स्वार्थ भाव से ऊपर उठकर सब के प्रति सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना इंसानियत का आधार है ।एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान समझे, उसके सुख-दुख में साथ दें ,उसकी खुशी में खुश हो और गम में दुखी हो यही तो इंसानियत है ।इंसानियत कोई बहुत महानता या अभिमान की विषय वस्तु नहीं है ।
यह तो एक सामान्य भावना है जो हर इंसान में होनी ही चाहिए ।यह इंसान के इंसान होने की परिचायक है ।परंतु आज समाज में इंसानियत की यह सहज भावना कम ही लोगों में दिखाई देती है ।ईर्ष्या द्वेष ऊंच-नीच तेरा मेरा जैसी विषैली भावनाओं तले इंसानियत दब कर रह गई है फिर भी यदा कदा इंसानियत के उदाहरण देखने को मिल जाते हैं ।
मेरी कहानी की नायिका ने इंसानियत का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जिससे हर कोई प्रेरणा ले सकता है । यह आज से लगभग 60 साल पहले की बात है तब मैं 8 वर्ष की थी वह महिला छह बच्चों की मां थी ।पति की सीमित आय में घर का खर्च चलाना मुश्किल होता था।वो ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी पर बहुत मेहनती थीं
मैंने उन्हें कभी खाली बैठे नहीं देखा । सुबह 5:00 बजे उठकर नहा धोकर रसोई में जाती तो सबका नाश्ता , बच्चों का टिफिन, दोपहर का खाना बनाकर चौका बर्तन निपटाकर 10:00 बजे रसोई से निकलती।फिर मशीन लेकर बैठ जाती। सिलाई करना नहीं जानती थी
फिर भी सीधी-सादी सिलाई वाले लिहाफ, थैले,पाजामे जैसे कपड़े सिलकर घर खर्च में योगदान करती।पति महोदय तो हर महीने एक निश्चित राशि उनके हाथ पर रख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते।पर उस महिला के माथे पर शिकन नहीं आती थी।
वह जैसे तैसे घर का खर्च चला ही लेती। बच्चों की पढ़ाई के प्रति वो पूरी जागरूक थी।घर का काम मैं देख लूंगी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो वे बच्चों से कहती। सौभाग्य से उनके सब बच्चे पढ़ाई में अच्छे थे। पूरा मोहल्ला उन्हें अम्मा जी कहकर बुलाता था क्या बच्चे क्या बड़े स्त्रियां पुरुष सब उन्हें अम्मा जी कहते थे
अम्मा जी के मुख पर सदा एक सहज मुस्कान रहती ।वह हर जरूरतमंद की सहायता करने को तत्पर रहती।किसी के घर में शादी होती तो ऐसे खुश होते हैं जैसे उनके अपने बच्चे की शादी है और किसी का बच्चा अच्छे अंकों से पास होता तो वैसे ही खुश होकर आशीर्वाद देती जैसे अपने बच्चों को।
किसी की पत्नी बीमार है तो उसका खाना अम्मा जी के घर से जाता ।दिन में एक बार अम्मा जी बीमार पत्नी का हाल-चाल पूछने भी जरूर जाती ।बाजार जाते हुए कोई पड़ोसन अपने तीन बच्चों को अम्मा जी के पास छोड़ जाती ।एक बार पड़ोस में एक महिला का हाथ जल गया उस समय उसके घर में कोई नहीं था ।
अम्मा जी उसे डॉक्टर के पास लेकर गई और जब तक उसका हाथ ठीक नहीं हो गया तब तक हर रोज सुबह का खाना बनाकर उसके घर भेजती रही । दिन में उसकी बहन आ जाती तो शाम तक का काम वह सम्भाल लेती थी ।पूरी गली में किसी को सलाह-मशवरा करना होता तो वह निसंकोच अम्मा जी के पास आ जाते ।
सलाह के साथ अम्मा जी उन्हें चाय नाश्ता भी देती। पर मैंने उन्हें कभी कथा-कीर्तन में जाते नहीं देखा था जबकि पड़ोस की उनकी हम उम्र औरतें घंटों कीर्तन में बैठती। एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया – अम्मा जी !आप कीर्तन में क्यों नहीं जाती ,क्या आपको भगवान में विश्वास नहीं है ?
वह हंस कर बोली बेटा,मेरे लिए तो काम ही पूजा है घर का काम छोड़कर तीन-चार घंटे कीर्तन में लगाऊं यह मुझे ठीक नहीं लगता मैं तो एक बार सुबह उठकर ईश्वर को प्रणाम करती हूं और एक बार रात को सोते समय उसका धन्यवाद करती हूं बस यही मेरी पूजा है।
हमारे घर के पीछे वाली गली में बिहार से आए हुए कुछ युवक रहते थे ।अम्मा जी उनके पास जाकर बैठती,उनसे बातें करती और घर में कुछ खास बनता तो उन्हें जरूर देती। परिवार से दूर परदेश में वे बच्चे भी अम्मा जी मे अपनी मां का रूप देखते ।अम्मा जी उन्हें समझाती – देखो बेटा ,तुम घर बार छोड़ कर यहां पैसा कमाने आए हो
मेहनत से काम करना और किसी तरह के ऐब में मत पड़ना ।उनमें से कोई बीमार पड़ता तो अम्मा जी उसके लिए कभी दलिया बना कर ले जाती तो कभी खिचड़ी।कभी-कभी जरूरत पड़ने पर उन्हे दस- बीस रुपए उधार भी दे देती। अपने सीमित साधनों में वे यह सब कैसे करती थी भगवान ही जानता है।
अपनी तकलीफ अम्मा जी किसी को नहीं बताती थीं।उन्हें अक्सर सर दर्द हो जाता था । उनके रुमाल में जिसमें में कुछ पैसे रखकर वे अपने ब्लाउज में रखे रहती थी, एक सेरेडोन की गोली हमेशा रहती सर दर्द बढ़ने पर चुपचाप गोली खाकर थोड़ी देर लेट जाती बस।
अपने लिए किसी को क्या परेशान करना वह कहती। उनके बेटे की शादी हुई ।वह लड़की कुछ बीमार रहती थी और कोई दवा ले रही थी । अम्मा जी यह बात जानती थी फिर भी उन्होंने अपने बेटे के लिए उसका रिश्ता स्वीकार किया यह कहकर कि बीमार है, ठीक हो जाएगी ।
फिर ऐसा तो किसी की बेटी के साथ भी हो सकता है और शादी से पहले सब ठीक हो और बाद में बीमार हो जाए तो क्या करें! उनकी इसी शुभभावना के कारण उनकी चारों बेटियों को अच्छी ससुराल मिली और दोनों बेटों को अच्छी पत्नियां । ऐसी पुण्य आत्मा अम्मा जी एक दिन दोपहर को खाना खाकर सोई तो फिर किसी के जगाए नहीं जागी।
उनके स्वर्गवास की खबर मिलते ही सैंकड़ों की संख्या में लोग शोक प्रकट करने आने लगे। अम्मा जी के परिवार के लोग उन्हें जानते भी नहीं थे पर वो लोग अम्मा जी को जानते थे क्योंकि अम्मा जी ने किसी समय किसी ना किसी रूप में उनकी सहायता की थी। अम्मा जी के ना रहने से सब शोक संतप्त थे और मैं सबसे अधिक दुःखी थी क्योंकि अम्मा जी मेरी मां थी।
नीलम गुप्ता