ गयी थी।…

पर पति का सरल और मधुर व्यवहार ने मेरे नृत्य को ससुराल में और प्रभावशाली बना दिया। पति की खुशी के लिए नाचती रही…नाचती रही…

पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया और अब  मेरी… डोर…पति के हाथों…में चली गयी या अनजाने में मैंने ही दे दिया। कभी कोई शिकवा-शिकायत नहीं की और बच्चों की अच्छी परवरिश में लगी रही। हाँ मन में इतना संकल्प जरूर था कि बेटी इंसान के हाथों की कठपुतली नहीं बनेगी।…

रसोई- घर में कड़ाही से निकलता घुँआ जब साँसों के साथ नासिका में प्रवेश किया तो मन अतीत से वर्तमान में लौट आया। सब्जी जलकर खाक हो चुकी थी और अतीत की यादें आँखों से निकलकर गालों पर टिकते हुए छाती को भींगो चुकी थी।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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