कर्ज

कामिनी पूरे घर में निर्देश देती घूम रही थी, जैसे कोई आयोजन हो। पर यह आयोजन नहीं, विदाई की तैयारी थी—उस व्यक्ति की, जिसने कभी इस घर को अपने कंधों पर खड़ा किया था।

“पिता जी से कह दो, अंदर वाले कमरे में चले जाएँ, कुछ लोग मिलने आने वाले हैं।”
कामिनी ने नौकर को आदेश दिया। उसकी आवाज़ में अधिकार था, सम्मान नहीं।

नौकर कुछ कहना चाहता था, पर तभी कॉल बेल बजी और वह चुपचाप गेट की ओर बढ़ गया। बाहर रंजन के बचपन के दो दोस्त खड़े थे—विशाल और संदीप। वे अंदर आए तो सीधे ड्राइंग रूम में बैठे एक वृद्ध पुरुष की ओर दौड़ पड़े।

“अरे पिता जी, आप…!”
विशाल ने झुककर चरण स्पर्श किए।

पिता जी ने चश्मा उतारा, झुर्रियों से भरा चेहरा कुछ क्षणों के लिए थम सा गया, फिर एक पहचान की हल्की मुस्कान आई—
“अरे! तू तो विशाल है, भरोषी का बेटा… अब पहचान गया बेटा। कहाँ है तेरा बाबू जी?”

“वो मेरे पास ही रहते हैं। आपके साथ उनका खूब याराना था, आपको देखकर बहुत खुश होंगे। चलिए न, उनसे मिलवाने ले चलूँ?” विशाल ने उत्साहित होकर कहा।

पिता जी मुस्कुराए, पर उनकी मुस्कान में एक सन्नाटा था—”अब तो मैं जा रहा हूँ बेटा।”

उनकी यह बात सुनकर विशाल चौंका। तब तक कामिनी अंदर से निकल आई—
“पिता जी, आप अंदर चले जाइए। आपका सामान लगवा दिया है। देख लीजिए कुछ रह तो नहीं गया।”

पिता जी बहू का आदेश मानकर चुपचाप उठे और अंदर चले गए।

कामिनी ने सिर हिलाकर कहा, “पिता जी को कुछ सुनाई नहीं देता अब। बुढ़ापे में कुछ भी बकते रहते हैं। आज इन्हें गाँव भेज रहे हैं।”

विशाल स्तब्ध रह गया।

“भाभीजी… बुढ़ापा तो हर किसी का आता है। इन्हें अपने पास रखिए। आपके ससुर साहब की वजह से ही मैं आज यहाँ हूँ। उन्होंने मेरे बाबूजी को समझाया, तभी मैं पढ़ सका। मेरी फीस तक भर दिया करते थे कभी-कभी।”

उसी समय रंजन कमरे में आया, वह थोड़ी झेंपता हुआ दिखा।

“हाँ यार, मैं भी यही चाहता हूँ कि पिता जी यहीं रहें, लेकिन कामिनी की उनसे एक मिनट भी नहीं पटती। रोज झगड़ा, शिकायतें…”

विशाल ने एक पल रुककर कुछ सोचते हुए कहा, “रंजन, अगर तुम इजाज़त दो तो मैं इन्हें अपने साथ ले जाऊं। मेरे बाबूजी भी खुश होंगे, और मुझे भी सच्चा सुकून मिलेगा। मुझे याद है, जब मेरे पिता बेरोजगार थे और माँ बीमार, तब तुम्हारे पिता ने मेरी स्कूल फीस दी थी… मेरा भविष्य गढ़ा था उन्होंने। उस एहसान का कोई मोल नहीं चुका सकता मैं।”

कामिनी कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन शब्द नहीं निकले। रंजन की आँखें भीग गईं। वह अपने बचपन की गलियों में चला गया—पिता के साथ साइकिल पर स्कूल जाना, परीक्षा के बाद मिठाई खाना, छुट्टियों में खेतों की सैर, पिता की हथेली की गर्माहट… सब कुछ जैसे एक झटके में सामने आ गया।

“विशाल… मैं तुम्हारा ये प्रस्ताव मना नहीं कर सकता… लेकिन शर्म आ रही है खुद से… एक बेटा होकर मैं अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर सका।”

विशाल ने रंजन का कंधा थामा, “नहीं भाई, देर से सही, पर जाग गए हो। कम से कम अब से पछताओ मत। उन्हें वापस ले आना जब तुम्हें लगे कि अब तुमने सेवा करनी सीखी है।”

अंदर कमरे में बैठा पिता जी, ट्रंक के पास शांत बैठे थे। उन्होंने अपना कुर्ता ध्यान से तह कर रखा था। जैसे जाने की पूरी तैयारी थी। उनकी आँखें सूनी थीं, जैसे सब कुछ देख और समझ रही थीं—बेटे की मजबूरी, बहू की बेरुखी, दुनिया की तेजी से बदलती चाल।

कुछ ही देर में विशाल, पिता जी को लेकर रवाना हो गया। विदाई की उस घड़ी में, कोई आँसू नहीं बहा, कोई औपचारिकता नहीं निभी, सिर्फ एक गहरी चुप्पी थी, जो दीवारों में दर्ज हो गई।


समय बीतता गया…

कुछ महीनों बाद रंजन अकेले गाँव आया। विशाल का घर अब पिता जी के ठहाकों से गूंजता था। वे विशाल के बच्चों को कहानियाँ सुनाते, उसके पिता के साथ चौपाल पर बैठते, और हर त्योहार में पकवान बनवाते।

रंजन के हाथ में एक पत्र था—पिता जी का लिखा हुआ। जिसमें उन्होंने कहा था—
“बेटा, तू जब भी खुद को तैयार समझे, वापस आ जाना। मैं तुझसे गिला नहीं रखता। मैं तो बस चाहता हूँ कि जिस दिन तू सेवा करे, वो सच्चे मन से करे। तब मेरे लिए हर दिन अमावस में भी पूर्णिमा होगा।”

रंजन की आँखें नम थीं… वह अब लौटने को तैयार था—नए बेटे की तरह, सेवा के भाव से, श्रद्धा के साथ।

 
दोस्तों  बुजुर्ग बोझ नहीं होते, वे वो नींव होते हैं जिस पर हर पीढ़ी की इमारत खड़ी होती है। अगर वे साथ हैं तो भाग्य है, अगर हम उन्हें समझ लें तो वह सौभाग्य है।

विमलभारतीय ‘शुक्ल’

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