एक गाँव के पास एक छोटा सा बाजार था। वहाँ एक चालाक व्यापारी, मोहन, हर हफ्ते नया बहाना बनाकर ग्राहकों को ठगता। कभी कोई मसाला लाता और कहता, “यह मसाला विदेश से आया है,” तो कभी “यह तेल जड़ी-बूटियों से बना है, जटिल रोगों का इलाज होता है इससे।” सीधेसादे लोग उसके झाँसे में आ जाते और ऊँचे दामों पर नकली सामान खरीद लेते।
एक दिन मोहन ने सोचा, “क्यों न मैं नकली शहद बनाकर ऊँचे दामों में बेचूँ–” उसने गुड़ और पानी को मिलाकर शहद जैसा तरल तैयार किया और उसे “पहाड़ी शहद” बताकर ग्रामीणों को बेचने लगा। गाँववालों को उसकी मीठी बातें सुनकर यकीन हो गया। पहले दिन उसके शहद की खूब बिक्री हुई।
लेकिन दो-तीन दिन बाद ही जब लोगों को समझ आया कि वो असली शहद नहीं है, उसने नकली शहद बेचा है हमें –तो वे गुस्से में भर उठे। एक बुजुर्ग राजाराम बोले, “काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती मोहन!– एक बार तो लोग धोखा खा गए, लेकिन अब नहीं — अब कोई तुम्हारा नकली समान नही खरीदेगा।”
अगले दिन बाजार में कोई भी मोहन की दुकान पर नहीं रुका। उसकी दुकान सूनी पड़ी रही। मोहन ने बहुत कोशिश की, सस्ते दाम लगाए, लेकिन भरोसा एक बार टूट गया तो अब भरोसा लौटना मुश्किल था।
अब मोहन को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने सोचा, “अगर मैं ईमानदारी से काम करता, तो आज मेरी दुकान यूँ वीरान न होती।”
छल-कपट से कोई अधिक समय तक नहीं टिकता। जैसे काठ की हाँडी आग पर बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती, वैसे ही धोखा देकर बार-बार लोगों का भरोसा नहीं जीता जा सकता।।
लेखिका: डॉ आभा माहेश्वरी अलीगढ