देखिए.. इतना कठोर कदम मत उठाइए अभी बच्चा ही तो है धीरे-धीरे समझ आते ही आएगी! अच्छा… 25 साल का जवान बेटा तुम्हें बच्चा नजर आता है, तुमसे जो दिन रात उल्टा सीधा बोलता है? मेरी तो खैर बात ही नहीं सुनता, मुझे देखते ही तो वहां से दूसरे कमरे में चला जाता है, तो क्या चाहती हो तुम.. या तो तुम मुझसे शिकायत मत किया करो, अपने हिसाब से जो तुमसे बन पड़ता है कर लिया करो और जब फिर मैं कोई कदम उठाता हूं तो मुझे मत रोका करो, तुम मां बेटे का समझ ही नहीं आता वैसे दिनभर रोती रहोगी और मैं जब कुछ कहता हूं तो मुझे चुप करा देती हो, ऐसा कहते हुए
गुस्से में नरेश जी चले गए! नरेशजी के जाने के बाद सुधा सोचने लगी.. सही तो कह रहे हैं यह जब से तरुण ऑफिस जाने लगा है ऐसा लगता है हमारा बेटा रहा ही नहीं अभी तो सिर्फ 4 महीने हुए हैं उसे ऑफिस जाते हुए और हमें तो जैसे नौकर ही समझने लग गया हालांकि बचपन से भी वह इतना ही जिद्दी और गुस्सैल प्रवृत्ति का है किंतु पहले तो वह थोड़ा बहुत डरता भी था अपने पापा से किंतु अब जब से उसकी नौकरी लगी है तब से तो उसने जीना ही हराम कर रखा है आज भी कितना चिल्ला
करके आया है मेरे ऊपर, मुझे तो जैसे उसे रुलाने में ही मजा आता है, सुधा याद करने लगी… मम्मी टिंडा भिंडी तोरी के अलावा और कोई सब्जी नहीं आती क्या बाजार में, शाम को देखो तो बस दाल मंगोड़ी कड़ी.. ऐसा लगता है सारी महंगाई हमारे ही घर में आई है अरे अब तो मैं पैसे कमाता हूं नौकरी करता हूं(यह बात अलग है कि उसने आज तक नौकरी का एक पैसा भी अपनी मां के हाथ में नहीं रखा) मुझे ढंग का खाना चाहिए बस! मुझे नहीं खाना यह सड़ी सब्जियां, घर में आते ही मूड
खराब हो जाता है, एक तो दिन भर थके हुए ऑफिस से आओ और आते ही इन बुरी बुरी सब्जियों के दर्शन करो आधी भूख तो ऐसी ही मर जाती है, अरे आप मम्मी दिन भर घर में कुछ नहीं करती कम से कम दो समय अच्छा खाना तो बना कर दे सकती हो? पापा का तो क्या है पापा तो कुछ भी खा लेते हैं किंतु मेरे बारे में तो सोचा करो? बेटा मैं क्या करूं तू कोई भी सब्जियां खाता भी तो नहीं, बीच-बीच में इतना अच्छा-अच्छा खाना बनाती हूं वह तो किसी को दिखाई ही नहीं देता, अच्छा चल तू बता क्या
सब्जी बनाऊं..? क्या रोज पनीर की सब्जी बना दूं.. रोजपनीर बनाऊंगी..तब भी तू कहेगा रोज पनीर बना कर रख दिया, तू एक काम किया कर तू सब्जियां ला कर रख दिया कर तेरी पसंद की मैं वही बना दिया करूंगी! हां बस अब यही काम हो रह गया है क्या बाजार जाकर सब्जी खरीद के लानी पड़ेगी? क्या मम्मी.. घर में आने का मन ही नहीं करता जब आता हूं आपके पापा की हर समय बस रोनी सी सूरत ही नजर आती है और ऐसा कहकर तरुण बिना टिफिन लिए ही बड़बड़ाता हुआ
ऑफिस चला गया! नरेश जी यह सब देख रहे थे किंतु उन्होंने उस समय कुछ भी नहीं कहा क्योंकि उन्होंने मन ही मन कुछ ठान लिया था! आज शाम को फिर उन्होंने सुधा से कहा…. सुधा तुम्हारे मां बेटे के रोज के झगड़े से मैं भी तंग आ गया हूं घर की शांति भी खराब होने लगी है यह तो हमारे ऊपर अभी से ही कलेक्टर बन रहा है एक पैसा भी देता है घर में, जो नौकरी करता हूं, नौकरी करता हूं कहता रहता है, कोई ऐसा नहीं करता और ठीक है ज्यादा ही इसे अपने पैसे का घमंड आया है तो
