Moral Stories in Hindi
दिल्ली की उमस भरी एक शाम थी। आकाश के कमरे में सन्नाटा गहरा रहा था, सिर्फ टेबल फैन की घूर्णन और पिता सुधीर सक्सेना के सख्त कदमों की आवाज़ गूंज रही थी। सुधीर के चेहरे पर उस अंकगणित की कॉपी को लेकर कठोरता थी जिसमें लाल स्याही से भरे गोल-गोल अंक चीख रहे थे।
“पैंसठ प्रतिशत, आकाश?” सुधीर की आवाज़ बर्फ की तरह काटती हुई आई, “ये क्या मज़ाक है? तुम्हें पता है तुम्हारे भविष्य के लिए कितना ज़रूरी है ये विषय?”
आकाश ने ज़मीन की ओर देखा। पिता की आलोचना उसके कानों में चुभ रही थी। “पापा, मैंने कोशिश की… लेकिन गणित मेरे बस का नहीं। मैं तो कला पढ़ना चाहता हूँ, चित्रकारी…”
“चित्रकारी?” सुधीर का स्वर कड़वाहट से भर गया, “पेट भरने के लिए या आसमान में उड़ने के लिए? जीवन चित्रकारी की तरह रंग-बिरंगा नहीं होता, बेटा। ये कठोर है। बेसिक्स मज़बूत होने चाहिए। कल तुम्हें नौकरी के लिए प्रतिस्पर्धा करनी होगी, तुम्हारी कला वहां क्या काम आएगी?” उन्होंने कॉपी टेबल पर पटकी, “कल से तुम्हारा ट्यूशन शुरू होगा। फुटबॉल, दोस्तों के साथ घूमना, ये सब बंद। फोकस करो।”
आकाश की आँखों में पानी आ गया। ये अन्याय था। उसके सपनों को कुचल दिया जा रहा था। “पर पापा…!”
“कोई ‘पर’ नहीं!” सुधीर का स्वर अटल था, “मेरे कदम तुम्हारे भले के लिए कठोर हो सकते हैं, पर ये तुम्हें गिरने से बचाने के लिए हैं। जीवन का उद्देश्य सिर्फ़ सपने देखना नहीं, उन्हें पाने की क्षमता पैदा करना है। और क्षमता मेहनत और अनुशासन से आती है।” यह कहकर वे कमरे से बाहर निकल गए, उनके कदमों की गूंज आकाश के दिल में उतर गई – कठोर, निर्मम।
वर्ष बीते। आकाश ने पिता की सख्ती के तले पिसकर इंजीनियरिंग की। उसका दिल कभी इसमें नहीं रमा। पिता के साथ रिश्ते में एक ठंडापन, एक दूरी आ गई। स्नातक होते ही, उसने एक निर्णय लिया – बगावत का। बिना बताए, वह अपने चित्रकला के सपने को लेकर बेंगलुरु चला गया।
शुरुआत दारुण थी। छोटे-मोटे काम करना, स्टूडियो किराए पर लेना, बेची गई पेंटिंग्स से मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटाना। पिता का फोन आता, आवाज़ में चिंता और क्रोध का मिश्रण। “कब समझोगे तुम, आकाश? जीवन खेल नहीं है! वहां क्या हासिल कर लिया तुमने?”
“आज़ादी हासिल की है, पापा!” आकाश जवाब देता, आवाज़ में चुनौती, “खुद के निर्णय लेने की। गलतियाँ करने की। सपनों के पीछे भागने की। आपके ‘कठोर कदमों’ ने मुझे सिर्फ़ डराया, कुचला।”
“कठोरता ही तो तुम्हें सच्चाई दिखाती है, बेटा। दुनिया नर्म नहीं है।”
“पर प्यार भी तो कठोर नहीं होना चाहिए, पापा!”
