राजेन्द्र जी घर के बरामदे में बैठे अखबार पढ रहे थे। मातंगी अपने स्कूल गई थी। अचानक उन्होंने देखा कि बाहर का गेट खोलकर बेटा समर्थ और बेटी सुचित्रा अन्दर आ रहे हैं। राजेन्द्र खुश हो गये – ” अरे…. आओ,…. आज एक साथ….. और बच्चे, बहू और दामाद कहॉ हैं? “
” हॉ, पापा। मैंने ही समर्थ से कहा कि इस बार साथ चलते हैं। आपसे जरूरी बातें करनी हैं, इसीलिये किसी को साथ नहीं लाये।”
” वह तो मैं तुम दोनों को एक साथ देखकर ही समझ गया था कि तुम दोनों किसी विशेष उद्देश्य से आये हो।” राजेन्द्र जी के शब्दों में व्यंग्य था।
राजेन्द्र जी की बात को अनदेखा करके समर्थ और सुचित्रा उनके पास ही कुर्सी पर बैठ गये। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि बात को कहॉ से शुरू करे। राजेन्द्र जी भी दोनों के आने का कारण समझ रहे थे।
राजेन्द्र ने सेवानिवृत्त के समय सोचा था कि अब माधवी के साथ मिलकर अपने अधूरे सपनों को पूरा करेंगे। खूब घूमेंगे फिरेंगे, अच्छा और पौष्टिक आहार लेंगे, योगा की कक्षाओं में जायेंगे। जीवन की आपाधापी और जिम्मेदारियों के कारण न अपने सपने पूरे कर पाये और न माधवी के।
पहले माता पिता और परिवार का दायित्व, फिर बच्चों की जिम्मेदारी – अपनी दोनों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की बलि चढाकर जिन्दगी भर दायित्व निभाते रहे। सेवानिवृत्त के पहले ही दोनों बच्चों के विवाह उनकी पसंद के साथी से करके इस जिम्मेदारी से मुक्त हो चुके थे। एक खुशहाल परिवार था।
बच्चे अलग अलग शहरों में अपने अपने परिवार के साथ व्यस्त थे। राजेन्द्र और माधवी पूर्ण स्वस्थ थे। बच्चों से कोई अपेक्षा नहीं थी। जब भी बच्चे आते तो घर में रौनक हो जाती। जाते समय वे लोग दोनों बच्चों को ढेर सारे उपहार और नगद रुपये देते। कभी भी बेटे या बेटी से एक रुपये की सहायता की आशा नहीं की।
उन दोनों के अतिरिक्त एक सदस्य और था उस परिवार में – वह थी माधवी की छोटी बहन मातंगी। राजेन्द्र और माधवी का जब विवाह हुआ उस समय मातंगी मात्र पन्द्रह वर्ष की थी अर्थात माधवी से आठ वर्ष और राजेन्द्र से पूरे बारह वर्ष छोटी। राजेन्द्र ने हमेशा मातंगी को साली कम बेटी ही माना था।
मातंगी के विवाह में राजेन्द्र और माधवी ने अपनी सामर्थ्य भर कपड़े, गहने और सामान भी दिया। मातंगी और देव बहुत खुश थे। एक वर्ष के अन्दर ही जब माधवी को मातंगी के गर्भवती होने की सूचना मिली तो मातंगी की मॉ से अधिक माधवी प्रसन्न थी।
मातंगी का छठा महीना लग चुका था और डॉक्टर ने मातंगी को पूर्ण आराम की सलाह दी थी। इतने दिनों के लिये पूरे घर की जिम्मेदारी छोड़ कर न तो मातंगी की मम्मी और न देव की मॉ जा सकती थीं।
उस समय माधवी के बच्चे भी छोटे थे। इसलिये देव की मॉ ने सलाह दी कि वह मातंगी को उनके पास आकर छोड़ दे तो यहॉ पर वह मातंगी की देखभाल कर लेंगी और बच्चे के जन्म के बाद जब मातंगी पूर्ण स्वस्थ हो जाये तो वापस चली जाये।
माधवी के भाई भाभी ने जिम्मेदारी से बचने के लिये स्पष्ट कह दिया कि ऐसे समय लड़कियों का ससुराल में रहना ही उचित है वरना कुछ ऊॅच नींच होने पर लोग उन्हें ही दोष देंगे। माधवी के माता-पिता भी बेटे बहू के विरुद्ध कुछ न कर पाये।
इतने दिन पहले से मातंगी को भेजने के लिये देव का बिल्कुल मन नहीं था लेकिन मातंगी ने देव को समझाया। उसे यह व्यवस्था अधिक उचित लगी – ” इतने दिन तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा मैं?”.
