कठपुतली – कुमुद मोहन : Moral Stories in Hindi

मेरा मन का बावरा पंछी यादों के झरोखों से निकल ससुराल के रीति-रिवाजों को भूल,घर गृहस्थी के बंधन तोड़ मायके की चौखट लांघ बाबुल के आंगन में खट्टी मीठी यादों का चुग्गा लेने जा पहुंचा!

जहां दादी भगवानके आगे आसन पर 

बैठी मनकों की माला फेरती राम राम का जाप तो जरूर कर रहीं थी पर उनका आधा ध्यान आसपास कौन क्या कर रहा है में लगा रहता!

मुझे छत की सीढ़ी से जल्दी जल्दी उतरती देखकर राम राम रटते रटते बीच में ही आवाज लगाती!

“क्या ऊंट की तरह हुड़दंगी सी कूदती रहती हो!धीरे चला करो”तब मैं कुल आठ साल की थी ,और मेरे उछलते -उठते कदम दादी के टोकने के साथ एक पल में रूक जाते।

एक बारगी महसूस होता मैं महज एक कठपुतली हूं जिसकी डोर भगवान ने दादी के हाथ में दे रखी है!

थोड़ी बड़ी हुई तो माँ ने टोका ताड़ सी लंबी हो रही हो स्कर्ट मत पहना करो,खुली टांगें अच्छी नहीं लगती, ढक के रहा करो।तो फ्राॅक और स्कर्ट की जगह सूट आ गए।

सुनकर लगता दादी ने मुझ कठपुतली की डोर मां के हाथों सौंप दी!

तेरह- चौदह साल की हुई तो पिता और भाई ने टोका “देर शाम तक सहेलियों के साथ बाहर मत रहा करो,सूरज छुपने से पहले घर में घुस जाया करो”।

अब वही डोर पिता और भाई के हाथ पहुंच कर थोड़ी और कस गई! 

बाहर निकलती तो दादी या ताई टोकतीं “दुपट्टा फैला कर लिया करो,क्या गले में फंदा सा लपेट लेती हो”।

डर लगने लगा जैसे यह

 कठपुतली डोर घर के सारे रिश्तेदारों के हाथों के हाथों गुजरती हुई कब तक नचाऐगी पता नहीं!

फिर जैसे जैसे साल बीते बड़ी होने के साथ साथ टोकना- रोकना भी बढ़ने लगा ।लड़कों के साथ मत बैठो,सहेली के घर नाइट आउट बंद ।

मोबाइल पर किससे घंटों बातें करती रहती हो?

छुट्टी के दिन एक्सट्रा क्लास क्यों है।

काॅलेज तो एक बजे खत्म हो जाता है फिर इतनी देर कहाँ लगी।

मूवी जाना है तो कौन कौन साथ जाएगा?

लगा एक नहीं कई सारी डोरीयां एक साथ कस गई. 

गर्मी की छुट्टियों में बुआ आईं तो अपने लाडले भाई से बोलीं”बस बहुत हो गई इसकी पढ़ाई! और पढ़ाने की जरूरत नहीं, कलेक्टर ना हो जाऐगी पढ़ लिखकर, अच्छा सा लड़का देखो और शादी करके निपटाओ,जाके अपनी गृहस्थी संभाले!अरे! इतनी उमर में तो मेरे बेटा भी हो गया था।

जरा सा कभी टीवी देखने बैठती तो माँ कोई ना कोई काम बताकर चौके में भेज देतीं”क्या बेफजूल के सीरीयल देखती हो ,थोड़ा चौके-चूल्हे में हाथ बंटाया करो तो कम से कम दाल-चावल तो बनाना सीख ही लोगी”।

काॅलेज में किसी की तरफ़ थोड़ा आकर्षण बढ़ा, माँ को बताया! जाति- धर्म पूछने पर फौरन टोका गया “कोई जरूरत नहीं है उससे मिलने- जुलने की”उसी दिन से भाई को दरोगा बना मेरी चौकीदारी में लगा दिया गया।

ये चैप्टर भी खत्म हुआ! 

अक्सर सोचती ये भी कोई जिन्दगी है हर वक्त ये मत करो-वो मत करो,यहाँ मत जाओ,उससे मत बोलो!अपना तो जैसे कोई वजूद ही नहीं!

हर शख्स अपने हिसाब से डोर कस देता!दम घुटने लगा था जैसे अब तो!

जिन्दगी मेरी और फैसले पूरे खानदान के हद हो गई! 

कभी कभी तो मन ऊब जाता, कब इस रोका-टोकी से निजात मिलेगी?

 सबके हाथों की कठपुतली बन सबके इशारों पर नाच नाच कर थक गई थी!

खैर! पढाई खत्म हो गई कलेक्टर तो नहीं बनी शादी जरूर हो गई ।

सोचा चलो अब अपने घर में अपनी मर्जी से जैसे चाहे वैसे रहूंगी।अब कोई कठपुतली बना नचाने वाला ना रहेगा!

