इंसानियत – मीनाक्षी गुप्ता

‘गुलमोहर सोसाइटी’ के ब्लॉक-सी में वैसे तो बहुत सारे परिवार रहते थे, लेकिन यह कहानी थी—फ्लैट नंबर 201 और 202 में रहने वाले परिवारों की। इन दोनों घरों के बीच की दूरी महज़ दस कदम की थी, लेकिन इनके विचारों के बीच मीलों का फासला था।

फ्लैट नंबर 201 में मीरा जी का परिवार रहता था। मीरा जी का घर खुशियों और खुलेपन की मिसाल था। उनके पति सतीश जी की शहर के मुख्य बाज़ार में कपड़ों की एक बड़ी दुकान थी। घर में ससुर जी निशांत जी और सास शांति जी भी थे, जो उम्र के उस पड़ाव पर भी नई सोच का समर्थन करते थे।

मीरा के दोनों बच्चे, आर्यन और ईशा, शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ते थे। मीरा के घर का माहौल ऐसा था कि बच्चों के दोस्त अक्सर घर आते-जाते रहते थे। घर में सभी लोग मिलजुलकर और हंसी-खुशी रहते थे। यहाँ संस्कार का मतलब ‘पाबंदी’ नहीं, बल्कि ‘आपसी विश्वास’ था। मीरा जी खुद भी समय के साथ कदम मिलाकर चलती थीं ।

ठीक सामने वाले घर, फ्लैट नंबर 202 में राधिका जी रहती थीं। उनके पति रमेश जी की इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान थी। घर में तीन बच्चे थे—दो बेटे जो कॉलेज में थे

और सबसे छोटी बेटी सिया, जिसने अभी-अभी 12वीं पास की थी। राधिका जी के घर में कड़ा अनुशासन था। सास-ससुर, राधिका जी और उनके पति भी पुराने ख्यालों के थे। उनके घर में यही नियम था कि लड़कियों को घर के कामकाज आने चाहिए, क्योंकि शादी के बाद लड़कियों का काम घर संभालना ही होता था; और लड़कों को पढ़ाई के बाद पिता की दुकान पर बैठना था। राधिका के घर में ‘लड़का-लड़की की दोस्ती’ को पाप समझा जाता था।

राधिका जी अपनी बालकनी से अक्सर मीरा जी के घर की आवाजाही को देखतीं और ठंडी आह भरतीं। जब वे ईशा को उसके कॉलेज के दोस्तों के साथ हंसते हुए देखतीं, तो उन्हें बड़ा अजीब लगता था। वे अपनी सास से अक्सर कहतीं, “अम्मा जी, देखिए तो सही! कैसा ज़माना आ गया है।

सयानी लड़की है और लड़कों के साथ ऐसे बेझिझक हंस रही है। मीरा जी ने इतनी छूट दे रखी है, एक दिन इनको पछताना पड़ेगा।” मीरा जी की सास भी बहू की हाँ में हाँ मिलाकर बोलीं, “भगवान न करे इनके घर की परछाई भी हमारे घर पड़े, वरना हमारे संस्कार तो मिट्टी में मिल जाएंगे।”

अपनी इसी सोच के चलते राधिका जी के परिवार ने मीरा जी के परिवार से दूरी बना ली थी। कभी भी राधिका जी के परिवार का मीरा जी के परिवार से आमना-सामना होता, तो वे लोग नज़रें फेर लेते थे। उनके लिए मीरा जी का परिवार बिगड़ा हुआ था।

सिया 12वीं में 90% अंक लाई थी। एक शाम जब पूरा परिवार खाने की मेज़ पर बैठा था, सिया ने दबी आवाज़ में हिम्मत जुटाई और कॉलेज जाने की बात की। लड़की के मुँह से कॉलेज का नाम सुनते ही जैसे घर में कोहराम मच गया। अभी वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि रमेश जी ने थाली पर हाथ पटक दिया।

“आगे क्या? 12वीं करा दी, बहुत है। अब घर का काम सीख और सिलाई-कढ़ाई पर ध्यान दे। एक-दो साल में तेरे हाथ पीले करने हैं।” दादी ने भी सुर में सुर मिलाया, “हाँ सिया, ज़्यादा पढ़-लिखकर क्या करना है? वो सामने वाली ईशा को नहीं देखती? सारा दिन लड़कों के साथ घूमती है। राधिका, अपनी बेटी को संभाल,

कहीं उस पड़ोसन की हवा इसे भी न लग जाए। उनकी बेटी तो बिगड़ ही गई है, अब हमारी को भी ले डूबेगी।” राधिका जी ने बस नीची गर्दन करके सिया को चुप रहने का इशारा कर दिया।

उस रात सिया अपनी खिड़की से सामने वाले घर को देख रही थी। ईशा अपने लैपटॉप पर कुछ काम कर रही थी और मीरा जी उसके पास दूध का गिलास रखकर उसके सिर पर हाथ फेर रही थीं। सिया की आँखों से आँसू गिर पड़े थे। वह पूरी तरह टूट गई थी और सोसाइटी के पास बने मंदिर में बैठी रो रही थी। उसी वक्त वहाँ मीरा जी की सास शांति जी बैठी थीं। उन्होंने सिया को रोते देखा तो उसके पास आईं और पूछा, “सिया बेटा, तुम क्यों रो रही हो? क्या बात है?”

