सुमित्रा देवी के लिए ज़िंदगी का मतलब था—अपने इकलौते बेटे विक्रम की खुशियाँ. पति की मृत्यु के बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह से बेटे की परवरिश में समर्पित कर दिया था. उनका घर छोटा था, लेकिन उन्होंने अपने प्यार और सख्त अनुशासन से विक्रम को एक संस्कारी और मेहनती इंसान बनाया था.
विक्रम बचपन से ही पढ़ाई में बहुत तेज़ था. सुमित्रा ने अपने गहने गिरवी रखकर उसकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करवाई. जब उसे एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिली, तो सुमित्रा की आँखों में खुशी के आँसू थे. एक साल बाद, उसकी शादी नैना से हुई. नैना, एक सुंदर, पढ़ी-लिखी और सौम्य स्वभाव की लड़की थी. सुमित्रा ने उसे अपनी बेटी की तरह अपनाया.
शादी के कुछ समय बाद, विक्रम अपनी नई नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर चला गया. नैना भी उसके साथ चली गई, ताकि वे दोनों साथ रह सकें. सुमित्रा देवी अपने पुराने घर में अकेली रह गईं. वह हर सप्ताह अपने बेटे-बहू से फोन पर बात करती थीं.
शुरू में फोन पर बातें सामान्य होती थीं, लेकिन कुछ ही हफ्तों में सुमित्रा को नैना की आवाज़ में एक अजीब सी उदासी महसूस होने लगी. वह पहले की तरह उत्साहित नहीं लगती थी. जब भी सुमित्रा प्यार से पूछतीं, “बेटा, सब ठीक है न?” तो नैना सिर्फ़ एक ही जवाब देती, “हाँ, माँ जी, सब ठीक है.”
फिर एक दिन, सुमित्रा ने विक्रम को बताया कि वह एक हफ्ते के लिए उससे मिलने आ रही हैं. विक्रम को कोई आपत्ति नहीं हुई.
शहर में, विक्रम और नैना एक छोटे से फ्लैट में रह रहे थे. जब सुमित्रा वहाँ पहुँचीं, तो नैना ने उनका स्वागत तो किया, लेकिन उसकी मुस्कान बेजान थी और उसकी आँखों में डर था. सुमित्रा ने देखा कि नैना उनसे और विक्रम से सीधे नज़रें मिलाकर बात नहीं कर पा रही थी.
एक दिन, सुमित्रा ने देखा कि नैना के शरीर पर कुछ नीले निशान थे, जिन्हें वह साड़ी के पल्लू से छिपाने की कोशिश कर रही थी. जब नैना मुड़ी, तो सुमित्रा ने उसकी पीठ पर भी एक गहरा निशान देखा. सुमित्रा का दिल दर्द से भर गया। वह समझ गईं कि नैना सिर्फ़ मानसिक ही नहीं, बल्कि शारीरिक प्रताड़ना भी झेल रही थी। अब उनका शक यकीन में बदल चुका था।
सुमित्रा का दिल दर्द से भर गया.
अगली सुबह, सुमित्रा ने विक्रम से अकेले में बात करने का फैसला किया.
“विक्रम, बेटा, मुझे पता चला है कि तुम और नैना ठीक से नहीं रह रहे हो. मैं देख रही हूँ कि नैना के शरीर पर कुछ निशान हैं…”
विक्रम अपनी माँ की बात सुनकर टोकते हुए बोला, “माँ, आप इन सब बातों में मत पड़िए. यह मेरा और नैना का आपस का मामला है. हम पति-पत्नी हैं और हमारे बीच में जो कुछ भी होता है, वह हमें ही सुलझाना चाहिए.”
सुमित्रा ने उसे प्यार से समझाया, “विक्रम, नैना मेरी बहू है. उसे प्यार से रखना तुम्हारा फ़र्ज़ है. अगर उससे कोई ग़लती होती है, तो तुम उसे प्यार से समझा सकते हो. हिंसा कोई हल नहीं है.”
लेकिन विक्रम पर अपनी माँ की बातों का कोई असर नहीं हुआ. उसने गुस्से में कहा, “माँ, मैंने कहा न आप इन सब में दखल मत दीजिए. आप कुछ दिन के लिए यहाँ आई हैं, रहिए और वापस जाइए. आप हमारी ज़िंदगी में टाँग मत अड़ाइए.”
सुमित्रा अपने बेटे की बेरुख़ी और अहंकार देखकर हैरान थीं. उन्हें समझ आ गया कि प्यार से समझाने का कोई फ़ायदा नहीं होगा.
उसी रात, जब विक्रम शराब के नशे में घर लौटा, तो वह और भी हिंसक हो गया. नैना ने खाने की थाली उसके सामने रखी. विक्रम ने गुस्से में थाली फेंक दी और चिल्लाया, “ये खाना है? क्या मैं भूखा मरूँगा? तुम्हारे मायके वालों ने तो तुम्हें कुछ नहीं दिया और ऊपर से तुम मुझे भूखा मारना चाहती हो?”
नैना डर से काँप उठी. “मैं अभी और बना देती हूँ,” उसने धीमी आवाज़ में कहा.
लेकिन विक्रम का गुस्सा सातवें आसमान पर था. उसने चिल्लाते हुए कहा, “पहले से क्या कर रहीं थी ! तुम मेरे पैरों की धूल भी नहीं हो! तुम्हें क्या लगता है, तुम बहुत ख़ूबसूरत हो, इसलिए मेरे सामने अकड़ दिखाती हो? तुम इस घर की नौकरानी बनने लायक भी नहीं हो!” इतना कहकर उसने नैना को ज़ोर से धक्का दिया. नैना लड़खड़ाती हुई पीछे दीवार से जा टकराई.
