आनंदी , पिछले दो महीने से फ़ोन कर- करके थक गई, कहाँ रहती हो? एक बहुत ज़रूरी काम है तुमसे ……. ना तो फ़ोन उठाती और ना ही तुमने खुद फ़ोन किया …. सब ठीक तो है ना ?
कहाँ ठीक है, मेरी देवरानी गुज़र गई । अब दोनों बच्चे उसके ….सास- ससुर सबका मुझे ही करना पड़ रहा है । मेरी तो क़िस्मत ही ख़राब है । एक साल हुआ बस …. बड़ी मुश्किल से तो रसोई अलग करवाई थी …..
हाय …. क्या हो गया था? छोटे-छोटे बच्चे हैं ….. मैं तो मिली थी उससे , बड़ी अच्छी आदत की थी रत्ना ।
आदत तो पास रहने वालों को ही पता होती है, अब तो चली गई, क्या ही बोलूँ पर कभी करके कुछ ना खाया था उसने । सास- ससुर और बच्चे आधे से ज़्यादा मेरी तरफ़ रोटी खाते थे।
केसरी ने अपनी सहेली आनंदी की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया । वह अच्छी तरह जानती थी कि कामचोर आनंदी की देवरानी नहीं बल्कि वह खुद थी । केसरी को याद है कि दो साल पहले जब वह आनंदी के घर मिलने गई थीं तो उस दिन उसने लड़ाई छेड़ रखी थी ।
उसकी देवरानी रत्ना बेहद शांत और समझदार थी । हाँ अक्सर बीमार रहती थी, बेहद दुबली- पतली कमज़ोर थी । उस दिन रत्ना को तेज बुख़ार था और आनंदी ने केसरी और उसके पति के सामने ही बड़बड़ाना शुरू कर दिया था—-
ऐसी कैसी बीमारी है ? हर तीसरे दिन बुख़ार हो जाता है…. लेटने का बहाना चाहिए । मैं दिखती हूँ सबको हट्टी- कट्टी …. डॉक्टरों का क्या है, ये तो अच्छे- भले को बीमार करके छोड़ते हैं । मेरे से ना होता किसी का …. हम ना बिठाकर खिला सकते , अपनी रोटी अलग कर लो । इसे तो दिख गया ना कि घर में मेहमान आए हैं…. दो काम ना करने पड़ जाएँ बस बुख़ार हो गया ।
केसरी को बहुत बुरा लगा था जब उसने देखा था कि तेज बुख़ार के बावजूद रत्ना चाय बनाकर लाई थी और मेज़ पर रखते हुए बोली थी —-
माफ़ करना जीजी …. आपके साथ बैठ नहीं पाऊँगी , गोली खाई है बस आधा घंटे में बुख़ार उतर जाएगा तब तक आप माँजी और जीजी के साथ बात कीजिए ।
उसी दिन बातों- बातों में आनंदी की सास ने बताया था कि रत्ना को डॉक्टरों ने पौष्टिक आहार और विश्राम की सलाह दी पर बेचारी यह सोचकर कि जेठानी की बड़बड़ सुनकर घर में कलह होगी , पति की भी कमाई का कोई स्थायी ज़रिया नहीं है….वह अपनी बीमारी को अनदेखा कर करती है पर जब शरीर बिल्कुल साथ नहीं देता था तब ही घर में रखी कोई पेनकिलर खाकर फिर काम में लग जाती थी ।
आनंदी का व्यवहार और घर का माहौल देखकर केसरी चाय पीने के बाद अपने घर लौट आई थी हालाँकि वह उस रात रुकने के इरादे से आनंदी के घर गई थी । उसके बाद से केसरी ने आनंदी से बात करनी बहुत कम कर दी थी और न जाने कितनी बार आनंदी इसका उलाहना देती थी कि अब तुम ना तो बात करती और ना ही आती हो ।
आज आनंदी के मुँह से रत्ना की मृत्यु का समाचार सुनकर केसरी का मन भर आया था । आनंदी को अपनी सहेली सोचने मात्र से ही आज उसका मन घृणा से भर उठा था । केसरी को लगा कि आनंदी जैसी औरतें न जाने कितने गुनाहों की हक़दार होती हैं ।
वैसे तो केसरी आनंदी के घर जाना नहीं चाहती थी पर उसके पति रत्ना की मृत्यु का समाचार सुनकर बोले थे—
केसरी , एक बार तो उनके घर जाना चाहिए । रत्ना के पति राकेश और बच्चों की सूरत बार-बार मेरी आँखों के सामने घूम रही है, बेचारे बच्चे बिना माँ के हो गए ।
अगले दिन केसरी अपने पति के साथ आनंदी के घर पहुँची । वहाँ जाकर पता चला कि आज रत्ना की मृत्यु की छमाही तिथि है और उनके कुछ करीबी रिश्तेदार भी मौजूद थे । केसरी आनंदी की सास को सांत्वना देते हुए बोली ——
भगवान की मर्ज़ी के सामने किसकी चलती है माँजी…. इतना ही साथ लिखवा कर आई थी रत्ना ….