फोन कट जाता। दोनों ओर सन्नाटा और चुभता हुआ दर्द।
धीरे-धीरे, आकाश की मेहनत रंग लाने लगी। उसकी अद्वितीय शैली की पहचान बनी। एक प्रदर्शनी में उसकी पेंटिंग की ऊँची कीमत मिली। सफलता की यह खबर जब दिल्ली पहुँची, तो सुधीर के चेहरे पर एक जटिल भाव उभरा – गर्व का एक झलकता सा क्षण, फिर उस पर छा जाने वाली खामोशी और शायद, पछतावे की एक बूँद।
फिर एक दिन, एक पत्र आया। सुधीर सक्सेना का लिखा हुआ। कागज़ पुराना सा, लिखावट काँपती हुई, शब्द भारी:
प्रिय आकाश,
तुम्हारी सफलता की खबर मिली। मन भर आया… खुशी से, और कुछ अफ़सोस से भी।तुम्हें याद होगा, मैं हमेशा ‘कठोर कदमों’ की बात करता था। आज स्वीकार करता हूँ, शायद मेरे कुछ कदम तुम्हारे लिए ज़रूरत से ज़्यादा कठोर हो गए। पर हर पिता का दिल एक ही डर से काँपता है – कहीं उसका बच्चा जीवन की कठोर ज़मीन पर गिर न पड़े। मेरा प्रेम शायद डर के आवरण में छिपा रहा,
जो सिर्फ़ नियंत्रण और सख़्ती की भाषा बोल पाया।तुम्हारा संघर्ष और तुम्हारी जीत देखकर एक सच्चाई और स्पष्ट हुई है: जीवन का उद्देश्य सिर्फ़ सुरक्षित रास्ते पर चलना नहीं है। असली उद्देश्य है अपनी आत्मा की आवाज़ सुनना, चाहे रास्ता कितना भी अनजान और कठिन क्यों न हो। सच्चाई यही है कि हर यात्रा का अपना मूल्य है, हर पड़ाव अपनी सीख देता है – चाहे वो मेरे बनाए नियमों से हो या
तुम्हारे चुने संघर्षों से।तुमने अपने कदमों से अपनी मंज़िल खुद तय की। यही तो अंततः जीवन है – अपने सच को पहचानना, उस पर चलना, चाहे वो कितनी भी कठिनाई से भरा क्यों न हो। मेरे ‘कठोर कदम’ शायद तुम्हें रास्ता दिखाना चाहते थे, पर तुम्हारे कदमों ने खुद अपना रास्ता बना लिया। और वही सही था।क्षमा करना, बेटा, जहाँ मेरा प्यार तुम्हारे सपनों पर पहरा बनकर खड़ा हो गया।
तुम्हारा पिता ,
सुधीर
आकाश की आँखों से आँसू की दो बूँदें पत्र पर गिरीं। पिता के शब्दों में छिपी वेदना और स्वीकारोक्ति उसके दिल को छू गई। पिता के कठोर कदमों के पीछे छिपे भय और प्रेम को वह पहली बार समझ
पाया। यह जीवन की वह कड़वी-मीठी सच्चाई थी – कि प्रेम कभी-कभी कठोरता का रूप ले लेता है, कि मार्गदर्शन और नियंत्रण के बीच एक पतली रेखा होती है, और कि हर पिता का डर उसके बच्चे की आज़ादी के सामने हार जाता है। उसने फोन उठाया। इस बार, उसकी आवाज़ में कठोरता नहीं, एक नई कोमलता थी।
“हैलो, पापा? … मैं कुछ दिनों में दिल्ली आ रहा हूँ। “
लाइन के दूसरे छोर से एक गहरी सांस की आवाज़ आई, फिर धीमे से फूटे दो शब्द:
“जरूर… बेटा।”
आकाश की आँखों में अब वही दृढ़ता थी जो पिता में देखा करता था, पर अब वह स्वयं चुने हुए रास्ते पर चलने की दृढ़ता थी। पिता के कठोर कदमों ने उसे एक रास्ता दिखाने की कोशिश की थी, पर जीवन की सच्चाई यही थी कि अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए हर किसी को खुद अपने, कितने भी कठोर, कदम उठाने पड़ते हैं – और उन कदमों के पीछे का प्रेम ही वह सार है जो हर कठिनाई को सार्थक बना देता है।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पंचरुखी) पालमपुर
हिमाचल प्रदेश