तब सिया ने शांति जी को सब कुछ बता दिया। शांति जी ने सिया से कहा कि वह रोए नहीं, वह भी उनकी पोती ईशा जैसी ही थी। शांति जी ने पूछा कि क्या वे सिया के माता-पिता से बात करें? यह सुनकर सिया डर गई और कहने लगी कि उसके माता-पिता बहुत रूढ़िवादी थे और अगर उन्हें भनक भी लग गई कि उसने शांति जी के परिवार से बात की है, तो वे उसका घर से बाहर निकलना बंद करवा देंगे। शांति जी ने उसे आश्वासन दिया कि वह घबराए नहीं और कल इसी समय मंदिर में मिले, वे इस समस्या का कुछ हल निकालेंगी।

शांति जी ने घर आकर सबको सिया के बारे में बताया। सबको बहुत दुख हुआ कि एक होनहार लड़की को उसका अपना ही परिवार रोक रहा था। तभी आर्यन ने सुझाव दिया कि सिया ‘ओपन’ से कॉलेज पढ़ सकती थी। सबको यह विचार पसंद आया। अगले दिन शांति जी अपने साथ मीरा और ईशा को मंदिर लेकर आईं और सिया को सब बताया, तो उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। सिया का अपना परिवार उसके खिलाफ था और जिन लोगों को उसका परिवार नापसंद करता था, वे ही उसकी मदद को आगे आए थे।

ईशा ने चुपके से सिया के लिए ‘ओपन कॉलेज’ का फॉर्म भर दिया। जब सिया ने पैसों की असमर्थता जताई, तो मीरा जी ने उसकी फीस भरी और कहा, “सिया, यह मेरा आशीर्वाद है। तुम मेरी बेटी जैसी हो, अभी तुम्हारी पढ़ाई का खर्च हम उठा लेंगे। जब तुम पढ़-लिखकर कुछ बन जाओगी, तब चाहो तो लौटा देना।” कॉलेज का पता ईशा के घर का दिया गया था ताकि कोई कागज़ राधिका के घर न पहुँचे।

इधर राधिका जी और उनकी सास ने तय किया कि सिया को सिलाई सीखने भेज देते हैं ताकि उसका मन लगा रहे। सिया ने उनकी बात मानते हुए सिलाई केंद्र जाना शुरू कर दिया। यहाँ सिया ने एक और हिम्मत दिखाई। उसने घर पर सिलाई की क्लास 2 घंटे की बताई थी, लेकिन असल में वह सिर्फ 1 घंटे की थी। बचे हुए 1 घंटे में वह बगल की गली में ‘ग्राफिक डिजाइनिंग’ का कोर्स करने लगी। सिया के भाई ने नया लैपटॉप लिया, तो सिया ने पुराना लैपटॉप यह कहकर मांग लिया कि वह इस पर सिलाई के नए डिज़ाइन देखेगी। अब सिया दोपहर में सिलाई और कोर्स करती और रात को उसी पुराने लैपटॉप पर ग्राफिक डिजाइनिंग की प्रैक्टिस करती थी। जो भी नोट्स या किताबें होतीं, ईशा रास्ते में आते-जाते समय सिया को लाकर दे देती थी। जब कॉलेज के एग्जाम आते, तो वह ‘मंदिर में सेवा या पूजा ’ का बहाना बनाकर पेपर देने जाती थी।

मीरा जी के परिवार ने अपनी ‘इंसानियत’ को पर्दे के पीछे रखा। वे सोसाइटी में सिया से बात नहीं करते थे ताकि किसी को शक न हो, लेकिन फोन पर वे सिया की हर मुश्किल आसान कर रहे थे। राधिका जी को लग रहा था कि उनकी बेटी के सर से पढ़ाई का भूत उतर गया था।

