कलंक – अनिल कुमार.   : Moral Stories in Hindi

“सोहमजी…मम्मीजी…..बचाईए….”

ममता की दर्दभरी पुकार सुनकर सोहम और वृंदाजी,दोनो आवाज की दिशा मे भागे। आवाज वृंदाजी के कमरेसे आ रही थी। दोनो जब दरवाजेके नजदीक आए तब उन्हे महसुस हुआ की दरवाजा अंदर से बंद है। सोहम बिना समय गवाये दरवाजेको धक्का देने लगा। ममता की आवाज सुनकर आसपडोस वाले भी जमा हो गये। कुछ नौजवान आगे बढकर सोहम की मदत करने लगे। घबराई हुई वृंदाजी को पडोस की रामदुलारी चाची ने शांत किया।

जैसे ही दरवाजा टुटा सब एकदम से चौंक गये। सामने फटे हुए कपडोंमे अरविंदजी से झुंझती ममता दिखाई दे रही थी। शरीर पर जगह जगह नोचने के निशान एवंम फटे हुए कपडे उसकी आपबिती बया कर रहे थे।

अपने सामने सोहम को देखकर रोती बिलखती ममता सोहम से आके लिपट गई। रामदुलारी काकी ने झट से अपनी शॉल ममता के शरीर पर डाल दी। 

“सोहमजी, देखिये पापाजी जी ने मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की। में सुबह उनका नाश्ता उनके कमरेमे लेके आई तो उन्होने मेरा हाथ पकडकर न जाने क्या क्या बाते कहीं। जब में बाहर जाने लगी तो उन्होंने दरवाजा बंद करके मुझसे जबरदस्ती करने की कोशिश की। ” ममता फुटफुटकर रोने लगी।

“पापा,ये आपने क्या किया..? अपनी बेटीस्वरूप बहु पे कुदृष्टी डालने की आप की हिम्मत कैसे हुई..?” क्रोध से तिलमीला उठे सोहम ने सीधा अरविंद जी का गिरेबान पकडते हुए बोला।

“पर…बेटा.. में.. तो..” लडखडाती जबान में अरविंदजी ने कुछ बोलने की कोशिश की।

“चुप रहीए पापा.. बिल्कुल चुप रहिये। एक बाप अपने बहु बेटे की जिंदगी सँवारने के लिये क्या नहीं करते..? और आप..? कैसे बाप हो आप..? आप को तो पापा  बोलने में भी शरम आ रही हैं। जी करता हैं की,….” अपने हाथ की मुट्ठीयाँ कसते हुए सोहम ने कहा..ऐसा लग रहा था मानो किसी भी समय सोहम अरविंदजी को मार सकता हैं।

“अरे में तो पहलेसेही कह रही थी की आपके पापा की नजर कुछ ठीक नहीं। आये दिन बस मुझे ताडतेही रहते थे। कुछ भी बहाना करके बस छुने की कोशिश करते रहते थे। कितनी बार कहा, की इनसे अलग रहते हैं पर मेरी बात तो आप नही मानते थे। बडे श्रवणकुमार बन रहे थे अब देखिये अपने बाप की करतुत।”

झल्लाकर ममता बोली।

“तु ठीक कह रही थी ममता, देर आये दुरुस्त आये, तब ना सही आज, इसी वक्त हम यह घर छोडकर चले जाते हैं। जहाँ मेरी पत्नी सुरक्षित नहीं ऐसे घर में रुककर भी क्या लाभ? बहु बेटियाँ सुरक्षित ना हो वह क्या घर होता हैं? चलो, अभी, इसी वक्त हम यह घर छोडकर चले जाते हैं।” ममता का हाथ कसके पकडते हुए सोहम बोला।

इतनी देर स्तब्ध बनी हुई वृंदाजी होश में आई और अपने बेटे से रोते रोते मनुहार करने लगी।

“नहीं बेटा, तुम हमे छोडके नहीं जा सकते। बुढापे मे तो बेटा ही माँ बाप का सहारा होता हैं। क्या इसी दिन के लिए तुझे पालपोसकर बडा किया था..? शायद बहु को कुछ गलतफहमी हुई हो। तु तो बचपन से ही अपने पिता को जानता हैं। उनके जैसा धर्मपरायन…””

