सरोज पति के साथ जयपुर भ्रमण पर निकली थी। वर्षों से घर -गृहस्थी में व्यस्त रहने के कारण उसे खुद के लिए सोचने का समय ही नहीं मिला। बच्चों के बाहर चले जाने के बाद उसकी जिंदगी में एकाकीपन ने डेरा जमा लिया।उसकी गहरी ऑंखों में अक्सर नीले आसमान -सा सूनापन दिखता था,तो कभी नीली झील -सी गहरी खामोशी।उसके पति नीरज को उसके अकेलेपन का एहसास हो रहा था।पत्नी की उदासी दूर करने के लिए नीरज ने कहा -“सरोज! हमलोग जयपुर घूमने चलते हैं!”
सरोज ने पूछा -“तुम्हें घूमने के लिए छुट्टी मिल जाएगी?”
नीरज -“कभी-कभार तो पत्नी के लिए छुट्टी ले ही सकता हूॅं!”
अगले दिन सरोज पति के साथ जयपुर घूमने निकल गई। जयपुर के ऐतिहासिक स्थलों का दृश्य उसका मन मोह रहा था।अम्बेर फोर्ट ,हवामहल तथा अन्य दर्शनीय स्थलों के भ्रमण में उसके पति का उत्साह देखते ही बनता था।वापस लौटने से एक दिन पहले नीरज ने कहा -“सरोज!कल हम शहर में ही घूमेंगे।तुम अपनी मार्केटिंग भी कर लेना।
अगले दिन सरोज ने कुछ साड़ियाॅं,चूड़ियाॅं,चादर वगैरह खरीदी। दुकान से बाहर निकलने पर दोनों पति-पत्नी एक जगह बैठकर चाय पीने लगें।उसी समय एक नट अपनी छोटी बेटी के साथ आकर अपनी कला दिखाने लगा।सरोज उस छोटी लड़की के कर्तव्य देखकर हतप्रभ -सी थी।वह लड़की अपने बदन को मोड़कर छोटी-सी रिंग से पार हो जाती थी।
उसे कुछ पैसे देकर पति-पत्नी आगे बढ़ गए। एक दुकान केआगे कठपुतली का नाच हो रहा थाऔर लोग कठपुतली खरीद भी रहें थे।सरोज बड़ी तन्मयता से कठपुतली का नाच देख रही थी। कठपुतली का नाच खत्म होने पर नीरज ने पूछा -“कठपुतलियाॅं खरीदोगी?”
सरोज ने धीरे से कहा-“नहीं!घर में बस एक ही कठपुतली काफी है!”
नीरज -“कुछ कहा तुमने?”
सरोज-“नहीं!”
जयपुर से वापस लौटने पर नीरज फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया, परन्तु सरोज के मन में उथल-पुथल सी मच गई। वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की थी।उसकी ऑंखों में सदा आकाश-कुसुम तोड़ लाने के सपने मचलते।शादी के बाद जिन्दगी की आपा-धापी में यूॅं कठपुतली -सी नाचती रही कि ऑंखों में पले पूर्व स्वप्न कब तिरोहित हो गए पता ही नहीं चला।
अब उसे महसूस होता है कि उसकी जिंदगी की डोर भी तो समय के हाथ में थी,जो उसे कठपुतली -सी नचाता रहा।उसकी जिंदगी से समय यूॅं सरकता गया कि वह चाहकर भी अपनी भागती जिंदगी की डोर अपने हाथ में न लें सकी और न ही उसे थामकर नए सिरे से नए आयाम दे सकी।
उसकी जिंदगी एक नीरस रूटीन -सी बनकर रह गई, जहाॅं उसके अस्तित्व के लिए कोई जगह नहीं थी।उसके जीवन के कुछ रंगीन सपने थे,जो जिम्मेदारियों की बोझ तले दब कर विलीन हो गए।
सरोज को बस एक ही बात की तसल्ली है कि भले ही वह अपने ख्वाबों को साकार न कर सकी, परन्तु उसने अपने बेटा-बेटी के सपनों को पंख देकर उड़ना जरूर सिखा दिया। बच्चे उसके स्नेह की छाॅंव छोड़कर अपने क्षितिज की तलाश में विदेश की राह पकड़ चुके थे।उसी समय फोन की घंटी से उसकी सोच को विराम लग जाता है।
नीरज फोन पर कहता है -“सरोज!रात के खाने पर तुम मेरा इंतजार मत करना। मीटिंग के कारण मुझे देर हो जाएगी।”
सरोज के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। शाम में मेड से काम करवाने के बाद सोसायटी के पार्क में घूमने निकल गई। वापसी में सोसायटी की कुछ महिलाओं से औपचारिक बात-चीत के बाद घर वापस लौट आई। वैसे भी अंतर्मुखी स्वभाव होने के कारण उसकी जल्दी किसी से भी दोस्ती नहीं होती थी।