कल से इसे कह देंगे अपने लिए अलग से पेइंग गेस्ट कमरे का इंतजाम कर ले! रात को जब तरुण घर पर आया और वही सब्जियां देखकर चिल्लाने लगा तब नरेश जी ने उसे ज़ोर से डांटते कहा.. बस करो तरुण बहुत हो गई बदतमीजी यह घर है कोई होटल नहीं जहां तू जैसा चाहेगा वही होगा घर में और भी सदस्य हैं अगर सबकी पसंद का ध्यान रखा जाए तो दिनभर ढाबा चलेगा यहां पर और हां तुझे यहां के खाने पीने रहने से इतनी आपत्ति है तो तू तेरे लिए कल से एक अलग कमरा देख ले जहां जल्दी
उठना अपने कपड़े धोना प्रेस करना करना और तेरी पसंद का खाना अगर मिल जाए तो वह भी खा लेना तेरे हिसाब से जीके देख लेना, बस एक महीने का ही चैलेंज समझ कर दिखा दे बाकी हमें कुछ नहीं चाहिए और अब तो तू कमाता है बेटा बढ़िया से बढ़िया खर्च कर किसने रोका है? हां हां कल से मैं भी पीजी में ही रहूंगा वहां कम से कम शांति तो मिलेगी और 2 दिन बाद तरुण एक अच्छी सी पी.जी. देखकर वहां रहने चला गया! अब आई तरुण की असली परीक्षा की घड़ी दो दिन तो उस ने
जैसे-तैसे अच्छे-अच्छे मौज में काट लिया सोचता था वह यहां के जैसे आराम कहां मिलेगा ना कोई रोकाटोकी ना कुछ बस दोनों टाइम बढ़िया थाली में लगा लगाया खाना आ जाता है फिर तीसरे दिन जैसे तैसे करके कपड़े धोए, कभी उसने अपने कपड़े धोए ही नहीं, हमेशा मम्मी धोती थी पापा कपड़े प्रेस करते थे तो उसे तो इन सब का अंदाजा ही नहीं था कभी चावल में कंकर आ गया कभी डाल एकदम पतली पतली सी और वहां भी क्या ज्यादातर तो लौकी दाल चावल, अधपकी रोटियां टिंडे
तोरई सब्जी आई थी किंतु नाक का सवाल था तरुण इतनी जल्दी कैसे हार मानता, 15 दिन पूरे भी नहीं हुई कि उसे घर का खाना अपनी मम्मी पापा बहन भाई सब याद आने लगे, चाहे मम्मी जैसा भी खाना बनाती हो कितने प्यार से खाना परोसती थी खिलाती थी बस मैं ही उनकी भावना नहीं समझ पाया यहां तो खाना खाओ या ना खाओ किसी को कोई परवाह ही नहीं है मैंने यह सब गलत नहीं बहुत गलत किया अपने घर वालों के साथ और सही भी है अगर पापा यह कठोर कदम नहीं उठाते मुझे
पीजी में भेजने का तो मुझे कैसे परिवार का महत्व समझ में आता, यह सब देखकर सोच कर उसका घमंड तो उतर ही चुका था अगले दिन तरुण ने आकर अपने मम्मी पापा से माफी मांगी और रोने लगा और बोला पापा मम्मी.. मुझे माफ कर दो मैं तो अपनी नौकरी के चक्कर में इतना घमंड में पागल हो गया कि मुझे तो अपने मां-बाप भी बोने नजर आने लग गए, क्या कभी बेटा बेटी अपने मां-बाप से बड़े हुए हैं बस मैं यही भूल कर बैठा! घर की तो डांट में भी अपनापन है और वहां के अपनेपन में भी
बेगानेपन की बदबू आती है! नहीं मम्मी कल से तुम जो भी खाना दोगी जैसा भी कहोगी मैं वह सब करूंगा पर मैं आपसे अलग नहीं रह सकता! अब सुधा नरेश जी को देख रही थी अगर उन्होंने यह कठोर कदम नहीं उठाया होता तो आज तरुण को अक्ल भी ना आई होती! माता-पिता का एक कठोर कदम बच्चे का भविष्य उज्ज्वल बना सकता है!
हेमलता गुप्ता स्वरचित
कहानी प्रतियोगिता (कठोर कदम )
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