“हुं…..लो सुनो, धर्मपरायन…. अरे धर्मपरायन क्या ऐसे होते हैं.? यह तो केवल ढोंग हैं ढोंग..अब सिधे रास्ते बाजु हट जाइए, नहीं तो मुझे मजबुरन पुलिस को बुलाना पडेगा। और अगर पुलिस आ गई तो परिणाम आप जानती ही हैं..” ममता के कडवे बोल सुनकर वृंदा जी बाजु हट गई। ममता और सोहम घर से निकल गये।

अब घर मे जो आसपडोसवाले उपस्थित थे उनको इस बात का अंदाजा हो गया था की  यहाँ हुआ क्या हैं। 

“राम..राम.. राम, क्या कलयुग आया हैं.? अब बहु बेटी घर मे सुरक्षित नहीं, बेचारी जाये तो कहाँ जाये..? भुखे भेडिये बाहर ही नहीं घर के अंदर भी घुमते हैं। में तो कितनी बार अपनी नातीन को इनके घर छोडकर गयी थी। अब तो भरोसेका जमाना ही नहीं रहा..” मिश्राईन की जुबान से कडवाहट उगल रही थी।

“चुप हो जा सरू की माँ, और चल यहाँ से.” मिश्रा जी लगभग अपनी धर्मपत्नी को खिंचते हुए लेके गए।

 आसपडोसवाले तरह तरह की बाते बनाके वहा से चल दिए। बेड पर बैठे अरविंद जी अपनी आँखो से आँसु बहाए जा रहे थे वही दुसरी और वृंदाजी अपना माथा पटक पटक के फुटफुटकर रोए जा रही थी। अरविंदजी ने जैसे उन्हे रोकने की कोशिश की, वृंदाजी गुस्सेसे तीलमीला उठी।

“मत छुइए मुझे अपने इन पापी हाथोसे..अरे बहु तो बेटीसमान होती हैं और आप ने अपनी ही बहु के साथ….” विलाप करती वृंदा जी के मुँह से अब शब्द भी नहीं निकल रहे थे।

“चुप हो जा वृंदा, चुप हो जा..तुमने ऐसा सोच भी कैसे लिया की में ममता के साथ कोई कुकर्म करनेकी कोशिश भी करुंगा। अरे वह तो मेरी बेटी जैसी हैं। मेंने तो बस उससे कहा था की, बेटा मेरी तबियत ठीक नहीं तो में चाय और नास्ता मेरे कमरेमेही करुंगा। जैसे वह अंदर आई उसने खुद अपने हाथोसे दरवाजा बंद किया और जोरजोरसे चिल्लाने लगी। खुदके कपडे भी उसने स्वयंम फाडे। मैंने रोकने की बहुत कोशिश की पर उसने मुझे धक्का देकर निचे गिरा दिया।”

“और वह नाखुन के निशान..? जो उसके शरीर पे थे..?” अचरज में पडी वृंदाजी ने आँसु पोछते हुए अरविंदजी से कहा।

“वह तो उसने खुद अपनेही हाथो से किए हुए थे। मेरा यकीन मानो वृंदा, में तुम्हारी और सोहम की कसम खा के कहता हुँ की, मैंने बहु के साथ कोई जबरदस्ती नहीं की..” अपना एक हाथ वृंदाजी के माथे पर रखकर अरविंदजी ने कहा।

अचरज में पडी वृंदाजी जोर जोरसे विलाप करने लगी। अपना सीना जोर जोर से पिटने लगी मानो पिटपिटकर अपने सिनेसे दिल ही निकाल देंगी।

“बस करो वृंदा, अपने आप को मार डालोगी क्या..? मरना तो मुझे चाहीए, जो अपनेही बहु बेटे की नजरोंसे गिर गया..।”

“नहीं सोहम के पापा, यह तो मेरे पश्चाताप की अग्नी हैं जिसमे मुझे खुद ही जलना होगा। आखिर नियती ने अपना हिसाब कर ही दिया…कर ही दिया..” वृंदा जी फफक पडी।

“कैसा पच्छाताप..? कैसा हिसाब…? वृंदा साफसाफ कहो की आखिर बात क्या हैं..” वृंदा जी के दोनो हाथ पकडके अरविंद जी जोर जोर से चिल्ला रहे थे।

“सोहम के पापा, आपको याद हैं, आजसे तीस साल पहले हमारी शादी हुई थी और में आपकी संग माधवपुर में आई थी..”

