काश तुम समझ पाते! – प्रियंका सक्सेना : Moral Stories in Hindi

“अभी-अभी तो ऑफिस से आई हो, अब बैग पैक कर कहां चली, मीनल?” दमयंती जी ने बहू के रूम में प्रवेश करते हुए पूछा

“मम्मी जी, घर से फ़ोन आया है पापा की तबीयत खराब हो गई है, अस्पताल में भर्ती करना पड़ा है। मम्मी को मैंने कह दिया है कि मैं पहुंच जाऊंगी।” मीनल ने कपड़े रखते हुए बताया

“अरे! तो तुम्हारे चाचा भी तो पास के शहर में रहते हैं उन्हें बुला लेती। अच्छा लगता है क्या बात-बात पर बेटी को ससुराल से बुला लो। इतना भी नहीं सोचती कि बेटी का घर पूरा डिस्टर्ब हो जाता है।” दमयंती जी ने बात सुनकर मीनल के पापा की तबीयत पूछने की जगह भड़कते हुए कहा

मीनल के बैग में कपड़े रखते हुए हाथ रुक गए।

“अरुण को बिना बताए तुम जाने की सोच रही हो? हमसे पूछने का तो फर्ज है ही नहीं!” दमयंती जी का बोलना जारी था

“मम्मी जी,  मैंने अरुण को ऑफिस से आते हुए बता दिया था और मेरे पापा की तबीयत खराब है, अस्पताल में भर्ती हैं तो मुझे जाना ही है। जहां तक बात है घर की तो कांता बाई को खाना बनाने के लिए बोल दिया है, बाकी सभी कामों के लिए गंगाबेन आती ही है। उसे इन दिनों छुट्टी नहीं करने को बोल दिया है मैंने।” कहकर बैग की चेन बंद कर मीनल ने कैब बुला ली और बस स्टेशन जाकर मायके जाने वाली बस पकड़ कर बैठ गई

विंडो सीट थी तो सिर टिकाकर थोड़ी आराम मुद्रा में बैठ गई। अच्छा तो उसे आज नहीं लगा था मम्मी जी से इस तरह बात करके। ना ही उसका नेचर ऐसा है कि वह ऐसे अपनों से बड़ों से बात करे। लेकिन क्या ही कर सकती है जब कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया हों?

काश मेरी मन की बात मम्मी जी ने कभी तो समझी होती ! अपनी बेटी समझकर ना सही बहू समझकर या एक जीता-जागता इंसान मानकर ही दिल की बात सुनी होती मम्मी जी ने! काश अरुण मम्मी जी को कभी बोल पाते कि मीनल भी इंसान है जिसकी भावनाएं जिंदा हैं!

अरुण, काश तुम समझ पाते कि जब मैं पत्नी होकर अपने सारे कर्त्तव्यों को भली भांति निभा रही हूँ तो तुमसे तो बहुत ज्यादा मेरी अपेक्षाएं ही नहीं हैं मैं तुम्हे तो कभी अपने कर्त्तव्य से नहीं रोकती हूँ। हाँ, मेरे माता-पिता के तुम बस दामाद बनकर रह गए चलो वो भी मान लिया पर फिर क्यों नहीं तुम मम्मी जी को समझा पाते हो कि मेरे माता-पिता की तरफ भी मेरे कुछ कर्त्तव्य हैं। इकलौती बेटी हूँ तो ये सोचना कि हारी-बीमारी में भी नहीं जाऊँ तो यह मुझसे नहीं हो पायेगा इसीलिए

इस बार मैंने तुमसे या मम्मी जी से जाने की आज्ञा नहीं मांगी बस सूचना दी है क्योंकि जानती हूँ कि पूछने पर हर बार की तरह कोई न कोई काम मम्मी जी बता देंगी या कोई भी बहाना बनाकर या ताने मारकर रोक लेंगी। और अरुण तुम! तुम्हारा मुँह तो मानो सिल ही जाता है मम्मी जी के सामने।

मायके के किसी फंक्शन , सुख में या किसी शादी-ब्याह में जाने नहीं दिया। नई नई शादी मेरी हुई थी मैंने आपको और आपकी बातों को मान लिया परन्तु चार साल हो गए अब तो आप लोग मेरी भावनाओं को समझना शुरू कर दो वर्ना कहीं मैंने समझना बंद कर दिया तो आप लोग खुद ही समझदार हैं। समझौता करते करते थक चुकी हूॅं मैं… आप लोगों से आशा करना ही व्यर्थ है कि देख कर आप लोग अपने-आप कुछ तो समझेंगे… तो ठीक है मैं समझौता अब नहीं करुंगी क्योंकि आप लोगों को सामने से देखकर भी कुछ भी महसूस नहीं होता है…

चार साल से मम्मी जी की तमाम नसीहतों का बोझ ढो रही हूॅ॑ मैं! और बदले में एक बोल भी प्यार का नसीब नहीं हुआ… सिर्फ नसीहत देने से काम नहीं चलता कभी इस बाहरवाली को अपना तो समझा होता मम्मी जी! मैं तो आप सभी और आप लोगों से जुड़े हर रिश्ते को अपना मानकर निभा रही हूॅ॑ पर आप लोगों ने क्या दिया केवल जिम्मेदारियां कि तुम्हारी जिम्मेदारी है हम सब के प्रति इसे

ढंग से निभाना। जिम्मेदारियों के बोझ तले इतना दबा दिया कि मैं अपने जन्मदात्री माॅ॑ और पिता को भी नहीं पूछ पाती हूॅं लेकिन अब मैं जान चुकी हूॅं कि यह जिम्मेदारियां कभी खत्म नहीं होंगी और आप लोगों का मुझपर सिर्फ हक और अधिकार जताना भी ताउम्र रहने वाला है। मुझे मेरे कर्त्तव्य और जिम्मेदारियों की लम्बी लिस्ट पकड़ा दी गई है।

अब मैं थक चुकी हूॅं और आज मुझे अपने लिए आवाज़ उठानी पड़ी। अब से आगे भविष्य में भी-कोई नहीं मतलब कोई भी नहीं…आप और अरुण भी नहीं मम्मी जी, मुझे मेरे माता-पिता की तकलीफ में, उनकी बीमारी में जाने से कोई भी मना नहीं कर सकता है….इस बारे में समझौता अब नहीं करूंगी मैं!

खैर, अभी तो मम्मी को मोबाइल से अपने यहाँ से चलने की सूचना दे दी है और आँखें मूंदकर बैठ गई। आगे कुछ दिन तो आपाधापी में ही जाने वाले हैं… पता नहीं पापा कैसे होंगे ? 

लेखिका की कलम से  

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धन्यवाद।

प्रियंका सक्सेना 

( मौलिक व स्वरचित)

#समझौता_अब_नहीं

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