सरकारी नौकरी के कारण तीन साल पर नीरज का स्थानांतरण होता रहता है।बच्चे जब पढ़ रहें थे,तब तो पढ़ाई के कारण अपने गृहनगर में ही स्थायी रुप से रहती थी। बच्चों के जाने के बाद वह भी नीरज के साथ दिल्ली आ गई।
दिल्ली में आकर सरोज नितांत अकेलापन महसूस करने लगी।अपने गृहनगर में तो सभी परिचित थे। एक-दूसरे के यहाॅं जाना भी आसान था। यहाॅं दिल्ली में आकर उसका अकेलापन और बढ़ गया।उसके फ्लोर पर सभी कम उम्र के लोग रहते हैं।उनकी अलग ही दुनियाॅं थी।वे खुद की दुनियाॅं में मस्त रहते।
दिल्ली में सरोज के मन में खालीपन से उपजी अजीब -सी उदासीनता विस्तृत आकार ले रही थी। जयपुर से वापस लौटने के बाद से तो वह खुद को कठपुतली समझने लगी थी।उसे जिंदगी का रूटीन बोरिंग महसूस होता।मेड से काम करवाना, टेलीविजन देखना , कोई पत्रिका पढ़ना,शाम में पति का इंतजार,साल पूरा होने पर बच्चों का विदेश से
आने का इंतजार,बस यही उसके जीवन का नीरस -सा रूटीन बना गया है।उसे अपने जीवन में झील-सी ठहराव महसूस होता, जिसमें कोई रचनात्मक काम नहीं था।उसे अपनी जिंदगी अर्थहीन महसूस होने लगी।
रात में पति के आने के बाद वह करवट बदलकर सो गई।कुछ दिनों से उसकी उदासी नीरज से छिपी हुई नहीं थी।अगले दिन नीरज ने विज्ञापन दिखाते हुए कहा -“सरोज! प्राइवेट काॅलेज में प्रोफेसर की वैंकेन्सी निकली है,तुम फ़ार्म भर दो।”
सरोज अचकचाते हुए -“अब इस उम्र में मैं कैसे पढ़ा सकूॅंगी?जब सरकारी काॅलेज का ऑफर ठुकरा दिया था,तो यहाॅं कैसे जा सकती हूॅं?”
नीरज -सरोज! सदैव एक-सी परिस्थितियाॅं नहीं रहतीं हैं।उस समय तुम्हें बच्चों का भविष्य सॅंवारना था।अब तुम्हें खुद की पहचान बनानी है!”
पति का सहयोग पाकर कुछ दिनों बाद सरोज काॅलेज में पढ़ाने लगी।उसके मार्गदर्शन में शोधार्थी शोध करने लगें। बच्चे उसे प्रोत्साहित करते हुए कहते -“मम्मी!-पत्र-पत्रिकाओं में कहानी भी लिखकर भेजो।
सरोज–“बेटा!समझ में नहीं आता है कि कहानियाॅं लिखकर कहाॅं भेजूॅं? संपादकों और प्रकाशकों के इतने नखरे हैं कि पूछो ही मत!”
बेटी -“मम्मी!अब हाईटेक जमाना आ गया है। संपादकों और प्रकाशकों के नखरे सहने की जरूरत नहीं है।फोन में साहित्यिक कहानियों के इतने सारे एप्प भरे पड़े हैं।अच्छे एप्प डाउनलोड कर उन पर अपनी कहानियाॅं भेजो।”
बच्चों का प्रोत्साहन पाकर उसने प्रसिद्ध हिन्दी कहानी एप्प पर अपनी कहानी लिखनी शुरू कर दी।पहली बार अपनी कहानी प्रकाशित देखकर एक अजीब -सा सुकून उसके दिल में राह बना गया।वह जिन ख्वाबों को मृत समझ चुकीं थीं,उसके जागृत होने पर आनन्द-रस में डूब गई।अब वह मात्र कठपुतली न रहकर भावनाओं के सागर में डूबने-इतराने लगी।उसे ऐसा एहसास होने लगा
कि उसके मन से निराशा की धुॅंध धीरे-धीरे छॅंटने लगी है।उसकी जिंदगी में खुबसूरत सपनों के हरे-भरे पत्ते लाखों पर उगने लगे हैं।उसकी ठहरी हुई ज़िन्दगी में रवानी आ गई है।अब कठपुतली की तरह उसके जीवन की डोर किसी और के हाथों में न रहकर खुद उसकी हाथों में है।उसे कठपुतली की तरह कोई नहीं नचा सकता है, क्योंकि उसका अपना अस्तित्व है।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा (स्वरचित)