Moral Stories in Hindi
ज्योति सब को चाय देकर शीघ्रता से हाथ चलाते हुए सुबह के नाश्ते के प्रबंध में लगी हुई थी। दोनों बच्चे 4 साल का विपिन और 6 महीने का नितिन। दोनों अभी सो ही रहे थे तो उसने सोचा शीघ्रता से काम निपटा ले। तभी अजीत की आवाज आई, “-ज्योति एक कप और चाय दे दो मुझे! सिर भारी हो रहा है पता नहीं क्यों.. और ज़रा जल्दी करना..”
ज्योति ने झटपट चाय का पानी चढ़ा दिया तभी नन्हे नितिन की रोने की आवाज आई। वह शायद उठ गया था। उसे भय हुआ कि वह कहीं बिस्तर से खिसकते हुए किनारे पर आकर गिर न पड़े। उसने झट से चाय का चूल्हा बंद किया और कमरे की तरफ दौड़ पड़ी। उसने नितिन को गोद में उठा लिया और उसे थपकते हुए चुप कराने लगी लेकिन उसे शायद भूख लग गई थी तो वह चुप ही नहीं हो रहा था। तब तक में अचानक विपिन ने करवट बदली और बिस्तर के बिल्कुल किनारे पर
आकर वह नीचे गिर गया। चोट लगने के कारण वह भी तीव्र स्वर में रोने लगा। नितिन को एक हाथ से गोद में उठाए वह उसकी तरफ बढ़ी और उसे उठाया और उसे भी पुचकार कर चुप कराने लगी। तब तक में गुस्से से उबलता हुआ अजीत वहांँ आ पहुंचा और उसकी बाँह पकड़ कर खींचते हुए ज़ोर से बोला,”- तुम्हें चाय बनाने को कहा था और तुम यहांँ कमरे में आकर आराम फ़रमाने लगी। ज्योति ने हड़बड़ाकर उसकी ओर ताका,”- नहीं जी मैं तो चाय बना ही रही थी लेकिन इधर नितिन भी उठ गया और रोने लगा और विपिन भी बिस्तर से गिर गया, इसीलिए मैं इन्हें संभालने लगी! ”
उसकी बात सुनते ही अजीत का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उसने चीख कर कहा, “- एक तो गलती करती हो और फिर ज़ुबान भी लड़ाती हो।”
और आगे बढ़कर एक थप्पड़ उसकी गाल पर रसीद कर दिया। उसकी जोर-जोर से बोलने की आवाज़ सुनकर सासु मांँ विमला देवी भी कमरे तक आ पहुंची थी। वह सब कुछ देख रही थी। फिर उन्होंने अजीत का हाथ पकड़ कर कहा, “- चल, मैं तुझे चाय देती हूंँ, उसे छोड़ दे।”
अजीत कमरे से निकलते निकलते भी आग्नेय दृष्टि से उसे घूरते हुए चार गालियाँ बक कर गया।
ज्योति कमरे में दोनों बच्चों को सीने से लगाए सिसकती रही। अपना दुख वह कहे भी तो किससे! जब वह 8-9 वर्ष की थी तभी उसके माता-पिता आकस्मिक सड़क दुर्घटना स्वर्ग सिधार गए थे। उनके बाद मामा मामी ने उसे पाला। उनके स्वयं के भी तीन बच्चे थे और उनकी आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी। विवाह योग्य होने पर अपने अनुसार उन्होंने अच्छा ही घर देखकर ज्योति का विवाह यहांँ कर दिया। परंतु अजीत का व्यवहार शुरू से ही ऐसा ही था। पुरुषोचित अहं उसके अंदर कूट-कूट कर भरा था। उसके अनुसार वह जो चाहे कर सकता है क्योंकि वह पुरुष है और ज्योति को उसके अनुसार रहना ही पड़ेगा। और वह मामा मामी को अपना दुख बता कर और परेशान नहीं करना चाहती थी इसलिए अधर सिए वह सारे कष्ट चुपचाप झेलती रहती थी।