समय बीता और सिया अब कॉलेज के तृतीय वर्ष में थी। घर में रिश्ते की बात चल रही थी। लड़के वाले भले ही पुराने जमाने के थे, पर आजकल के लड़कों की सोच बदल रही थी; वे पढ़ी-लिखी पत्नी चाहते थे। कुछ लड़कों द्वारा रिजेक्ट किए जाने के बाद एक रिश्ता आया, जो सिया के बिल्कुल लायक नहीं था। लड़का कम पढ़ा-लिखा और उम्र में सिया से 10 साल बड़ा था और दहेज की मांग भी ज्यादा ही की थी। सिया छत पर खड़ी रो रही थी, तब मीरा जी ने उसे फोन करके पूछा तो उसने सब बता दिया।

मीरा जी ने उसे ढांढस बंधाया कि वे कुछ गलत नहीं होने देंगी। सिया के घर में भी सब परेशान थे। दादी का मानना था कि “अब क्या कर सकते हैं, लड़की की किस्मत में ही ऐसा वर लिखा होगा।”

सिया के भाई बोलते हैं, “आजकल जमाना बहुत आगे बढ़ गया है और हम तो खुद भी कम पढ़ी-लिखी लड़की से शादी नहीं करेंगे। भले ही लड़की नौकरी ना करे, लेकिन पढ़ी-लिखी होगी तो अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दे पाएगी।” सिया सुनकर दुखी है कि अपने परिवार की बेटी को पढ़ाना नहीं चाहते हैं और पत्नियां सबको पढ़ी-लिखी और काबिल चाहिए। वह अपने कमरे में रोने लगती है। सिया का परिवार भी बेमन से ही सही, शादी के लिए मान जाता है और लड़के वालों को ‘हाँ’ बोल देते हैं।

दो दिन बाद लड़के के माता-पिता, लड़के की दो बहनें और लड़का रिश्ता पक्का करने आते हैं। मीरा जी, जो दो दिनों से सोच रही थीं कि क्या किया जाए, वे लड़के वालों को घर के आगे खड़ा देखती हैं अपनी गैलरी से, तो उनको झटका लगता है। उनको उम्मीद नहीं थी कि सिया का परिवार इस रिश्ते के लिए मान जाएगा। वैसे भी आज रविवार का दिन था तो सभी लोग घर में थे। मीरा जी भागकर घर में जाती हैं और अपने सास-ससुर को यह बात बताती हैं। उनके पति और दोनों बच्चे भी सुन रहे होते हैं। सबको बहुत गुस्सा आता है और बुरा भी लग रहा होता है।

मीरा जी की सास शांति जी मीरा जी से कहती हैं कि वे सिया के सारे सर्टिफिकेट लेकर आएं। मीरा जी पूछती हैं, “आप क्या करेंगी इन सबका?” तो मीरा जी की सास कहती हैं कि सवाल-जवाब का समय नहीं है। मीरा जी जल्दी से सारे सर्टिफिकेट और सिया की कुछ बुक्स लेकर आती हैं। वे सभी राधिका जी के घर जाते हैं। राधिका जी का परिवार उनके आने से खुश नहीं है। वे अपनी नाराजगी जताते हैं और मीरा जी से उनके घर आने की वजह पूछते हैं। तभी ईशा सिया से कहती है, “अपना लैपटॉप लाओ।” सिया थोड़ा डरती है, फिर ले आती है। राधिका जी के सास-ससुर और पति पूछते हैं कि मीरा जी का परिवार उनके घर क्यों आया है और उनको घर से निकलने के लिए कहते हैं।

मीरा जी की सास सिया के भाई के हाथ में सारे सर्टिफिकेट रखती हैं। सब पूछते हैं, “ये क्या है?” सिया का भाई खुद हैरान है। फिर वह सबको बताता है, “ये सिया के सर्टिफिकेट्स हैं और इस हिसाब से सिया ग्रेजुएट है और ग्राफिक डिजाइनर है।”

जब भाई ने सबके सामने पढ़ा कि सिया न केवल ग्रेजुएट है बल्कि एक प्रोफेशनल ग्राफिक डिजाइनर भी है, तो सन्नाटा छा गया। ईशा ने सिया का लैपटॉप खोलकर उसका काम दिखाया। लड़के वाले, जो कम पढ़ी लिखी लड़की की उम्मीद में आए थे, भड़क गए और रिश्ता तोड़कर चले गए।

सिया का परिवार सदमे में है, उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि यह सब क्या हो रहा है। यहाँ मीरा जी की सास शांति जी सिया के परिवार को सब कुछ बताती हैं कि सिया बहुत मेहनती और अच्छी लड़की है और उसने बहुत मेहनत और लगन से यह सब किया है। सिया के भाई पढ़े-लिखे हैं, तो वे अपने माता-पिता और दादा-दादी को बताते हैं कि अगर सिया ने इतनी पढ़ाई की है, तो इसका मतलब है कि सिया आत्मनिर्भर है और उसको अच्छी सैलरी पर नौकरी मिल सकती है। वह घर बैठे भी जॉब कर सकती है और अब कोई भी अच्छा लड़का सिया से शादी करने के लिए मान जाएगा।