 पर ससुराल में पति तो माँ पिता और भाई से भी दो कदम आगे निकले।

छोटी छोटी बातों जैसे चप्पल यहाँ क्यों रखी,कपड़े वहां क्यों टांगे!ये क्या पहन लिया, किसी के सामने ये क्यों कह दिया,बहन से फोन पर इतनी देर क्यों चिपक गई?जैसी बातों पर टोका-टाकी देख सुन कर सोचती

कुऐं में से निकली खाई में जा गिरी” ।

थोड़े दिन बाद सासू मां आई!डोर उनके हाथों आ गई! रही सही कसर उन्होंने पूरी कर दी।

“कोई जरूरत नहीं है ये सूट-फूट पहनने की, हमारे यहाँ बहुऐं साड़ी पहनती हैं से लेकर, सब्जी घी में क्यों छौंक दी, दाल इतनी ज्यादा क्यों बना ली,इतनी मंहगे फल क्यों मंगा लिए,सर पर पल्ला ढंगसे क्यों नहीं लिया,जेठ के साथ हंसकर क्यूं बात की खाना बाहर क्यों खाओगे,देखभाल कर खर्चा करो,नौकर- महरी पर घर ना छोड़ो और भी जाने कितनी अनगिनत बातें हैं जिन पर दिन रात टोका करतीं ।

आधी जिन्दगी तो रोक- टोक और दूसरो के इशारों पर नाचने से जूझते ही बीत गई।

फिर बच्चे बड़े होकर गये “मम्मी!स्कूल आओगी तो ढंग से तैयार हो कर आना”।

टीचर के सामने अपनी टूटी- फूटी इंगलिश में मत झाड़ने लगना,हमारे फ्रेंड्स के पास ज्यादा देर को बैठ बेवकूफी बातें मत करती रह जाना “

कभी कभी लगता कि मैं पढ़ी- लिखी टैलेंटेड हूं कहीं जाॅब कर लूं या कोई बिजनेस ही शुरू कर लूं तो सारे घर वाले एक सुर में शुरू हो जाते”क्या रोज-रोज का फितूर चढ़ा लेती हो,क्या कमी है? अब इस उम्र में यह कौन सा भूत सवार हो गया है, चुपचाप बैठकर अपना घर और बच्चे संभालो।

मैं बहुत खुश थी कि चलो भले ही बिजनेस या नौकरी ना कर पायी हो भले ही कलेक्टर ना बन सकी हो सोचा घर बैठे अपना लिखने का शौक ही पूरा कर लूं!इसमें तो शायद किसी को कोई ऐतराज ना हो!

फिर एक दिन जब दोपहर को लैपटाॅप लेकर बैठी ही थी कि पतिदेव ने टोका “आंखें खराब करोगी क्या? क्यूँ हर वक्त लैपटाॅप में घुसी रहती हो!जितना वक्त लैपटाॅप में घुस कर अगड़म बगड़म

लिखा करती हो उतना टाइम घर गृहस्थी में दोगी तो कमज़ोर ना हो जाओगी!

पहली बार ज़बान खोली”बस अब और नहीं!जिन्दगी भर रोकना- टोकना बर्दाश्त करती आई हूँ, कभी कुछ नहीं कहा!

बचपन से अब तक सबके हाथों की कठपुतली बन सबके इशारों पर जिसने जैसे चाहा नचाया-घुमाया!

हर किरदार पोती,बेटी,बहन,भतीजी,भांजी,पत्नी,बहू,भाभी,मामी और मां बन कर बखूबी से निभाया! कभी उफ नहीं की!

 “क्या मेरी ज़िन्दगी का कोई पल ऐसा नहीं जिसे मैं अपनी मर्ज़ी से गुजार सकूं!सबका ख्याल रखकर,सबकी फरमाइशें पूरी करके जिस चीज़ में मुझे थोड़ी सी खुशी मिलती है उसमें बेवजह का दखल नहीं सहूंगी।

समझ नहीं आता कि हम महिलाओं के साथ यह “रोका-टोकी “शब्द पैदा होते ही क्यूँ चिपक जाता है,जो शायद जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता!

“बेटियों “के माध्यम से आज बहुत दिनों बाद दिल में जो रोका-टोकी का कांटा बरसों से चुभ रहा था उसे निकाल फेंका है ।

दिल की भड़ास निकल गई 

बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ ।

शायद हम सब कम-ज्यादा इन हादसों से दो-चार होते ही रहते हैं 

यह ज़िन्दगी एक रंग मंच है!हम स्त्रियों को कठपुतली की तरह हर किरदार बखूबी और पूरी लगन से निभाना पड़ता है!जिसकी डोर परिवार के अन्य सदस्यों के हाथ होती है जिन्हें तो कभी कभी उनकी परेशानियों और कठिनाइयों का अहसास भी नही होता!क्या आप सहमत हैं?

कुमुद मोहन 

स्वरचित-मौलिक

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