इंसानियत – डाॅ संजु झा

संसार में इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है। ‘मानवता परमो धर्म:’हिन्दू सनातन धर्म का आधार है।भारत की सभ्यता और संस्कृति मानवता का उद्गम स्रोत है। इंसानियत के नाते हमारे ऋषियों ने महान-से-महान त्याग किया है।ऋषि दधीचि ने तो अपनी अस्थियाॅं तक दान कर दी थी।

आधुनिक समय में भी इतिहास में कुछ ऐसे मनुष्य हुए हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही परोपकार और इंसानियत की सेवा में अर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद, गौतम बुद्ध, महावीर,मदर टेरेसा जैसी अनेक विभूतियों ने इंसानियत की मिसालें कायम की हैं।

 मानवता और इंसानियत की  पुजारी मदर टेरेसा का नाम आज अमर बन‌ गया है।मदर टेरेसा का नाम लेते ही उनके सम्मान में आज भी लोगों का हृदय प्यार और श्रद्धा से झुक जाता है।

मदर टेरेसा एक ऐसी कली थी , जिन्होंने अपनी छोटी उम्र से ही गरीबों, दरिद्रों और असहायों की जिंदगी में खुशबू बिखेरने लगीं थीं। उनकी जिंदगी समझने पर एहसास होता है कि सचमुच पूत के लक्षण पालने में ही दिखने लगते हैं।

इंसानियत की देवी मदर टेरेसा का जन्म स्कोप्जे, उत्तरी मेसोडेनिया में हुआ था।उनके जन्म का नाम अगेनस गोंझा बोयाजिजू था। अल्बानिया भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है।नाम के अनुरूप ही उनमें इंसानियत और सेवा-भावना बचपन से ही कूट-कूटकर भरी हुई थी।

इनके पिता एक साधारण व्यवसायी थे। ये पाॅंच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। जब इनकी उम्र मात्र आठ साल की थी,तभी  इनके पिता का निधन हो गया था। आर्थिक कठिनाईयों को दूर करने के लिए टेरेसा पढ़ाई के साथ-साथ गिरिजाघरों में भी गाया करतीं थीं।वहीं से इनमें इंसानियत का बीज अंकुरित होने लगा था।

मात्र बारह वर्ष की अवस्था में इन्हें आभास हो गया था कि इनका जीवन मानवता की सेवा के लिए हुआ है।उसी उम्र में इन्होंने प्रण किया कि ये अपना जीवन दीन-दुखियों की

सेवा में समर्पित करेंगी। इन्हीं कारणों से अट्ठारह साल की उम्र में इन्होंने ‘सिस्टर्स ऑफ लोरेटो ‘ में शामिल होने का फैसला किया, परन्तु कठिनाई यह थी कि इन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी। ‘सिस्टर्स ऑफ लोरेटो ‘ को अंग्रेजी की जानकारी आवश्यक

थी, क्योंकि इसी माध्यम से भारत में उनके द्वारा पढ़ाया जाता था।

अपने जुनून को पूरा करने हेतु मदर टेरेसा अंग्रेजी सीखने आयरलैंड गईं।उनकी मानवता की सेवा का सफर शुरू हो चुका था। अंग्रेजी सीखने के बाद वे आयरलैंड से 6 जनवरी 1929को  कलकत्ता पहुॅंचीं। वहाॅं पर उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू कर दिया। वहाॅं के वातावरण ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। वहाॅं पर बच्चे तथा सभी लोग उनके व्यक्तित्व और व्यवहार -कुशलता से काफी खुश थे। वहाॅं पर उन्होंने हेड मिस्ट्रेस के

तौर पर भी काम किया। आस-पास फैली गरीबी, दरिद्रता और लाचारी उनके मन को उद्वेलित करती रहती थी। मानवता के जुनून में इन्होंने अपना नाम बदलकर मदर टेरेसा रख लिया और इंसानियत का संकल्प ले लिया।मदर टेरेसा ने खुद लिखा है-“10सितम्बर 1940का दिन था,जब मैं वार्षिक अवकाश पर दार्जिलिंग जा रही थी,उसी समय मेरी अंतरात्मा से इंसानियत की  तेज पुकार उठी कि मुझे सब कुछ त्याग देना चाहिए और अपना जीवन जरुरतमंद इंसान और दरिद्रनारायण की  सेवा में समर्पित कर देना चाहिए।”

मदर टेरेसा ने इंसानियत के प्रचार-प्रसार के लिए दुनियाॅं भर का दौरा किया।उनका मानना था कि मानवता की सेवा इंसानियत के साथ होनी चाहिए। प्यार की भूख रोटी की भूख से बड़ी है।उनके विचार से मानवता की सेवा में प्रेम महत्त्वपूर्ण है। प्रेम हर मौसम में उगनेवाला फल है और वह प्रत्येक व्यक्ति के अंदर है!1943 के अकाल में कलकत्ता में बड़ी संख्या में लोगों की भूख से मौतें हुई,लोग गरीबी से बेहाल हो गए।बेबस दुखियों की स्थिति देखकर मदर टेरेसा का हृदय विदीर्ण हो उठता।वे इंसानियत के नाते दिन-रात उनकी मदद में लगीं रहतीं थीं।बस दीन-दुखियों की अनवरत सेवा ही उनकी जिंदगी का लक्ष्य बन चुका था।

