कशमकश – सुधा शर्मा : Moral Stories in Hindi

विभा का विवाह हुए अभी दो महीने ही हुए थे। वह अपने पति रोहन के साथ अपनी नई जिंदगी के हर पल को जीने और समझने में लगी थी। विवाह के तुरंत बाद ही सबकुछ नया-नया और खूबसूरत लग रहा था। लेकिन जिंदगी हमेशा सरल नहीं होती। शादी के दो महीने के अंदर ही रोहन को अपने ऑफिस के काम से अचानक अमेरिका जाना पड़ा।

रोहन की यह यात्रा कुछ महीने लंबी होने वाली थी। इस खबर से विभा को हल्का सा झटका लगा। न केवल वह अपने पति के साथ समय बिताने के लिए तरसती थी, बल्कि घर के कामकाज और सास-ससुर की देखभाल भी उसका जिम्मा था। विभा ने इस परिस्थिति में खुद को संभाल लिया और रोहन को उसकी यात्रा की तैयारी में मदद करने लगी।

जब रोहन के जाने का दिन आया, तो विभा ने उसे विदा करते समय दिल में एक अजीब-सी खलिश महसूस की। जैसे ही वह दरवाजे से बाहर निकला, उसे एहसास हुआ कि वह अब घर में अकेली रह जाएगी। सास-ससुर थे, लेकिन पति के बिना घर जैसे सूना-सूना लगने लगा। उसी दिन शाम को विभा के पिता का फोन आया। वह अपनी इकलौती बेटी को अकेला छोड़ने का विचार तक नहीं कर सकते थे। पिता ने कहा, “बेटी, रोहन के जाने के बाद तुम अकेली क्या करोगी? तुम्हारी माँ को भी चिंता हो रही है। तुम्हें लेने आ रहा हूँ।”

विभा के मन में कई सवाल उमड़ने लगे। वह चाहती थी कि अपने माता-पिता के साथ कुछ समय बिताए, खासकर इस स्थिति में जब उसका मन भारी था। पिता के प्यार भरे शब्दों ने उसे अपनी जिम्मेदारियों से थोड़ी राहत देने का वादा किया था। लेकिन वहीं, उसके मन में सास-ससुर का भी ख्याल था। उसकी सास की तबियत पिछले कुछ दिनों से खराब चल रही थी। वह बिस्तर पर ज्यादा वक्त बिताने लगी थीं, और घर के कामकाज की देखभाल करना विभा की जिम्मेदारी बन गई थी।

अगले दिन सुबह पिता उसे लेने आ गए। विभा ने उन्हें देखकर हल्का महसूस किया, लेकिन मन में एक कशमकश शुरू हो गई। वह अंदर कमरे में चली गई और अपनी सोच में डूब गई। एक तरफ उसका मायका था, जहाँ बचपन की खुशियां थीं और दूसरी तरफ ससुराल, जहाँ उसकी नई जिम्मेदारियां थीं। क्या वह अपने सास-ससुर को इस स्थिति में अकेला छोड़कर मायके जा सकती है? क्या यह सही होगा?

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सास ने उसे प्यार से पुकारा और कहा, “बेटा, तुम्हारे पिता इतनी दूर से आए हैं। तुम चली जाओ। मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं ठीक हो जाऊंगी।”

ससुर ने भी कहा, “बेटा, चिंता मत करो। मैं तुम्हारी सास का पूरा ध्यान रखूंगा। तुम जाओ।”

विभा के मन में फिर एक द्वंद्व शुरू हो गया। सास-ससुर का इतना प्यार और भरोसा उसे झकझोर रहा था। वह जानती थी कि वे उसके लिए कितना करते हैं, और वह उन्हें इस हालत में छोड़कर जाने का विचार भी नहीं कर सकती थी।

अंदर कमरे में जाकर उसने अपने मन की कशमकश को खत्म करने का निश्चय कर लिया। जब वह बाहर आई, तो उसके पिता ने मुस्कराते हुए पूछा, “तैयारी कर ली? सुबह जल्दी निकलना होगा, सफर लंबा है।”

विभा ने गहरी सांस ली और अपनी बात स्पष्ट कर दी, “पापा, आप चले जाइए। मैं आपके साथ नहीं जा सकती।”

पिता को यह सुनकर झटका लगा। उन्होंने पूछा, “क्यों, सब तो तुम्हें भेजने के लिए तैयार हैं? तुम रोहन से पूछ लो।”

विभा ने दृढ़ता से कहा, “उनसे पूछने की जरूरत नहीं है, पापा। वह कहेंगे तब भी मैं नहीं जाऊंगी। आपको बार-बार आने की जरूरत नहीं है। मैं यहीं रहूंगी, जब तक वे लौटकर नहीं आते।”

सास ने कुछ कहना चाहा, “पर बेटा…”

बीच में ही विभा ने उनकी बात काटते हुए कहा, “नहीं, माँ। आप मुझसे जाने को मत कहिए। मैं यह बात नहीं मान सकती। मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊंगी। मेरा यहाँ खूब मन लगता है। पापा, माँ को कहिए कि बिल्कुल चिंता न करें।”

विभा की दृढ़ता और उसके चेहरे पर आत्मविश्वास ने सबको चुप करा दिया। सास-ससुर की आँखों में उसके लिए अपार प्यार और गर्व झलकने लगा। पिता ने भी उसे गले से लगा लिया और कहा, “बेटा, मैं तुम पर गर्व करता हूँ। तुम्हारा निर्णय सही है।”

इस निर्णय के बाद विभा ने अपने सास-ससुर की देखभाल में और भी ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसकी सास की तबियत में सुधार होने लगा। परिवार के हर सदस्य को यह एहसास हो गया था कि विभा सिर्फ एक बहू नहीं, बल्कि इस घर की असली रौनक है। उसका प्रेम और समर्पण सबके लिए मिसाल बन गया।

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विभा के इस निर्णय ने रिश्तों में मजबूती ला दी और उसे हर किसी का स्नेह और सम्मान मिला। उसकी सास ने एक दिन कहा, “बेटा, तुमने साबित कर दिया कि एक बहू भी बेटी से कम नहीं होती। तुमने हमारे परिवार को और भी खास बना दिया।”

विभा मुस्कुराई और अपनी सास के गले लग गई। यह उसकी जीत थी, एक ऐसी जीत जो रिश्तों की मिठास और जिम्मेदारी के साथ आई थी।

मौलिक स्वरचित 

सुधा शर्मा

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