जब मैं पहली बार दफ्तर में सुधा से मिला, तो वह बहुत साधारण सी साड़ी पहने हुए थी और जैसे जीवन की मुश्किलों से जूझती हुई इस बात का सबूत देना चाहती हो कि वह अपने बलबूते पर एक अच्छा जीवन जी सकती है…. मैं उसी दफ्तर में एकाउंट्स देखने का काम करता था…. मेरी उम्र करीब 45 साल थी…
मुझे यह नौकरी करते हुए 20 साल से ऊपर हो गए थे… मेरे परिवार में कोई नहीं था …माता-पिता गुजर चुके थे… मेरी पत्नी के साथ मेरे वैचारिक मतभेद रहते थे… जिस वजह से हम शादी के कुछ ही महीनो बाद अलग हो गए थे …तब से बस सुबह नौकरी पर और शाम को वापस घर पर… यही मेरा जीवन था…
जब तक किसी से आपके विचार ना मिले ,तब तक साथ में जीवन व्यतीत करना संभव नहीं और दूसरों पर अपने विचार थोपना मेरे उसूलों के खिलाफ था… दफ्तर में काम करने वाले बाकी लोगों के साथ-साथ सुधा से भी अच्छी बोलचाल हो गई थी… दफ्तर में काम करते हुए सुधा को करीब 6 महीने हो चले थे…
कई बार हम दोपहर का खाना साथ में ही खाते थे… कभी कबार छुट्टी वाले दिन टेलीफोन पर भी हमारी बात हो जाया करती थी… कई विषयों पर हमारी लंबी चर्चा होती रहती थी …आज के समय में भी सुधा के स्वभाव में ठहराव देखकर, मैं काफी आश्चर्यचकित हो जाता था …काफी हद तक हम दोनों की सोच बहुत मिलती थी…
धीरे-धीरे जब बातें हुई तो पता लगा की सुधा एक तलाकशुदा है… मैंने तलाक की वजह भी एक दिन पूछ ही ली क्योंकि इतनी सुलझी हुई लड़की के साथ ऐसा कैसे हो सकता है?? यह जानना मेरे लिए पता नहीं क्यों, पर जरूरी लगा …सुधा ने बताया कि उसका पति बहुत शराब पीता था और अक्सर देर रात तक घर से बाहर रहता था..
. मन बहुत उदास हुआ कि लोग अपनी कमियों को कबूल नहीं करते और उन कमियों की वजह से दूसरों को काफी परेशानी में डाल देते हैं.. खैर सुधा ने तो तलाक के बाद अपने नए जीवन की शुरुआत कर ही दी थी …जीवन में उसने काफी हद तक खुद को यह समझ लिया था कि अब जीवन का यह रास्ता और इस रास्ते में आने वाली कठिनाइयों का सामना खुद ही करेगी …
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परंतु कई बार उसके सामने कई ऐसी बातें आ जाती कि वह उलझन में पड़ जाती… वह अपने माता-पिता की इकलौती लड़की थी …माता-पिता बुजुर्ग हो चुके थे …अक्सर घर के कई काम वह खुद ही संभालती थी… समाज में रहकर समाज से बच पाना काफी हद तक मुश्किल ही होता है…
लोग आज भी रास्ते पर अकेली लड़की का चलना मुश्किल कर देते हैं ….कहा जाता है, जमाना बदल गया है …हम मॉडर्न हो गए हैं… परंतु जिस पर बीतती है, वास्तव में वही जानता है कि हम कितने मॉडर्न हुए हैं…. क्योंकि यदि सोच की बात की जाए तो आज के समय में भी बीमार मानसिकता आम ही देखने को मिल जाएगी …
सुधा के साथ भी अक्सर ऐसा ही होता ….कई बार वह दुखी होकर अपनी आप बीती बताती ….काम के लिए दिए गए टेलीफोन नंबर को भी लोग गलत नजरिए से इस्तेमाल करने लग जाते… अक्सर सुधा परेशान हो जाती और कहीं ना कहीं मैं उसकी सहायता के लिए हमेशा हाजिर रहता …