“कैसे भुल सकता हुं में वृंदा, अग्नी को साक्षी मानकर मैने खुद तुम्हारा हाथ थामा था। बडे ही धुमधाम से तुम्हे लेकर माधवपुर आया था। अम्मा बापु तो खुशी के मारे फुलें नहीं समा रहे थे.।” बिती बातों मे खोते हुए अरविंद जी बोले।

“पर में अभागन अम्मा बापु का दुलार ना समझ सकी। लखनौ मे पली बढि में भला माधवपुर जैसे गाँव में कैसे रहती..? आप को लाख समझाया, गाँव में क्या रखा हैं..? पर आप टस से मस ना हुए और गाँव में रहनेका फैसला कर के मुक्त हो गए। पर मुझे तो अलग ही रहना था क्युँकी दोनोंकी जिम्मेदारी मेरे ही गले आके पडती। उनका खाना, नहाना, धोना मेरे ही गले आके पडता। उनके मालिन कपडे देखके मुझे तो घीन आती थी। इसलीए मैंने माँ के कहने पर झुठा नाटक करके बापु पर मुझपे जबरदस्ती करनेका झुठा लाँझन लगाया ताकी आप उनसे अलग हो.।” अपनी नजरे अरविंदजी से चुराते हुए सहमी आवाज में वृंदाजी बोल पडी।

अरविंदजी के लिये यह सब कुछ सदमेसे कम नहीं था। वह अपनी सुद खो बैठे। बेहोश पडे अरविंदजी पे जैसे हि वृंदाजी ने पाणी छिटका, वैसें ही उन्हे होश आ गया और आगबबुला होकर उन्होंने वृंदाजी का गला जोर से पकड लिया।

“कुलक्षिणी, षडयंत्री यह क्या किया तुमने..?? मेरे भगवानस्वरूप पिता पे ऐसा झुठा कलंक लगानेसे पहले तुझे डर नहीं लगा..??” अपने हाथ और ताकत से कसते हुए अरविंदजी बोले।

“मार डालीए मुझे, मार डालीए..मेरे किये की यही सजा हैं.” लडखडाती जबान में वृंदाजी बोल पडी।

सज्जन अरविंदजी के हाथोंमे शायद इतना दम न था जो दुसरोंकी जान ले सके। उनकी पकड ढिली हो गई। जमीन पर बैठकर अपना माथा पकडके वह जोरजोरसे रोने लगे। वृंदाजी उनके पास आई और उनका हाथ अपने हाथो में लेके बोली,

“सोहम के पापा, चलीए, हम अभी फौरन माधवपुर जाते हैं। में वहा जाकर खुद अम्मा बापु के पैर पकडके माफी माँगुंगी। मेरी करणी माफ करणे के लायक तो नहीं हैं पर मुझे यकीन हैं अम्मा बापु हमे माफ कर देंगे।”

“किस मुँह से जाउ उनके पास वृंदा..? आज तीस बरस हो गये ना तो मैंने उनकी कुछ खबर ली और नाही उन्होंने हमसे संपर्क करने की कोशिश की। अपने इन्ही हाथोंसे मेंने अपने बापु को तमाचा जडा दिया था अब कैसे उनका सामना करुँगा..?तब वह कैसा महसुस कर रहे होंगे यह में आज समझ रहा हुँ। उस दिन तुमने मेरे बापु पे कलंक लगाया था और आज ममता बहु मेरे चेहरे पे इस कलंक की काली स्याही पोछके चली गई। उस दिन एक बेटे ने अपने बाप का गिरेबान पकडा था और आज एक बेटे ने भी अपने बाप का गिरेबान पकडा। यही नियती है वृंदा। जो बीज तुने बोया था यह उसीका फल हैं.।” अपना चेहरा दोनो हथेली में छुपाए अरविंदजी सिसकियाँ भरने लगे।

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गाडीने माधवपुर का रास्ता पकड लिया। अरविंदजी युँ बैठे खिडकीसे बाहर देख रहें थे। पास मे बैठी वृंदाजी उनकी मनस्थिती भलीभाती जानती थी। बडी मिन्नते करने के बाद अरविंदजी माधवपुर जाने के लिए तयार हुए थे। शायद अपने अम्मा बापु से आँख मिलानेकी हिम्मत उनमे न थी। गाडी माधवपुर आ गई। तीस साल में बहुत कुछ बदल गया था। पक्की सडके, पक्की मकान सब दिल को भा रही थी। माधवपुर की  गलियाँ अब अरविंदजी को अनजानिसी लग रही थी पर गलियाँ अरविंदजी को न भुली थी। ऐसा लग रहा था मानो राह देख रही हो..न जाने कबसे..