1946 में एक बार फिर से हिन्दू -मुस्लिम दंगों में कलकत्ता में गरीबों, लाचारों की जिंदगी बेबस हो गई थी। दुःख की इस विपदा में  भी वे दुखियों और लाचारों के साथ खड़ीं थीं। उन्होंने खुद  मरीजों के घावों की साफ-सफाई, मरहम-पट्टी करने का काम किया। इसके बाद मदर टेरेसा की जिंदगी का दूसरा अध्याय शुरू हुआ।इस संस्था में उन्हें आत्म-संतुष्टि नहीं मिल रही थी। गरीबों, असहायों के लिए बहुत कुछ करना चाहकर भी नहीं कर पा रहीं थीं। उन्होंने लोरेटो संस्था को छोड़ दिया। कुछ दिनों तक उन्हें अपने जीवन -यापन के लिए दूसरों से भी मदद लेनी पड़ी। परन्तु आर्थिक कठिनाईयाॅं भी उनकी सेवा-भावना की राह में रुकावट नहीं बन रहीं थीं।कहा जाता है कि ‘जहाॅं चाह, वहाॅं राह’।वहीं उनके साथ भी हुआ। उन्होंने कठिनाईयों से घबड़ाकर हार नहीं मानी।

1950 ईसवीं में वेटिकन से ‘मिशनरी ऑफ चैरिटी ‘ की स्थापना की अनुमति मिलने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।उनकी संस्था ने समाज के उपेक्षित ,भूखे, बीमार हर प्रकार के रोगों से ग्रसित लोगों की सेवा को अपनी जिंदगी का उद्देश्य बनाया।लूले,लॅंगड़े, कुष्ठ रोगियों ,जिनका समाज ने‌ बहिष्कार कर दिया था, उन्हें उनकी संस्था ने प्यार से अपनाया।

इंसान की प्रवृत्ति होती है कि समाज में जो भी अच्छे काम करता है, उस पर भी आरोप लगाऍं जाते हैं।मदर टेरेसा पर भी अनेकों तरह के आरोप लगाऍं गए।कभी उनपर जबरन धर्म परिवर्तन को लेकर,तो कभी कैथोलिक धर्म-प्रचार का आरोप तो कभी उनकी चैरिटी द्वारा जुटाई गई धनराशि का दुरुपयोग का उन पर आरोप लगा, परन्तु इन बेबुनियादी आरोपों से मदर टेरेसा कभी भी विचलित नहीं हुई।वास्तव मे मदर टेरेसा बहुत ही कर्मठ व्यक्तित्व की महिला थीं।उनका मानना था कि जिन्दगी में कुछ लोग आशीर्वाद की तरह होते हैं और कुछ लोग सबक की तरह। आरोपों से वे सबक लेकर वे इंसानियत की मिसालें पेश करतीं गईं। सचमुच ‘सच्ची मेहनत और लगन से किया गया काम कभी भी असफल नहीं होता है’ यह कहावत मदर टेरेसा पर सच साबित हुई।

मदर टेरेसा की इंसानियत और सेवा-भावना की खुशबू सारे संसार में फ़ैल चुकी थी। इंसानियत  और निस्वार्थ सेवा के लिए उन्हें अनेकों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया।1962 में  दक्षिण या पूर्वी  एशिया में उनके  कार्य के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया।1962 में ही  मानवीय कार्यों के लिए  भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान दिया गया।1973में टेम्पलटन पुरस्कार  जीतने वाली पहली व्यक्ति  थीं। गरीबों और लाचारों की सेवा के लिए उन्हें 1979 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1980 में भारत सरकार द्वारा देश का सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न से उन्हें  नवाजा गया।2016 में वेटिकन सिटी में पोप फ्रांसिस ने उन्हें मदर संत की उपाधि से विभूषित किया।

उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया।5 सितंबर 1997 को इंसानियत की देवी ने अपनी आखिरी साॅंसें लीं। ‘मिशनरी ऑफ चैरिटी’का आरंभ  मात्र तेरह लोगों से हुआ था,पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय चार हजार से ज्यादा सिस्टर्स दुनियाॅं भर में अंधे,लूले, बूढ़े, गरीब, बेसहारा,बेघर, शराबी, एड्स तथा कुष्ठ प्रभावित लोगों का इलाज कर रहीं हैं। इंसानियत की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा जैसी विभूति को शत-शत नमन।उनके लिए इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं था।

समाप्त।

लेखिका -डाॅ संजु झा (स्वरचित)

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