हमारे विचारों की साझं इतनी गहरी हो चुकी थी की कई बार मन में आता कि काश मेरी पत्नी में सुधा जैसे गुण होते…. जैसे-जैसे समय बीतता गया मन में एक अजीब सी कशमकश दौड़ने लगी… कई बार तो मैं खुद को उस बात के काबिल ना समझता हुआ खुद को चुप करवा देता ….परंतु कई बार इन सभी सीमाओं से ऊपर उठकर केवल यह सोचता
कि जीवन कितना छोटा है और यदि इसे एक अच्छे साथी के साथ जिया जाए तो रास्ता कितना सरल हो जाएगा… काफी समय इसी कशमकश में बीत गया …फिर एक दिन सुधा के घर जाने का अवसर प्राप्त हुआ …उसके पिताजी की तबीयत ठीक नहीं थी… तो मैंने सुधा को टेलीफोन किया और छुट्टी वाले दिन उसके घर पहुंच गया …
.बातों बातों में उसके पिताजी ने भी बात छेड़ ही दी कि उन्हें सुधा की बहुत चिंता रहती है क्योंकि आज तो सुधा के साथ वे लोग हैं …परंतु एक समय आएगा जब उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाएगी ….तब सुधा बिल्कुल अकेली पड़ जाएगी… यह सुनकर मन उदास हो गया …
परंतु फिर सोचा कि मैं अपने मन की बात सुधा के पिताजी से बोल दो, बाकी जो होगा देखा जाएगा ….क्योंकि मेरे मन में किसी प्रकार का कोई लालच नहीं था…. बस हमारे विचारों का मिलन मुझे कहीं ना कहीं सुधा से बांध देता था… उसके साथ बातें करना ,उसके साथ समय बिताना, जैसे घने पेड़ की छांव में सुकून की नींद सोना…
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बातों बातों में मैंने सुधा के पिताजी से बात छेड़ ही दी… अपने बारे में सब कुछ बताते हुए ,अपनी इच्छा जाहिर की और इस बात की माफी भी मांगी कि मेरी और सुधा की उम्र में करीब 10 साल का फैसला था…. परंतु कहीं ना कहीं मैंने इस बात का विश्वास भी दिलाया कि सुधा की आंखों में कभी आंसू नहीं आएंगे…
सांस लेने के लिए जिस प्रकार से यहां खुला माहौल मिलता है वैसा ही माहौल उसे मेरे घर में भी मिलेगा… यह सुनकर सुधा के पिताजी कुछ देर के लिए खामोश हो गए और फिर उन्होंने मुझसे कुछ दिनों का समय मांगा… करीब एक हफ्ते बाद सुधा के पिताजी का मुझे टेलीफोन आया… उन्होंने मुझे घर पर बुलाया और मेरी मर्जी पर मंजूरी जताते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि जब आपकी मर्जी हो आप बता देना, हम सुधा की विदाई कर देंगे…
यह सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे जीवन भर के जख्मों पर भगवान ने एक साथ ही मरहम लगा दिया …आज सुधा और मेरी शादी को 2 साल हो चुके हैं और हमें कोई एक पल भी ऐसा याद नहीं कि हमने कभी ऊंची आवाज में एक दूसरे से बात की हो… वास्तव में हम दोनों के बीच गहराई इतनी ज्यादा हो गई
कि अब तो ज्यादा कुछ बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती …हम एक दूसरे की चुप्पी भी समझ जाते हैं… हमारी उम्र में फांसल ज्यादा था, परंतु इससे हमारे रिश्ते में कभी कोई फांसला नहीं आया …सुधा और मैं दोनों आज भी उसी दफ्तर में काम करते हैं… दोनों एक साथ दफ्तर जाते हैं और वापस आकर एक साथ खाना भी बनाते हैं…
वास्तव में जीवन को समझना बहुत जरूरी है …छोटी-छोटी बातों को लेकर जिद पकड़ना और एक दूसरे पर अपने विचारों को थोपना सरासर ही बेवकूफी है… जीवन बहुत छोटा है और इसे हंसी खुशी बीताने के लिए दूसरों को दुखी करना किसी भी हाल में ठीक नहीं….
स्वरचित रचना
शालिनी श्रीवास्तव