गाँव के चौपाल में बैठे लोग अक्सर रघुनाथ को देखकर हँसते, कोई कहता – “अरे, वो रहा जाहिल!” तो कोई ताना मार देता – “इससे बात करोगे तो अपनी भी अक्ल कम हो जाएगी।” रघुनाथ को पढ़ाई-लिखाई का कभी मौका ही नहीं मिला। बचपन में ही बाप चल बसे, माँ खेतों में मज़दूरी करती रही, और वह बकरियाँ चराते-चराते बड़ा हो गया।
रघुनाथ के मन में पढ़ने की चाह तो थी, लेकिन भूख और जिम्मेदारियों ने किताबों से पहले पेट भरने का सबक सिखा दिया। वह चुपचाप सबकी बातें सहता, क्योंकि वह जानता था कि उसके पास जवाब देने के लिए ‘शब्द’ कम हैं, मगर दिल में भावनाएँ ज़्यादा।
गाँव में एक दिन बड़ा हादसा हुआ। नदी किनारे खेलते-खेलते पप्पू, सरपंच का छोटा बेटा, पानी में गिर गया। सब लोग दौड़े, पर कोई नदी में उतरने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। पानी तेज़ था, और गहराई भी। भीड़ में रघुनाथ भी खड़ा था। उसने बिना सोचे-समझे अपनी पुरानी धोती बाँधी और छलाँग लगा दी।
कुछ ही मिनटों में वह पप्पू को खींचकर किनारे ले आया। बच्चे की साँसें अटक रही थीं, लेकिन रघुनाथ ने अपने अनुभव से उसे पेट के बल लिटाकर पानी बाहर निकाला। धीरे-धीरे पप्पू रोने लगा, और चारों ओर राहत की साँस फैल गई।
गाँव के लोग जो उसे ‘जाहिल’ कहते थे, अब उसी के आगे सिर झुका रहे थे। सरपंच दौड़कर आया, आँसू भरी आँखों से बोला – “रघुनाथ, तू तो हमारा भगवान निकला। तू न होता तो मेरा बेटा आज…” और बोलते-बोलते उसकी आवाज़ रुक गई।
लेकिन रघुनाथ के चेहरे पर कोई गर्व नहीं था। वह बस धीरे से बोला – “सरपंच जी, मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, ये सच है। पर क्या इंसान की कीमत सिर्फ पढ़ाई से तय होती है? अगर किताबों में ज्ञान है, तो अनुभव और दिल में भी।”
उस दिन से गाँव में लोग “जाहिल” शब्द का इस्तेमाल उसके लिए करना बंद कर दिए। बल्कि, बच्चे तक उससे कहानियाँ सुनने और तैराकी सीखने आने लगे।
रघुनाथ के लिए यह सम्मान किसी इनाम से कम नहीं था। उसके दिल में एक बात हमेशा के लिए बैठ गई – “दुनिया अक्सर बाहरी ज्ञान को ही असली समझती है, लेकिन असली इज़्ज़त इंसानियत और हिम्मत से मिलती है।”
शीर्षक: “जाहिल”
रेनू अग्रवाल