गाडी एक मिट्टी के मकान के सामने आके रुकी। झट से अरविंदजी निचे उतरे और जोरसे आवाज लगाई,

“अम्मा…..अरी ओ अम्मा..”

“कौन हैं…??? ” की आवाज गुँजी और पिछे पिछे कमर मे झुकी हुई अस्सी साल की अम्मा हाथ में लाठी पकडे चली आई। अम्मा बहुत ही कमजोर दिख रही थी। पुरानीसी साडी न जाने कहाँ कहाँ फटी हुई थी। सफेद बाल चांदी की तरह चमक रहे थे। कानो के बीच में तुटा हुआ ऐनक, जो दोर के सहारे अम्मा ने पिछे बांधा था, अपनी हालात बिना पुछे ही बता रहा था। मुँह में एक दात भी ना बचा था। पर चेहरे पे वही ममता दिख रही थी। आधा मकान तो गिर गया था। बाकी आधा गिरनेकीं कगार पे था।

“अम्मा, पहचाना..?” अबोध बालकसी उत्सुकता दिखाते अरविंदजी ने पुछा।

“कौन हो बेटा..? सचमे ना पहचाना। जबसे यह ऐनक टुटा हैं तबसे सबकुछ धुँधलासा ही दिखाई देता हैं।” अपना ऐनक साडी से साफ करते हुए अम्मा बोली।

“अम्मा, में अरविंद.. तुम्हारा अरविंद.. पहचाना.?” आँखो में आँसु लिए अरविंदजी अपनी माँ से बिलग गए।

“कौन..? अरविंद..? मेरा बेटा, मेरा बच्चा..कहाँ था तु बेटा इतने दिन.? कितनी राह देखी तेरी..भुल गया अपनी अम्मा को..?” अरविंदजी के चेहरे को चुमते हुए अम्मा रो पडी।

” ना अम्मा..पर गलतफहमी का परदा इस कदर आँखो पे था की मानो में अंधा हो गया था। पर अब सब मनमुटाव धुल गया हैं। देखो तो अम्मा, कौन आया हैं.? तुम्हारी बहु, वृंदा।”

वृंदाजी झट से आगे आई और अम्मा के पैर छुए।

“जुग जुग जी मेरी बच्ची.. जुग जुग जी.।” वृंदाजी की बलैय्याँ लेते हुए अम्माने आशीर्वाद दिया।

“अम्मा, में इस प्यार दुलार के लायक नहीं। में तुम्हारे और बापु के प्यार को समझ ना सकी अम्मा..अपने पितासमान ससुर पे न जाने मेंने क्या क्या आरोप लगाए। उनकी कितनी अवहेलना की। एक कलंक जो मैंने बापु पे लगाया आज वही कलंक मेरे पती के माथे लग गया अम्मा..” जोरजोरसे रोते हुए वृंदाजी अम्मा से माफी मांगणे लगी।

अम्मा विषण्ण सी मुस्कुराई।

“बहु, पता है तुझे ? अरविंद के जनम के बाद उसके बापु मुझसे क्या कहते थे..?? “अरविंद की अम्मा, देखो इस बार तो लडका हुआ पर अगली बार मुझे लडकीही चाहीए। नहीं तो सिधा तुझे तेरे मायके छोड आऊगाँ।”

” धत्…अरविंद के बापु, यह तो मेरे हाथ में नहीं। भगवान की मर्जी हो तो बेटी भी मिल जाएगी।”

रोज हमारी मिठी नोकझोंक होती रहती। समय बितता गया। अरविंद के जनम के बाद मेरी गोद फिर ना भरी। अपने पती की इच्छा में पुरी ना कर सकी। चुपकेसे रोते हुए एक दिन उन्होंने मुझे देख लिया।

“अरविंद की अम्मा, क्या हुआ.? क्यु रोए जा रही हो.? तबियत तो ठीक हैं ना..?”

