कलह – सुदर्शन सचदेवा 

ज़िंदगी बाहर से बहुत खुशहाल लगती थी। बड़ी नौकरी, सुंदर घर, कार, और आधुनिक सुविधाएँ — सब कुछ था। लेकिन इन सबके बीच एक ऐसी चीज़ थी जो धीरे-धीरे उनके घर की दीवारों को खोखला कर रही थी — कलह।

हर सुबह आवाज़ों का संग्राम शुरू हो जाता —

“तुमने फिर देर कर दी!”

“बच्चों की देखभाल सिर्फ मेरी जिम्मेदारी है क्या?”

“माँ हर बात में टोकती रहती हैं!”

और धीरे-धीरे, इस शोर में प्यार, आदर और अपनापन की आवाज़ें दबने लगीं।

बेटा देवेश, जो बारहवीं में था, अब अक्सर कमरे में बंद रहता। माँ संगीता अपने मोबाइल और सोशल मीडिया में सुकून ढूंढती, जबकि पिता राकेश काम के बहाने देर रात तक ऑफिस में रहते।

घर में मौजूद दादी, जिनकी आँखों में पहले मुस्कान झिलमिलाती थी, अब सिर्फ मौन की झील में बैठी थीं।

एक दिन, अचानक दादी की तबियत बिगड़ गई। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। सब भाग-दौड़ में जुट गए, पर इस दौड़ में कोई बात नहीं कर रहा था। बस औपचारिकता थी — “रिपोर्ट आ गई?” “दवा ले ली?”

दादी बेहोश थीं, लेकिन चेहरे पर शांति थी — जैसे वो सब कुछ देख-सुन रही हों।

अगले दिन डॉक्टर ने कहा, “अब वक्त ज़्यादा नहीं बचा है। अगर कुछ कहना है तो कह लीजिए।”

ये सुनकर घर में सन्नाटा छा गया।

संगीता रो पड़ी, राकेश की आँखें भी भर आईं, और अंश तो फूट-फूटकर रो पड़ा।

वो सब दादी के बिस्तर के पास बैठे थे। तभी दादी की पलके हिलीं।

कमज़ोर आवाज़ में उन्होंने कहा —

“बच्चो… घर ईंट-पत्थर से नहीं बनता… रिश्तों की गर्मी से बनता है। जब दिल ठंडे पड़ जाएँ, तो चाहे महल भी बना लो, वो घर नहीं होता।”

उनकी आवाज़ में इतनी करुणा थी कि सबके दिल हिल गए।

राकेश ने संगीता का हाथ पकड़ा — सालों बाद।

संगीता ने अंश के सिर पर हाथ फेरा।

और दादी मुस्कुराकर चली गईं।

उस एक पल में जैसे कलह की राख से करुणा का फूल खिल उठा।

घर की दीवारों में अब फिर से जीवन की धड़कन गूँजने लगी।

अगले कुछ दिनों में राकेश ने फैसला किया कि वो ऑफिस का काम थोड़ा कम करेंगे और शाम को परिवार के साथ बैठेंगे।

संगीता ने सोशल मीडिया से दूरी बनाई और घर के लिए कुछ नया करने की ठानी — उन्होंने “फैमिली टाइम मंडे” शुरू किया, जिसमें सब लोग मोबाइल दूर रखकर साथ में खाना खाते और बातें करते।

अंश ने भी महसूस किया कि असली खुशी किसी चैट या गेम में नहीं, बल्कि अपने लोगों की मुस्कान में है।

धीरे-धीरे सब बदलने लगा।

जहाँ पहले झगड़े की आवाज़ें गूँजती थीं, अब वहाँ हँसी सुनाई देने लगी।

जहाँ ताने थे, अब तारीफ़ थी।

जहाँ नाराज़गी थी, अब समझ थी।

एक शाम राकेश ने कहा,

“देखो, अगर हम एक-दूसरे से नहीं लड़ें तो दुनिया की कोई ताकत हमें तोड़ नहीं सकती।”

संगीता मुस्कुरा कर बोली,

“और अगर हम खुद ही एक-दूसरे को तोड़ें, तो कोई भगवान भी नहीं जोड़ सकता।”

यह सुनकर सब हँस पड़े, लेकिन उस हँसी में अब सच्चाई थी — आत्मा की शांति थी।

घर अब वही था, पर महक बदल गई थी।

कुछ महीनों बाद संगीता ने दादी की याद में एक छोटी-सी संस्था शुरू की — “घर जैसा घर”।

वह उन बुज़ुर्गों के लिए थी जिनके अपने होते हुए भी वे अकेले पड़ गए थे।

अंश भी वहाँ बच्चों को पढ़ाने जाता, और राकेश हर रविवार सेवा में हाथ बँटाते।

लोग कहते, “शर्मा जी का परिवार बहुत बदल गया है।”

पर असल में वो संभल गया था।

कभी-कभी ज़िंदगी को बदलने के लिए कोई बड़ा चमत्कार नहीं चाहिए होता।

बस एक मौन सच्ची बात, जो दिल को छू जाए, वही काफी होती है।

दादी ने जो कहा था, वो अब हर कमरे में लिखा था —

> “घर वो नहीं जहाँ सब साथ रहते हैं,

घर वो है जहाँ सब एक-दूसरे के दिल में रहते हैं।”

आज के जमाने में जहाँ हर कोई व्यस्त है, मोबाइल और तनाव ने रिश्तों के बीच दूरी बढ़ा दी है।

लेकिन कलह का अंत केवल प्रेम, धैर्य और संवाद से होता है।

अगर हर परिवार एक-दूसरे की बात दिल से सुने, तो हर घर में शांति, सम्मान

सुदर्शन सचदेवा 

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