मुकेश और उनकी पत्नी महिमा के शादी होने के सत्रह साल बाद पुत्री का आगमन हुआ। गौरवर्णी नन्ही नन्ही काया को देख दम्पति की खुशी का पारावार न रहा। उस नन्हीं नवागत का नाम रखा हिमांशी।
मां पिता का प्यार दुलार और अच्छी परवरिश पाकर हिमांशी दस वर्ष की अवस्था को पार कर गई। अभी तक तो मां उसके लिए जो भी करती थीं,सब अच्छा लगता था। जैसे प्यार से सुबह उठाना, गोद में बिठाकर खाना खिलाना, और रात में कहानी सुनाकर सुलाना। हिमांशी को स्कूल छोड़ने और छुट्टी होने पर वापस घर लाने की उनकी नियमित की दिनचर्या थी।
हिमांशी जैसे जैसे बड़ी होती गई, उसका ईगो भी जागृत होने लगा। एक दिन स्कूल छोड़ने के लिए तैयार मां से हिमांशी बोली ” मां मैं 6th में पढ़ रही हूँ , बड़ी हो गई हूँ , कोई बच्ची नहीं हूँ कि रास्ता भूल जाऊंगी। मैं अकेले जा सकती हूँ। ” महिमा ने कहा ” बेटा ! जानती हूँ कि तुम बड़ी हो गई हो। पर देखो सड़क पर कितना रश रहता है। तुम बच्चे लोग तो ध्यान से चलते नहीं हो। तुम्हें छोड़ने और
लाने से मैं निश्चिंत रहती हूँ । हिमांशी फिर थोड़ा खीझ़ कर बोली ” मेरी सहेलियां भी तो अकेले ही जाती हैं। उनकी माओं को क्या उनकी फ़िक्र नहीं होती, तुम कुछ ज्यादा ही सोचती हो। मेरी सहेलियां मुझे चिढ़ाती हैं ” अरे ये तो अभी बच्ची है। मां छोड़ने आती हैं और छुट्टी में ले जातीं हैं।” महिमा थोड़ा रुष्ठ
होते हुए बोलीं, ” अच्छा अभी चल। अच्छे बुरे की समझ है नहीं, बहकावे में आ जाती है। अगले हफ़्ते अकेले जाने का इंतजाम कर दूंगी। महिमा ने बेटी का हाथ पकड़ा और स्कूल छोड़कर घर आ गई। कुछ देर तक चुपचाप बैठी रहीं।
मुकेश आफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे। मुकेश के कपड़े निकालते हुए महिमा बोलीं, ” मुकेश !हिमांशी को स्कूल जाने के लिए बस करवा दो।”
” क्यों, क्या हुआ? अब साथ नहीं जाना चाहती हो।”
” अब वह अकेले जाना चाहती है। ठीक भी है बाहरी दुनिया से परिचित होगी तो भले बुरे की समझ आएगी। विपरीत परिस्थिति में लड़ना सीख सकेगी।”
” तुम स्कूल जाती हो, बस की बात कर लेना।” मुकेश ने अपनी सहमति जताते हुए कहा।
समय अपनी रफ़्तार से बढ़ता गया। हिमांशी किशोरावस्था को पीछे छोड़ यौवनावस्था के द्वार पर खड़ी हो गई। प्रत्यक्ष में महिमा हिमांशी से मित्रवत् व्यवहार करने लगी थीं। परन्तु अप्रत्यक्ष रुप से उसके उपर निगाह भी रख रही थीं।
हिमांशी जब इण्टर फाइनल में थी, उसकी मित्र पूर्णिमा ने अपने बर्थडे पर उसे आमंत्रित किया। क्लास के और भी कई मित्रों को बुलाया गया था। हिमांशी तैयार होकर जाने लगी तो मां ने कहा, ” जल्दी आना, बहुत रात मत करना” “हाँ हाँ जल्दी आऊंगी” कहकर हिमांशी चली गई।
रात के आठ नौ बज गए। महिमा ने फोन किया पर फोन उठा नहीं। महिमा की नज़रें दरवाजे पर टिक गईं। मन में सोचने लगीं कि इतनी रात को लड़की का आना सुरक्षित नहीं है। कैसे कैसे समाचार तो रोज़ पढ़ने में आते हैं। जब दस बजने वाले थे तो उसने घबराकर मुकेश से कहा, “चलो हिमांशी को लेने। काफी रात हो गई है, उसका अकेले आना ठीक नहीं है।
दोनों लोग पूर्णिमा के घर पहुंचे। खाने का कार्यक्रम चल रहा था। पैरेंट्स को देखकर हिमांशी कुछ घबरा सी गई। पूर्णिमा के पैरेंट्स ने उनका अभिवादन कर उनकी चिंता का निराकरण करने की कोशिश करते हुए कहा, ” आपने क्यों तकलीफ़ किया। हम खुद पहुंचाने आते। रात में उसे अकेले थोड़े ही भेजते।”
मुकेश ने कहा,” ऐसी बात नहीं है। हमने सोचा कि चलो हमीं ले आते हैं। थोड़ा घूमना भी हो जाएगा।”
घर आकर किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा। सब लोग चुपचाप अपने अपने कमरे में चले गए। दूसरे दिन नाश्ते की टेबल पर मां हिमांशी से पूछ बैठीं, “हिमांशी! कल रात मैं तुम्हें फोन कर रही थी, फोन उठाया क्यों नहीं?”
” फोन किया था? शोर शराबे में सुनाई ही नहीं दिया। कुछ बात होती तो मैं ही फोन करती। आप तो बेकार में परेशान होतीं हैं ” हिमांशी ने बड़ी निडरता से जवाब दिया।
” *जब तुम मां बनोगी तब पता चलेगा। अभी मेरी चिंता परेशानी तुम्हारी समझ में नहीं आती।” महिमा ने नाराज़ होते हुए कहा।
मुकेश नाश्ते के लिए टेबल पर आ गए थे। माहौल गम्भीर देखकर बोले, ” जो बीत गया उसे ख़त्म करो और हिमांशी जब बाहर रहा करो तो फोन किया करो और हमारे फोन पर भी ध्यान दिया करो। हमें तुम्हारी सुरक्षा और सलामती की चिंता होने लगती है। चलो अब नाश्ता करो ।
स्वलिखित मौलिक
गीता अस्थाना,
बंगलुरू।