परिवार में उसके अजीत के और दोनों बच्चों के अतिरिक्त केवल सासु मांँ ही थीं। बहुत कम आयु में पति के निधन के बाद से उन्होंने अकेले ही अजीत को पाला था इसलिए उनकी ममता अजीत पर बहुत ही अधिक थी।
वह ज्योति के प्रति अजीत के दुर्व्यवहारों को देखती रहती थी और मन ही मन ज्योति से सहानुभूति भी रखती थी परंतु अजीत के लिए ममता और प्रेम में वह जैसे अंधी हो चुकी थी। अजीत चाहे जो भी करें वह कभी अजीत से एक शब्द नहीं कहती थी।
दोनों बच्चे उसके वक्ष से लिपटे हुए फिर सो गए थे। उसके आंसू भी अब गालों पर सूख चुके थे। अभी तक अजीत के पांचो उंगलियों के निशान उसके गालों पर उसकी निर्ममता की कथा कह रहे थे। तभी विमला देवी हाथों में चाय का कप थामे कमरे में प्रविष्ट हुईं और उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे चाय का कप थमा दिया। और फिर बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चली गई। ज्योति चुपचाप चाय पीने लगी और चाय के साथ-साथ जैसे एक-एक घूंट दुख को भी आत्मसात करने का प्रयत्न कर रही थी।
अजीत भला कब बदलने वाला था। दो दिन बाद ही खाना पकाते पकाते अचानक ज्योति की दृष्टि रसोई की खिड़की से बाहर दिखाई देते हुए वृक्ष पर पड़ी। एक प्यारी सी चिड़िया इस डाल से उस डाल पर फुदकती हुई अठखेलियांँ कर रही थी। उसे अनायास ही अपने माँ की वह “मेरी सोन चिरैया” वाली लोरी याद आ गई जो वह उसे सुलाते हुए सुनाया करती थी! वह लोरी उसे अभी तक ज्यों की त्यों याद है। मांँ की याद आते ही उसकी आंँखें भर आईं। आंँखें पोंछ कर वह धीमे स्वर में उसी लोरी को
गुनगुनाते हुए खाना पकाने लगी, और उसे मीठी याद की पुलक का अनुभव करने लगी। तभी पता नहीं कहांँ से अजीत आ पहुंचा और पीछे से उसने उसे बालों से पकड़ कर जोर से धकेलते हुए कहा,”- अरी ओ महारानी जी! ये मेरा घर है, कोई कोठा नहीं है! यहांँ गाना बजाना नहीं चलेगा। यह सब लक्षण दिखाए ना तो सीधे तुझे तेरे बाप के पास ऊपर पहुंचा दूंगा। वहीं जाकर यह सब नाच गाना दिखाती रहना। ” और फिर दीवार की और धकेलते हुए झटके से उसे छोड़ दिया। उसका सिर जोरों से दीवार
से जा टकराया और ललाट पर खून की बूंदें छलक आईं, साथ ही बड़ा सा गूमड़ भी निकल गया। उसके सिर से खून निकलते देखकर अजीत उसे वहीं छोड़कर बड़बड़ाता हुआ बाहर चला गया। विमला देवी भी दौड़कर आ पहुंची। उसके सिर से खून निकलते देखकर तुरंत उसका हाथ पकड़ कर कमरे में ले गईं और मरहम पट्टी करने लगीं। इतने दिनों से सब कुछ सहती हुई ज्योति का जैसे आज धैर्य छूट गया था। वह अचानक विमला देवी के गले लग कर ज़ोर से रो पड़ी, “-मांँ, मेरी क्या गलती है जो मैं यह सब भोग रही हूं। आप ही बताइए मैं क्या करूं?? तंग आ गई हूं इस जीवन से…”
विमला देवी ने कुछ नहीं कहा। चुपचाप उसका सिर अपनी गोद में रखकर थपकती रहीं। फिर उससे प्यार से कहा, “- आज तू खाना मत बना,तुझे चोट लग गई है। आज मैं खाना बना लूंगी।”