अपने पती की बात सुनकर में उनके सिने से लगकर और जोरजोरसे रोने लगी।

“आपकी इच्छा पुरी ना कर सकी अरविंद के बापु…आपको बेटी ना दे सकी..”

अरविंद के बापु मुस्कुराए और बोले,

“अरी पगली, इसमे रोने वाली कौनसी बात हैं..? भगवान एक रास्ता बंद करता हैं तो दुजा खुलवा भी देता हैं। बेटी ना हुई तो क्या हुआ हम अपनी बहुको ही अपनी बेटी बनायेंगे।”

“सच में..? क्या बहु बेटी बन सकती हैं अरविंद के बापु.?”

“क्यु नहीं बन सकती.? अगर अपना स्नेह माँ बाप जैसा हो तो अवश्य बन सकती हैं”।

वृंदाजी सिसक पडी।

“जब अरविंद का ब्याह हुआ तो मुझसे बोले…अरविंद की अम्मा,हम बहु नही बिटीया लाए हैं। बहु के लिए खुद लखनौ जाके जेवर बनवाके लाए।” 

“अम्मा, मुझे बस आप लोगोसे अलग रहना था। पर में नासमझ इतना ना समझ सकी की परिवार टुटने से नहीं जुडनेसे बनता हैं.।”

“बिटीया, अगर तु हमसे बात करती तो हम जरूर तुझे अलग शहर रहने देते। थोडा दुख जरूर होता पर बच्चोंकी खुशी में ही माँ बाप की खुशी होती हैं।” वृंदाजी के माथे पर प्यार से हाथ फेरते हुए अम्मा बोली।

इतनी देर शांत बैठे अरविंदजी को कुछ याद आया।

“अम्मा,बापु कहाँ हैं.? उनके पैर पकडके मुझे उनसे क्षमा माँगनी हैं।अपने पापोंका प्रायश्चित्त लेना हैं।”

अम्मा के चेहरे पे मायुसीभरी मुस्कान आई।

“बेटा, नियती हमारे सभी कर्मोका हिसाब रखती हैं। कल जहाँ तेरे बापु खडे थे आज वही तु खडा हैं। जब निम का पेड लगाया तो आम कैसे आयेंगे..? अपमान का बोझ इकबार तो मनुष्य सहन कर भी ले पर कलंक का बोझ उठाये ना उठता हैं। तुने घर छोडने के बाद तेरे बापु ने बिस्तर पकड लिया। कितना इलाज किया पर जिस इंसान की जिने की इच्छा की खतम हो गई हो उसे दवा क्या काम आएगी। तेरे बापु स्वर्ग सिधार गये। पर जानेसे पहले मुझे क्या कह गये जानते हो..?

बोले, अरविंद की अम्मा, जब भी बहु और अरविंद आये तब उनपर रुष्ट ना रहना। बच्चे हैं, नादानी में भुल तो होती ही रहती हैं। पर माँ बाप का तो कर्तव्य हैं बच्चोको समझा बुझाके सही मार्ग दिखाना। उन्होंने तो तुम दोनोंको कब का माफ कर दिया था। माँ बाप अपने बच्चोंको हमेशा आशीर्वाद ही देते हैं पर बच्चोंका भी कर्तव्य बनता हैं की, बिना कोई बात जाने,

परखने किसी निष्कर्ष पे ना पहुंचे। अरे, मैं भी क्या पुरानी बाते लेकर बैठ गई। मेरा बेटा कितने दिनो बाद घर आया हैं और आज न जाने कितने दिनो के बाद यह गलतफहमी के बादल हटे हैं। आज तो में अपने बेटे को उसकी पसंद का सुजी का हलवा खिलाऊंगी.।” अपने आंसु पोछते हुए अम्मा बोली और बिना दोनो की बात सुने अपनी लाठी लेके धीमे धीमे बनिये की दुकान की ओर चल दी।

अरविंदजी और वृंदाजी बस अम्माको देखते ही रह गये अपनी आँसु भरी धुँधली नजर से…।

मकान भले ही गिर रहा हो पर रिश्तोंकी नींव और मजबुत हो रही थी….।

अनिल कुमार.

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