ना बेटी ….. मौत तो मेरी आई थी पर उस अभागी ने अपने सिर ले ली । भगवान को भी दया ना आई उसके बच्चों पर ….
तभी रत्ना की माँ तड़पकर रोते हुए बोली—-
सचमुच अभागी ही थी …. नहीं तो सबने मना किया था कि यहाँ सुखी नहीं रहेगी पर हमने सोचा कि लड़का पढालिखा है , नौकरी लग जाएगी और दोनों बाहर रहने लगेंगे पर तक़दीर ने साथ नहीं दिया मेरी बेटी का …… समधिन! तुमने मेरी बेटी का ध्यान ना रखा ।ब्याह से पहले तो बड़े-बड़े वादे करके आई थी तुम्हारी बड़ी बहू…… एक भी ना निभाया ……. हमारे साथ #विश्वासघात किया है तुमने ।
केसरी को लगा कि आज यहाँ पक्का लड़ाई होकर रहेगी क्योंकि आनंदी अपने लिए कुछ नहीं सुन सकती पर आनंदी तो कहीं नज़र ही नहीं आ रही थी । शायद रत्ना की माँ का सामना करने की उसमें हिम्मत नहीं थी । आसपास बैठी औरतों की बातचीत से केसरी को पता चला कि राकेश नौकरी के बिना विवाह करना ही नहीं चाहता था पर आनंदी देवर के विवाह के लिए पति और सास- ससुर पर दबाव बना रही थी ।
रोज़-रोज़ घर में इस बात पर झगड़े होते थे । सास को हल्का सा लकवे का असर था जिस कारण वे भी पूरी तरह अपने ऊपर आश्रित नहीं थीं । ऐसे में सास- ससुर और देवर के कार्य आनंदी को अतिरिक्त बोझ लगते थे । ऐसी स्थिति में दूर की रिश्तेदारी की लड़की रत्ना के बारे में यह पता चलते ही कि लड़की बहुत सीधी और समझदार है, आनंदी तुरंत रिश्ता लेकर पहुँच गई ।
रत्ना के माता-पिता ने इस रिश्ते से इंकार भी कर दिया था पर जब आनंदी ने पुश्तैनी ज़मीन- जायदाद, आमदनी और भविष्य की अच्छी नौकरी के प्रलोभन के साथ- साथ यह वादा भी किया कि —-
इतनी खेतीबाड़ी है …. किसी कारण नौकरी नहीं भी लगती तो रत्ना को कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होगी, हमेशा ऐश करेगी …. लाखों का तो गन्ना निकलता है हमारे खेतों से …. मैं ज़िम्मेदारी लेती हूँ , अपनी छोटी बहन बनाकर रखूँगी, तिनका तक ना चुभने दूँगी ।
तो कई महीनों के बाद रत्ना के परिवार वालों ने आनंदी की बातों पर भरोसा कर लिया । और विवाह के कुछ महीनों बाद ही तिनका ना चुभने देने वाली जेठानी ने शब्दों के शूल चुभा- चुभाकर रत्ना को ऐसा घायल किया कि उसे अपनी जान ही गँवानी पड़ी ।
ज़रूरत से ज़्यादा काम करने के कारण धीरे-धीरे रत्ना का शरीर कमजोर हो गया था । मौत वाले दिन वह सास को नहलाने के बाद उन्हें सहारा देकर बाथरूम से बाहर निकल रही थी कि संतुलन बिगड़ गया और सास का भारी शरीर सँभालते- सँभालते वह खुद फिसल गई । ऐसी फिसली कि फिर कोमा से बाहर नहीं निकल सकी ।
जिस ज़रूरी काम के लिए मैंने आनंदी को फ़ोन किया था उसने तो उसके बारे में बातचीत नहीं की पर उसके घर से आने के दो दिन बाद केसरी के पति ने राकेश को फ़ोन करके कहा——
राकेश! रत्ना तो चली गई । अब बच्चों का ध्यान रखना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है ।खुद को सँभालना बहुत ज़रूरी है । मेरे एक जानकार मि० कैलाश मिश्रा है । लखनऊ के पास उनका बहुत बड़ा फ़ॉर्म हाउस है । अब वे ज़्यादातर समय अपने बेटों के साथ मुंबई में रहते हैं। उन्हें एक ईमानदार सुपरवाइज़र की ज़रूरत है । अगर तुम कहो तो तुम्हारे लिए……
बात पूरी करने से पहले ही राकेश ने कहा—-
हाँ भाईसाहब, बात कर लीजिए । मैं इस माहौल से अपने बच्चों को बाहर ले जाना चाहता हूँ पर माँ जी और बाबूजी को नहीं छोड़ सकता ।
तुम एक बार वहाँ जाकर देख आओ । मेरे ख़याल से माँ- बाबूजी को तुम अपने साथ ले जा सकते हो ।