सुमित्रा यह सब देखकर काँप उठीं. उन्होंने अपने बेटे को रोकने की कोशिश की, लेकिन विक्रम का गुस्सा शांत नहीं हुआ था. उसने नैना को बालों से पकड़ा और खींचते हुए रसोई में ले गया. “आज मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि खाना कैसे बनाया जाता है!” उसने नैना का हाथ जलती हुई गैस पर रख दिया. नैना दर्द से चिल्लाई, “नहीं! माँ जी…!”
नैना की चीख सुनकर सुमित्रा का दिल फट गया. वह तुरंत आगे बढ़ीं और विक्रम का हाथ पकड़ लिया. “विक्रम! ये क्या कर रहा है तू? ये तेरी पत्नी है!”
विक्रम ने माँ को देखा, पर उसके चेहरे पर कोई शर्मिंदगी नहीं थी. उसने माँ को भी धक्का दिया. सुमित्रा का सिर दीवार से टकराया, पर वह उठीं और नैना को बचाने के लिए खड़ी हो गईं. विक्रम अपनी माँ के सामने कुछ और नहीं कर पाया और गुस्से में बड़बड़ाता हुआ कमरे से बाहर चला गया.
उस रात सुमित्रा ने अपने बेटे का सबसे भयावह रूप देखा था. उनका दिल दर्द और सदमे से फट रहा था. वह नैना के पास गईं और उसे प्यार से गले लगा लिया. नैना फूट-फूटकर रोने लगी.
सुमित्रा ने उसके आँसू पोंछे और धीरे से पूछा, “बेटा, ये सब क्या है? विक्रम ऐसा कब से कर रहा है?”
नैना डरते-डरते सुमित्रा की गोद में सिर रखकर बोली, “यह सब शादी के बाद से ही शुरू हो गया था, माँ जी. पहले वह छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा करते थे. फिर उनका गुस्सा गाली-गलौज में बदल गया. एक बार मैंने उनका पसंदीदा खाना नहीं बनाया, क्योंकि मुझे उसकी रेसिपी ठीक से नहीं आती थी. उन्होंने कहा, ‘तुम्हें तो ढंग का खाना बनाना भी नहीं आता. तुमसे अच्छी तो नौकरानी होती हैं.’ एक बार मेरे मायके से फ़ोन आया. मैंने उनसे प्यार से बात की. उन्होंने फ़ोन छीन लिया और मुझे थप्पड़ मार दिया. उन्होंने कहा, ‘तुम्हें अपने परिवार के साथ फ़ालतू बातें करने का टाइम मिल जाता है, पर घर और मेरा ख़याल नहीं रखा जाता.’ एक दिन मैंने गलती से उनकी शर्ट पर चाय गिरा दी. उन्होंने कहा कि मैंने जानबूझकर ऐसा किया है और गरम चाय का कप मेरे हाथ पर फेंक दिया. यह निशान उसी का है.”
सुमित्रा ने नैना की बातें सुनकर गहरी साँस ली. उनकी आँखों में अब आँसू नहीं थे, बल्कि एक कठोरता और गुस्सा था. उनका दिल अब ममता और न्याय के बीच बँटा हुआ नहीं था, बल्कि न्याय के पक्ष में पूरी तरह से झुक चुका था. उन्हें अब कोई संदेह नहीं था कि उन्हें क्या करना है.
उसी दिन उन्होंने एक कठोर कदम उठाने का फैसला किया. वह बिना किसी को बताए अकेले थाने गईं.
पुलिस में उन्होंने खुद अपने ही बेटे के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज करवाई. उन्होंने उस पर घरेलू हिंसा, मानसिक प्रताड़ना, और मार-पीट करने के आरोप लगाए. जब पुलिस विक्रम को गिरफ़्तार करने आई, तो वह अपनी माँ पर चिल्ला रहा था, “माँ! आपने ये क्या किया? मैं आपका बेटा हूँ!”
सुमित्रा ने धीरे से, पर बहुत दृढ़ता से कहा, “तू मेरा बेटा हो सकता है, लेकिन इंसान बनना भूल गया है. और मुझे अब एक औरत होकर इस जुल्म के आगे चुप रहने की शर्म नहीं उठानी है. मैं बहू को बेटी मानकर लाई थी, अब उसका साथ देना मेरा सबसे बड़ा फ़र्ज़ है.”
कुछ हफ्तों बाद नैना ने अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू कर दी. सुमित्रा हर रोज़ उसके साथ बैठकर चाय पीती थीं और धीरे-धीरे दोनों की आँखों में एक सुकून लौटने लगा.
लोगों ने सुमित्रा पर तरह-तरह की बातें कीं. “कैसी माँ है, जिसने अपने ही बेटे को जेल भेज दिया!” लेकिन सुमित्रा अब किसी की बातों से नहीं डरती थीं. उन्हें पता था कि उन्होंने सही काम किया है.
वह रोज़ मंदिर में जाकर एक ही प्रार्थना करतीं— “हे माँ, कभी किसी को ऐसा फैसला न लेना पड़े… लेकिन अगर लेना पड़े, तो हिम्मत देना.”
समाप्त
कठोर कदम (कहानी)
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मीनाक्षी गुप्ता