मीरा जी का परिवार वहाँ से चला गया। अगले दो-तीन दिन राधिका जी के घर में अजीब सी खामोशी रही। सिया डरी हुई थी, पर उसके माता-पिता और दादा-दादी, सब लोग शायद आत्मग्लानि में थे। उन्हें अपनी गलती का अहसास हो रहा था। किसी ने भी सिया से कुछ नहीं कहा।

कुछ दिनों बाद, शाम के समय मीरा जी के घर की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो सामने राधिका जी और उनके पति खड़े थे। राधिका जी की आँखों में नमी थी और हाथ में मिठाई का डिब्बा था। “बहनजी, क्या अपनी इस नासमझ पड़ोसन को माफ़ नहीं करेंगी? अंदर आने के लिए भी नहीं कहेंगी?” राधिका जी ने रुंधे गले से पूछा। मीरा जी ने मुस्कुराकर उन्हें अंदर बुलाया।

सिया के पिता ने मीरा जी के ससुर के पैर छुए और कहा, “सिया का रिश्ता एक बहुत अच्छे और आधुनिक परिवार में पक्का हुआ है। लड़के के परिवार का खुद का बिजनेस है और वे लोग चाहते हैं कि अगर सिया की मर्जी हुई तो वह उनके काम में मदद कर सकती है।” वे आगे कहते हैं, “अगर उस दिन आप लोग नहीं आते, तो मुझसे बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता। मैं अपनी हीरे जैसी बेटी की जिंदगी खराब कर देता। आपने न सिर्फ मेरी बेटी को पढ़ने में मदद की बल्कि मेरी आँखें भी खोल दीं।” राधिका जी की आँखें भी नम थीं।

शांति जी ने आगे बढ़कर राधिका जी का हाथ थाम लिया और बड़े ही सौम्य स्वर में कहा, “बेटा, संस्कार वो नहीं होते जो बेटियों के पंख काट दें, संस्कार तो वो हैं जो उन्हें इतनी ऊंची उड़ान दें कि वे पूरे परिवार का मान बढ़ा सकें।”

कुछ ही महीनों बाद सिया की शादी का दिन भी आ गया। पूरी सोसाइटी में शायद ही कोई ऐसी शादी हुई होगी जहाँ दो पड़ोसी एक ही परिवार की तरह जुटे हों। राधिका जी के परिवार ने मीरा जी और उनके पूरे परिवार को वह सम्मान और प्यार दिया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। शादी की हर रस्म और हर बड़े फैसले में मीरा जी का परिवार भी साथ था। ईशा अपनी सहेली सिया की शादी में सगी बहन की तरह हर जिम्मेदारी निभा रही थी।

जब सिया की विदाई का वक्त आया, तो उसने अपने माता-पिता के साथ-साथ मीरा जी और शांति जी के भी पैर छुए। उसने धीरे से मीरा जी के कान में कहा, “आंटी, अगर उस दिन आपने मेरा हाथ नहीं थामा होता, तो आज ये नई शुरुआत कभी मुमकिन नहीं होती।” मीरा जी ने उसे गले से लगा लिया और उनकी आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े।

गुलमोहर सोसाइटी के उस ब्लॉक-सी में आज एक नई सुबह हुई थी। अब फ्लैट नंबर 201 और 202 के बीच की वह ‘दस कदम’ की दूरी मीलों का फासला नहीं, बल्कि दोस्ती, सम्मान और अटूट इंसानियत का रास्ता बन चुकी थी। सच ही तो है, जब सही सोच और इंसानियत हाथ मिला लेते हैं, तो बंदिशों के अंधेरे को छंटने में देर नहीं लगती।

इस कहानी का उद्देश्य यह बताना है कि हर बच्चे का शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर समान अधिकार है। घर का माहौल ऐसा होना चाहिए जहाँ बच्चे अपनी बात बिना डर कह सकें। असली संस्कार आधुनिकता या रूढ़िवादिता में नहीं, बल्कि सोच और परवरिश में दिखाई देते हैं। आज के समय में बेटियों का आत्मनिर्भर होना ज़रूरी है ताकि वे भविष्य की परिस्थितियों का मजबूती से सामना कर सकें।

उम्मीद करती हूं आपको ये रचना पसंद आए। 

धन्यवाद 🙏 

मौलिक एवं स्वरचित रचना

सर्वाधिकार सुरक्षित (2025) मीनाक्षी गुप्ता

समाप्त

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