कुछ ही दिनों के बाद राकेश अपने बच्चों और माता-पिता के साथ मिश्रा जी के फ़ॉर्म हाउस पर चला गया । वहाँ दूसरे बहुत से लोकल लोग थे जो फ़ॉर्म हाउस में काम करते थे इसलिए माँ- बाबूजी की देखभाल के लिए राकेश को कोई मुश्किल नहीं हुई । धीरे-धीरे कब बच्चे पढ़ लिख कर बड़े हो गए , राकेश को पता ही नहीं चला । मिश्रा जी , माँ- बाबूजी भी चले गए । मिश्रा जी के बच्चे साल में दो बार अपने फ़ॉर्म हाउस पर छुट्टियाँ बिताने आते थे । उन्हें तो राकेश के रूप में एक अपना ही मिल गया था । उनकी पुश्तैनी ज़मीन राकेश के हाथों में जाकर सोना उगलने लगी थी । पर अब राकेश भी थकने लगा था । दोनों बच्चे भी अपनी ज़िंदगी में ख़ुश थे और नौकरी के कारण अलग-अलग शहरों में बस गए थे ।
बच्चों के जाने के बाद राकेश को बहुत अकेलापन खलता था । ऐसा नहीं था कि पिछले सालों में बहुत से शुभचिंतकों ने उसे पुनर्विवाह के लिए नहीं कहा पर वह रत्ना की जगह किसी को देना ही नहीं चाहता था । समय को भला किस पर तरस आता है? ऐसा ही राकेश के साथ हुआ । अब उससे काम नहीं होता था इसलिए जब मिश्रा जी के बेटों ने उससे कहा —-
भाई साहब! आपकी सहायता के लिए दो नए आदमी रख दिए हैं । अब आपको भी आराम की ज़रूरत है ।
तो राकेश को लगा कि वह यहाँ के लिए बेकार हो चुका है । अब तो बेटों के पास जाकर रहने के अलावा कोई स्थान नहीं है क्योंकि अपने गाँव जाकर वह पुराने ज़ख़्मों को हरा करना नहीं चाहता था ।
पर दूसरे ही क्षण मिश्रा जी के बड़े बेटे की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ—-
भाईसाहब! किस सोच में पड़ गए । ये आपका घर है । आपके जीते जी हम तो क्या , कोई भी आपका स्थान नहीं छीन सकता । बस ….. ये सोचकर कि आपने काम बहुत बढ़ा लिया है…. आपको दो असिस्टेंट दे दिए हैं । हमारी भी धीरे-धीरे उम्र होने लगी है, शायद आना-जाना कम हो जाए या यहीं आकर रहने लगे ।
उस दिन राकेश ने भी महसूस किया कि एक बार गाँव जाकर अपनी भूमि से मिल तो आऊँ क्योंकि ढलती शाम का क्या भरोसा ? राकेश ने बच्चों को भी इस बारे में नहीं बताया । वह जानता था कि बच्चे कभी नहीं मानेंगे ।
अपने एक कर्मचारी के बेटे के साथ राकेश बरसों बाद अपने घर पहुँचा । वहाँ जाकर पता चला कि तीन साल पहले बड़ा भाई दुनिया से जा चुका है, भतीजा भी विवाह के बाद अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में बस गया क्योंकि वह नहीं चाहता कि चाची के साथ किया माँ का बर्ताव दोहराया जाए । आनंदी एकदम अकेली थी । बस कभी-कभी बेटी ही आकर हाल-चाल पूछ लेती थी । घर में किसी पुरुष के ना होने के कारण खेतों की ज़मीन पर भी पास पड़ोसी गिद्ध दृष्टि लगाए थे । सारी कहानी सुनाकर आनंदी रोते हुए बोली—-
राकेश! ये घर काटने को दौड़ता है, दिन में भी डर लगता है मुझे । एक तुम ही हो जो टूटे परिवार को जोड़ सकते हो….. मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूँ …. मत जाओ ।
पर अपना बैग साथ में आए लड़के के हाथ में पकड़ाकर उसे चलने का इशारा करते हुए राकेश बोला —-
भाभी ! आपको ही तो अकेलापन चाहिए था । आप किस मुँह से मुझे रुकने को कह रही है? सब कुछ होते हुए माँ- बाबूजी को पराई भूमि पर अंतिम विदाई देनी पड़ी , पूरे परिवार के होते हुए मेरे बच्चे अनाथों की तरह बड़े हुए….. घर में सब कुछ होते हुए मेरी रत्ना अपनी बीमारी तक किसी को नहीं बता सकी ।अब मुझमें हिम्मत नहीं बची ….. काश ! आपने समय रहते रिश्तों की क़द्र कर ली होती ।
इतना कहकर राकेश ने चश्मा उतारकर आँखों के पानी को पोंछा और चल पड़ा अपनी उसी नई पहचान की तरफ़ जहाँ उसे इंसानियत की क़द्र करने वाले लोग मिले थे ।
करुणा मलिक
# विश्वासघात