एक गांव के किनारे पर, पीपल और नीम के साए में एक पुराना घर था। वह घर केवल दीवारों का ढांचा नहीं था, बल्कि एक इतिहास था। मिट्टी की दीवारों में पुरखों की मेहनत की खुशबू थी, बरामदे की खाटों पर हंसी और यादों के निशान थे। सुबह की चाय, शाम की गपशप और त्योहारों की रौनक सब कुछ उसी आंगन में बसता था।
उस घर का मुखिया चौधरी हरनारायण था। उम्र ने उसके बाल सफेद कर दिए थे, पर मन अब भी अपने परिवार की एकता पर गर्व करता था। उसके दो बेटे थे, रामकिशन और मोहनलाल। बड़ा बेटा रामकिशन स्वभाव से थोड़ा हठी था, पर मेहनती और व्यवहारकुशल भी। छोटा बेटा मोहनलाल शांत और विचारशील था, जो हर विवाद से दूरी बनाकर चलता था।
घर में सब कुछ ठीक चल रहा था, पर धीरे-धीरे हवा में बदलाव आने लगा। पहले रसोई में बातें शुरू हुईं कि किसके हिस्से में कितना दूध गया, फिर खेत की मेड़ों पर चर्चा होने लगी कि किसकी जमीन पर ज्यादा फसल है। बच्चों के झगड़े भी अब बहनों के बीच के प्रेम को फीका करने लगे थे। धीरे-धीरे मन में एक अदृश्य दीवार उठने लगी।
एक दिन छोटी सी बात पर दोनों भाइयों में झगड़ा हो गया। रामकिशन ने कहा, “अब और नहीं, घर बांट लो। मैं अपने हिस्से की जमीन अलग कर लूंगा।” मोहनलाल ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “भाई, जमीन तो बांट लोगे, पर दिल कैसे बांटोगे?” रामकिशन ने कठोरता से कहा, “दिल का क्या? जब रसोई अलग, खर्च अलग, तो दिल भी अलग ही समझो।”
हरनारायण चुपचाप सब सुनता रहा। उसने बहुत समझाया, “बेटा, खेत में बाड़ लगाकर अनाज नहीं बांटा जाता, मेहनत से बांटा जाता है। जिस दिन घर की दीवारें मन से ऊंची हो जाती हैं, उस दिन घर नहीं बचता, सिर्फ मकान रह जाता है।” पर किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया।
कुछ ही दिनों में आंगन के बीच एक दीवार उठ गई। नीम का पेड़ अब दोनों हिस्सों में बंट गया था। आधी छांव इधर, आधी उधर। त्योहार भी दो हिस्सों में बंट गए। एक ओर ढोलक बजती, दूसरी ओर सन्नाटा छा जाता। घर अब केवल नाम का एक घर था, बाकी सब रिश्ते खोखले हो चुके थे।
वक्त बीतता गया। हरनारायण अब बूढ़ा और कमजोर हो चुका था। एक दिन अचानक उसकी तबीयत बिगड़ गई। दोनों बेटे पास बैठे थे, पर बीच में वही दीवार थी। बूढ़े ने थरथराती आवाज़ में कहा, “तुम दोनों को पता है, मैंने नीम का पेड़ क्यों लगाया था?” मोहन ने धीरे से कहा, “छांव के लिए, बाबूजी।” हरनारायण मुस्कराया, “नहीं बेटा, नीम कड़वा होता है ताकि मिठास की कीमत समझ आ सके। नीम छांव देता है, दवा देता है, पर कभी जहर नहीं बनता। तुम दोनों ने इस नीम को जहर बना दिया है।”
इतना कहकर उसकी आंखें बंद हो गईं।
अगले दिन पूरा गांव इकट्ठा था। अब प्रश्न यह उठा कि अर्थी किस तरफ से निकलेगी। दीवार बीच में थी। कुछ देर की चुप्पी के बाद रामकिशन उठा। उसने दीवार की एक ईंट तोड़ी, फिर दूसरी, फिर तीसरी। कुछ ही देर में दीवार गिर गई। उसने कहा, “अब बापू उसी रास्ते से जाएंगे, जिससे पहले जाया करते थे।” मोहन की आंखों से आंसू बह निकले। उसने कहा, “भाई, दीवार तो तोड़ दी, अब मन की दीवारें भी तोड़ दो।”
उस रात दोनों भाई नीम के नीचे बैठे रहे। हवा में नीम की पत्तियां झूम रही थीं, जैसे साक्षी बनकर देख रही हों कि घर फिर एक हो गया है। रामकिशन ने धीमे स्वर में कहा, “भाई, दीवारें बनाना आसान है, पर रिश्ते जोड़ने में पूरी जिंदगी लग जाती है।” मोहन बोला, “शायद यही बात बाबूजी हमें सिखाना चाहते थे।”
सुबह जब सूरज उगा, तो नीम की शाखों पर बच्चे खेल रहे थे। दोनों बहुओं की हंसी फिर से आंगन में गूंज रही थी। गायें दोनों ओर बंधी थीं, पर अब कोई झगड़ा नहीं था।
हरनारायण तो चला गया, पर उसका घर फिर से बस गया। नीम के तने पर अब दोनों भाइयों ने एक पट्टिका लगाई थी, जिस पर लिखा था – यह नीम अब हमारे रिश्तों का साक्षी है।
क्योंकि,
कलह कभी जीत नहीं होती। वह केवल रिश्तों की चुप मृत्यु होती है।
जो लोग अपने अहंकार के लिए दीवारें खड़ी करते हैं, वे भूल जाते हैं कि घरों की नींव प्रेम से बनती है, जमीन से नहीं।
लेखक — टीआर. राहुल कुमार ‘मंदोला’
लेखक एवं पत्रकार
रेवाड़ी (हरियाणा) – 123103