कैसी मर्यादा रिश्तों की – डा० विजय लक्ष्मी : Moral Stories in Hindi

रात का तीसरा पहर था।
घर के हर कोने में सन्नाटा था… पर एक कोना अब भी जाग रहा था — सर्दी के दिन थे जानकी की आंखों से नींद कोसों दूर थी। तसले में जलती कोयले की आंच धीमी हो चुकी थी और पास ही बैठी जानकी की आंखें बुझी हुई राख जैसी लग रही थीं। दीवार घड़ी की टिक-टिक मानो उसके सीने में उठते दर्द के हाहाकार की गूंज थी।

आग की मंद पड़ती रोशनी में उसका चेहरा धुंधला होता जा रहा था… जैसे उसका अस्तित्व भी अब धीरे-धीरे सुलग-सुलग बुझ रहा हो।

अचानक बगल में रखी अलमारी से कुछ गिरा। आवाज से चौंकी जानकी ने देखा—वे उसकी पुरानी डायरी थी, जो बरसों से नहीं छुई गई थी शायद उसको दुखी व निराश देख संबल देने को आ गिरी थी । धूल से सनी उस डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था—“रिश्तों की मर्यादा ही तो जीवन की असली संपत्ति है।”

पर जानकी की आंखों में इस वाक्य को पढ़ते ही एक ज्वाला सी उठी।
“कौन सी मर्यादा?” उसने बुदबुदाया, “वे जो मेरी आत्मा को सालों साल कुचलती रही?”

जानकी की शादी अठारह की उम्र में हुई थी।


पोस्ट ग्रेजुएट होकर वह जब इस देहाती से कस्बे के परिवार में आई, तो मानो उसकी सारी पढ़ाई धूल हो गई। घर का काम, सास-ससुर, बच्चों की देखभाल, रिश्तेदारों की सेवा — यही उसका संसार बन गया था। जेठानियाँ उससे बड़ी थीं, लेकिन शिक्षित नहीं। और इसी का ताना बनकर जानकी के हिस्से आया — “बहुत पढ़ ली न, अब देखो कैसे चूल्हा-चौका ही करना है।”

सुबह पाँच बजे उठने से लेकर आधी रात तक चूल्हा-चौका चलता, पर बदले में मिलता क्या?
“पढ़ी-लिखी बहुएं कामचोर होती हैं,” सास कहती।
“हमारी बहुओं जैसी बन नहीं सकती,” जेठानियाँ कहतीं।

और पति?
वे या तो दोस्तों में मस्त रहते, या फिर बाहर किसी ‘ज़रूरी काम ’ में। जानकी जब कभी इलाज के लिए शहर जाती, तो वे खुद स्टेशन से होटल तक पहुंच जाते, लेकिन जानकी को पूछना तो दूर, कभी एक कप चाय भी नहीं पूछते।

कभी-कभी मन होता था चिल्ला कर कहे—
“मैं भी इंसान हूं, कोई मशीन नहीं।”

लेकिन तभी सामने खड़ा दिखती “रिश्तों की मर्यादा” की एक अदृश्य दीवार, जिससे टकराकर हर बार उसकी आवाज़ दम तोड़ देती।


उसने सब सहा, सिर्फ इसलिए कि उसके बच्चे अच्छे से पढ़-लिख जाएं, एक दिन कुछ बन जाएं।
उसके बेटे आज मल्टीनेशनल कंपनियों में हैं, बेटी की शादी हो गई।
पर जानकी?

उसी रसोई में, उसी अकेलेपन में… उसी मर्यादा की जकड़न में ।

समय बदला पर जानकी के दिन नहीं। सास-ससुर रहे नहीं, जेठानियों को अब कोई पूंछने वाला नहीं था पर अब जानकी के ताने बदल चुके थे। पति कहते बहुएं कमाती हैं चाहे जैसे खर्च करें। जो पति कहते थे बड़ों का लिहाज करना नहीं आता छोटी हो छोटी की तरह रहो वहीं अब बेटे कहते आप बड़प्पन नहीं दिखा सकतीं क्या ?


कुछ दिन पहले की ही बात थी —
बड़ी बहू ने छोटी बहू के सामने सिर्फ एक कप चाय के लिए जानकी को झिड़क दिया जो उन्होंने नहीं उनके पति ने मांगी थी,

“मम्मी जी, क्या आपको इतनी भी समझ नहीं?  जबकि चाय नाश्ता छोटी बहू ने बनाया था केवल ला के देने में इतनी बातें वे तो हमेशा से करती आई हैं और कभी भी भूखी होने पर भी पहले न खाया होगा।

ऐसे कितने वाकया हो चुके थे अभी 4 साल पहले एक दिन बेटे का दोस्त आया था घर में मुगौड़े बना रही थी उसने कहा आंटी जी आप भी हमारे साथ ले लीजिए भाभी बना लेंगी अभी उन्होंने एक मुंगौड़ा उठाया ही था और तानों की बौछार में उनका दिल छलनी कर दिया शायद इस बात को ना उनके पति या बेटे समझ ही न सके ऊपर से यही कहा आप तो छोटी-छोटी बातों को दिल से लगा लेती हैं।

जानकी की आंखों में तैरता वह अपमान आज भी वैसा ही ताजा है।
उस दिन उसने पहली बार अपने पति से कहा था,
“अब कोई मर्यादा बाकी नहीं। ये रिश्ते सिर्फ दिखावे के बंधन हैं।”

पति ने हँसते हुए कहा था,
“तुम्हारी तो आदत है रोने की।”

आज जब डायरी के पन्ने पलटती है जानकी, तो हर पन्ने पर किसी न किसी तिथि के साथ लिखा मिलता है —
“आज भी मैंने नहीं कहा… आज भी चुप रही… आज भी रिश्तों की मर्यादा को बचा लिया।”

पर किस कीमत पर?
अपने ही अस्तित्व की कीमत पर?

बरान्डे में लगी घड़ी ने 5 का अलार्म बजाया

पर जानकी बैठी रही और एक बार फिर डायरी को देखा। फिर अचानक उसने कलम उठाई और अंतिम पृष्ठ पर लिखा—


“अब और नहीं… अब मैं रिश्तों की मर्यादा से नहीं, अपने आत्मसम्मान से बंधी रहूंगी ये मेरा अहम नहीं केवल वहम है।मर्यादा एक को नहीं जब सभी बंधे हों।”

बुझती आग की राख में दबा एक डली कोयला पूरे जोश से चमक रहा था … लेकिन इस बार जानकी के चेहरे पर एक अलग चमक थी —
स्वाभिमान की, जागरण की…।यह एक जानकी की कहानी नहीं,
हर उस स्त्री की कहानी है, जो वर्षों से रिश्तों की मर्यादा में जीती आई है —
और अब खुद से, सच से, और समाज से पूछती है —
क्या मर्यादा सिर्फ एक समय विशेष की स्त्रियों के हिस्से ही आती है? इस पर आपके क्या विचार हैं।
                        स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
                                    ‘अनाम अपराजिता’

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