“जड़ें हिलती हैं जब…” – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

(एक दृश्यात्मक पारिवारिक कहानी — भावों से भीगी, समय की सच्चाइयों से टकराती)

बरामदे में बैठकर अख़बार पढ़ते-पढ़ते दादा जी का चेहरा सख्त हो गया था। चश्मे के पार से उनकी आँखें अख़बार के हर शब्द को जैसे चीरकर देख रही थीं।

“आजकल का ज़माना… कोई किसी का नहीं रहा।”

हाथ काँपे, कप चाय छलक गई।

“कोई बेटी को मार रहा है, कोई पिता को।

पति-पत्नी अब जीवन साथी नहीं, चालबाज़ हो गए हैं।

शादी, रिश्ता — सब सिर्फ दिखावा।

इंसान नहीं रहे… सब जानवर बन गए हैं!”

पास में बैठी दादी जी ने देखा — दादा जी की मूंछें हिल रहीं थीं गुस्से से, और आँखों में एक अधूरी पुकार थी।

“क्या हुआ? फिर कौन-सी डरावनी खबर पढ़ ली?”

दादा जी ने अख़बार मोड़ते हुए कहा —

“अरे देखो, यहाँ एक बेटी ने अपने माता-पिता को ज़हर दे दिया।

वहाँ लड़के ने प्रेमिका के कहने पर अपनी पत्नी को मार डाला।

हर रोज़ ये खून, धोखा, फरेब!

ओर तो ओर हनीमून पर पत्नी ने पति को मरवा दिया।

क्या यही है इस आधुनिक जमाने का चेहरा?”

दादी ,:” हा तुम्हारी चिंता जायज है फिर

दादी ने गहरी सांस ली।

“हां, खबरें डरावनी हैं। लेकिन कारण दिख नहीं रहा तुम्हें…?”

“कारण? कारण यही है कि बच्चो को बहुत छूट मिल रही है।

हर कोई बस ‘फ्रीडम’ चाहता है —

ना संस्कार, ना जिम्मेदारी!”

दादी जी चुप हो गईं।

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा।

फिर वह उठीं और एक पुराना एलबम ले आईं।

“ये देखो… ये तस्वीर तुम्हारी बिटिया की है — जब उसने पहली बार साइकिल चलाई थी।

तुमने ही तो उसे कहा था, ‘उड़, पर गिरने से डर मत’।

अब गिर गई तो दोष उसका नहीं, रास्ते का है। और शायद… हमारी भी कहीं चूक है।”

दादा जी कुछ कहने ही वाले थे कि इतने में बाहर गेट पर कुछ शोर सुनाई दिया।

“भाईया!!”

घर का नौकर दौड़ता हुआ आया। पीछे एक 17-18 साल की लड़की खून से लथपथ सी दिख रही थी।

“किसी ने इसे अधमरी हालत में छोड़ा था पास के मैदान में… ये कुछ बोल नहीं रही थी, पर इसका फोन इसकी मम्मी का नाम ‘दादी’ के नाम से सेव था।”

दादा जी और दादी जी ने चौंक कर एक-दूसरे की ओर देखा।

दृश्य बदलता है — भीतर का घर, रात का समय

लड़की अब होश में थी। नाम था “अन्विता”। उम्र 18 साल। NEET की तैयारी कर रही थी। चेहरा डरा हुआ था, आँखों में ऐसा भय जैसे कोई अंदर तक झुलस गया हो।

दादी उसके पास बैठीं, हाथ सहलाया।

“बेटा, डर मत। कुछ मत बोल, बस सो जा अभी। सब ठीक हो जाएगा।”

पर अन्विता ने बोलना शुरू किया।

“मैं… मैं अपने मम्मी-पापा से बात करना चाहती थी।

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

कोचिंग में एक लड़का था… सब कहते थे वो अच्छा है, मदद करता है।

शुरुआत में मुझे भी अच्छा लगा… पर धीरे-धीरे… वो मेरे फोटो खींचने लगा… फिर ब्लैकमेल करने लगा।

मैं चुप रही क्योंकि… घरवालों को ‘दूसरे’ ज्यादा मानते हैं, मुझे नहीं।

जब मैंने विरोध किया… तो एक दिन कोल्ड ड्रिंक में कुछ मिलाकर… मुझे बेहोश कर दिया।

आज उसी की पार्टी में मैं फिर बेहोश हो गई… पर इस बार मैं मरना नहीं चाहती थी।”

दादा जी की आँखें भर आईं।

उन्होंने चुपचाप अख़बार उठाया, उसी पन्ने पर देखा जहां इस घटना की एक छोटी सी खबर थी —

“अज्ञात हालत में लड़की मिली, पास में कोई पहचान नहीं”

दादा जी ने अवंतिका को उसके घर ही नहीं पहुंचाया बल्कि उसके मम्मी पापा को भी समझाया।

अगली सुबह

दादा जी आंगन में खड़े एक छोटे पौधे को देख रहे थे।

पास में स्कूल से लौटते दो बच्चों की बातचीत कानों में पड़ी —

“तेरे पापा तुझे PUBG खेलने देते हैं?”

“हां, बोलते हैं ‘बच्चा खुश रहना चाहिए’। वैसे भी उन्हें टाइम कहां है।”

दादा जी को लगा जैसे उस पौधे की जड़ें हिल रही हैं।

उन्होंने मन ही मन सोचा —

“हम सब पत्तियों को सींचते रहे, लेकिन जड़ों को नजरअंदाज कर बैठे। अब जब पेड़ सूख रहा है, तो दोष हवाओं को देते हैं।”

अब दादा जी हर रविवार बच्चों को बैठाकर एक नई कहानी सुनाते हैं।

उनकी कहानियों में राजा-रानी नहीं होते —

होते हैं अकेलेपन से लड़ते किशोर, संघर्ष करती बेटियाँ,

रिश्तों की डोर पकड़ने की कोशिश करता समाज।

उन्होंने अन्विता को ‘अपनी पोती’ की तरह मानते उसका ख्याल रखते ओर बातचीत करते।

और एक दिन, उस ‘ब्लैकमेल करने वाले लड़के’ को गिरफ्तार कराने में भी मदद की।

अब उनके घर की दीवार पर एक नया पोस्टर टंगा है —

> “सिर्फ उड़ने की आज़ादी देना काफी नहीं,

उड़ान की दिशा सिखाना और लौटने का आसमान देना भी ज़रूरी है।”

दादी जी :” पोस्टर से कुछ नहीं होगा अब यदि आज की पीढ़ी विश्वास करे तो ये जिम्मा पुनः हमें सौंप देवे।

दादा जी हंसे और बोले :” सौंपना काफी नहीं है निभाना भी होगा 

स्वहित त्यागो समाज सुदृढ़ बनाओ।

तभी अवंतिका ; दादा जी दादी जी आप यूंही खड़े रहे आपकी फोटो ले रही हु।

क्लिक की आवाज के साथ ही फिर ठहाका गूंज पड़ा :” हा .. हा ….

दीपा माथुर

# देखो तुम्हारी चिंता तो जायज है।

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