ज्योति ने चिहुंक कर कहा, “-नहीं नहीं माँ, वह फिर नाराज हो जाएंगे।”
“-मैं उसे संभाल लूंगी, तू आराम कर आज!” कहती हुई विमला देवी कमरे से बाहर चली गईं।
शाम को जब अजीत आया तो उसने रसोई में विमला देवी को खाना बनाते हुए देखा। बस उसने न आव देखा न ताव ! धड़धड़ाते हुए सीधे कमरे में जा पहुंचा और सोई हुई ज्योति को झकझोरते हुए खींचकर सीधे बिठा दिया।
“- ज़रा सी खरोंच क्या आई कि तुम यहांँ टांगें पसार कर सोने आ गई। इस बात का भी एहसास नहीं है कि मेरे आने का समय हुआ तो उठकर चाय पानी ही बना दो और माँ वहां रसोई में लगी हुई है।”
ज्योति ने दर्द से सिसकते हुए,”- आज मुझे चोट लगी थी तो मांँ ने कहा वह खाना बना देंगी इसलिए…..” आगे के शब्द उसके मुंह में ही रह गए।
एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके मुंह पर लग चुका था।
ज्योति के होठों के किनारे से भी खून निकल आया। आज उसने अपनी पूरी हिम्मत समेट कर कहा,”- आप मुझे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? मेरा अपराध क्या है? मुझसे अब और सहन नहीं होता।”
“-और सहन नहीं होता तो आज तुझे छुटकारा दे ही देता हूं! बदतमीज़ औरत! ज़ुबान लड़ाती है मुझसे! तेरी इतनी मजाल!” अजीत दांत पीसता हुआ आगे बढ़ा और झपटकर उसका गला पकड़ लिया।
ज्योति का दम घुटने लगा। वह छटपटाने लगी। लेकिन अजीत का शिकंजा कसता ही जा रहा था। तभी अचानक पीठ पर हुए ज़ोरदार वार से अजीत बिलबिला गया और झटके से उसने ज्योति का गला छोड़ दिया। उसने पलट कर देखा विमला देवी हाथों में डंडा लिए खड़ी थी।
“-मांँ आज तूने इस औरत के लिए मुझ पर हाथ उठाया?? अपने इकलौते बेटे पर??”
अजीत ने तड़प कर कहा।
“-मत कह अपनी गंदी ज़ुबान से अपने आप को मेरा बेटा! तेरी ममता में अंधी होकर मैं तेरी सारी गलतियों पर पर्दा डालती रही। यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी। मेरी इस गलती ने तुझे और भी निरंकुश बना दिया। यह बिन मां बाप की बच्ची मेरे घर बहू बनकर आई, मैं इसका भी मान नहीं रखा। लेकिन अब और नहीं। मुझे भी अपनी गलतियों का अनुभव हो चुका है ।और तू भी इसे अकेला मत समझ। मैं इसकी मांँ हूंँ। और मैंने पुलिस को भी फोन कर दिया है, पुलिस आती ही होगी।”
“-ये तू क्या कह रही है मां! मैं तेरा अपना बेटा हूंँ! ” अजीत ने गिड़गिड़ाते हुए स्वर में कहा।
“-हां, तू मेरा अपना बेटा है। परंतु यदि शरीर के किसी अंग में घाव बहुत बढ़ जाए ना तो उस अंग को ही काट कर फेंक दिया जाता है, अन्यथा वह पूरे शरीर को विषाक्त कर देता है। कभी-कभी सब कुछ सही करने के लिए कठोर कदम उठाना ही पड़ता है। पुलिस आ चुकी है और अब समय आ गया है कि तू अपने अपराधों का प्रायश्चित करे…” सिसकती हुई ज्योति को अपनी बाहों में समेटते हुए विमला देवी ने दृढ़ स्वर में कहा और एक किनारे हटकर पुलिस को अजीत तक पहुंचने का रास्ता दे दिया।
निभा राजीव”निर्वी”
स्वरचित और मौलिक रचना
मुंद्रा, गुजरात
#कठोर_कदम