ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया – राजलक्ष्मी श्रीवास्तव

गांव में दो जुड़वां भाई थे—ओम और श्याम। दोनों एक ही खेत, एक ही मां-बाप और एक ही जीवन में पले-बढ़े, लेकिन किस्मत जैसे दोनों के लिए अलग-अलग किताबों में लिखी गई हो।

ओम पढ़ाई में तेज़ था, शहर गया, अफसर बन गया। बंगला, गाड़ी, शोहरत—सब कुछ मिला। उधर श्याम गांव में ही रह गया। खेतों में मेहनत करता, बारिश के भरोसे जीता और हर साल सूखा या बाढ़ से जूझता।

एक दिन ओम शहर से गांव आया। गाड़ी से उतरा, सूट-बूट में चमक रहा था। गांव वाले उसकी तारीफों के पुल बांधने लगे। श्याम मुस्कुराया, फिर धीरे से बोला, “भाई, तेरा भाग्य सच में चमक रहा है। देख, मैं तो आज भी उसी माटी में हूं।”

ओम कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “तू समझता है मैं खुश हूं? शहर में हर इंसान दौड़ता है, रिश्ते दिखावटी हैं, नींद गोलियों से आती है। माँ की रसोई, पिता की छांव, तेरी हंसी—सब याद आता है, पर अब लौट नहीं सकता।”

श्याम चौंका। “तू रो रहा है?”

“हां… शायद ईश्वर की माया यही है—तुझे मेहनत की धूप दी, पर मन की छांव; मुझे भौतिक छांव दी, पर मन की धूप।”

दोनो भाई एक दूसरे को देख मुस्कुरा दिए।

ईश्वर की माया सच में विचित्र थी—कहीं धूप थी, कहीं छांव, और कभी-कभी दोनों एक ही दिल में।

समाप्त।

स्वरचित मौलिक 

राजलक्ष्मी श्रीवास्तव

 जगदलपुर राजिम 

छत्तीसगढ

error: Content is protected !!