” हर व्यक्ति की अपनी समस्यायें हैं। इस समय तुम्हारे बच्चे की भलाई के लिये अम्मा जी की बात मानना ही उचित है। सुबह टैक्सी से चलेंगे और शाम के चार बजे तक पहुंच जायेंगे।”
लेकिन खुशियों को ग्रहण लग गया। रास्ते में एक मोड़ पर सामने से आते ट्रक को उनकी टैक्सी दिखाई नहीं दी। जब तक देव कुछ समझ पाता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
तीन दिन बाद जब मातंगी को होश आया तो उसकी कोख और सिन्दूर दोनों उजड़ चुका था। देव और ड्राइवर की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई थी। मातंगी की ओर का दरवाजा खुल गया था,
इसी कारण वह उछलकर दूर जा गिरी, चोटें इतनी अधिक थीं कि मातंगी को स्वस्थ होने में कई महीने लग गये। गर्भस्थ शिशु दुनिया में आने से पहले ही चला गया था साथ ही डॉक्टर ने यह भी कह दिया था कि मातंगी अब कभी मॉ नहीं बन पायेगी।
मातंगी का सब कुछ लुट गया पहले तो उसे कुछ बताया ही नहीं गया लेकिन सत्य को कब तक छुपाकर रख सकते हैं। ससुराल वाले एक बार भी मातंगी को देखने अस्पताल नहीं आये। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि जब उसका बेटा ही चला गया तो उन्हें मातंगी से कोई मतलब नहीं है।
भाई भाभी के विरोध के बावजूद कोई रास्ता न देखकर मातंगी के मम्मी पापा उसे घर लिवा लाये। मातंगी इस भयावह सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रही थी और घर में उसके भाई भाभी ने कलह मचा दी। उन लोगों का स्पष्ट कहना था – ” माता पिता चाहें तो अपनी बेटी को लेकर कहीं भी जा सकते हैं लेकिन वह मातंगी की जिम्मेदारी नहीं उठायेगा।”
पिता का भी यही कहना था कि मातंगी अपनी ससुराल चली जाये और वे लोग जैसे रखना चाहें, वैसे रखें। अब वही उसका घर है। वे दोनों बेटे के सहारे हैं और बुढ़ापे में उसके साथ ही रहेंगे। देव की प्राइवेट और नई नौकरी थी, इसलिये न तो मातंगी को नौकरी ही मिली और न ही इतनी धनराशि कि वह अपना जीवन यापन कर सके।
देव ने शादी के पहले जो बीमा करवाया था, उसमें नामिनी के रूप में उसकी मॉ का नाम था तो बीमा की राशि उसकी मॉ को मिल गई। देव ने शादी बाद कई बार नामिनी बदलने को सोचा तो मातंगी हॅसकर कह देती मेरा और अपने बच्चे दोनों का एक साथ नाम अंकित करवाइयेगा
मॉ बेटी की स्थिति देखकर छटपटाती रहतीं। कभी वह ठीक रहती, कभी वह भूल जाती कि उसके साथ क्या घटित हो चुका है।
एक दिन माधवी के पास मम्मी का फोन आया कि वह राजेन्द्र को साथ लेकर आ जाये। सास के पास दोनों बच्चों को छोड़कर वह मायके आई तो एक विकट समस्या सामने खड़ी थी।
माधवी के भाई भाभी बच्चे को लेकर घर छोड़कर चले गये थे और यह कहकर गये थे कि घर में जब तक मातंगी रहेगी वह वापस नहीं आयेंगें- ” लेकिन बहू वह कहॉ जायेगी? मुसीबत में लड़कियों का आसरा मायका ही होता है।”
पत्नी के कुछ बोलने के पहले ही भाई बोल पड़ा – ” जब तक पापा कमाते थे तब तक तुम लोगों का घर तुम्हारी लड़कियों का मायका था लेकिन अब यह घर मेरी कमाई से चलता है तो अब यह इनके भाई भाभी का घर है और भाई के घर में मेहमान की तरह आया जाता है। भाभी का मन होगा तो पानी को पूंछेगी वरना कोई अधिकार नहीं है इनका।”
” मैं इस मनहूस और अभागिन का साया भी अपने गोद के और आने वाले बच्चे पर नहीं पड़ने देना चाहती। अपना पति और बच्चा तो खा ही गई है और साथ ही बांझ भी बन गई है। “
” ऐसा मत कहो बहू, यह मनहूस और अभागिन नहीं है, विपत्ति की मारी है। इस पर दया करो।”
” इसे कहीं भी भेजो, हमसे मतलब नहीं है लेकिन हम लोग जा रहे हैं और तभी लौटकर आयेंगे जब यह इस घर में नहीं होगी।”
माधवी और राजेन्द्र की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। माधवी के पापा कह रहे थे कि मैंने एक बार शादी कर दी, अब यह उनके घर की बहू है, मैं कल उनके घर जाकर इसे छोड़ आऊॅगा। कुछ भी हो इकलौते बेटे को तो नहीं छोड़ा जा सकता। अब वही बुढ़ापे का सहारा है।”
माधवी और राजेन्द्र से मम्मी और मातंगी के ऑसू देखे नहीं जा रहे थे। आखिर राजेन्द्र ने एक निर्णय लिया। उसने माधवी को अकेले में बुलाकर – ” मधू, मैं इस घर के लिये बाहरी व्यक्ति हूॅ, इसलिये तुम जाकर अपना निर्णय सुनाओ कि हम लोग मातंगी को लेकर जा रहे हैं और आज के बाद किसी का उससे कोई मतलब नहीं रहेगा।”
मातंगी को लेकर राजेन्द्र और माधवी घर आ गये। दो बच्चों की तरह मातंगी को भी उन दोनों ने अपना तीसरा बच्चा मान लिया। राजेन्द्र ने अपनी सीमित आमदनी से सबसे पहले मातंगी का इलाज करवाया जिससे वह पूर्ण स्वस्थ हो गई। उसके बाद उसकी पढ़ाई शुरू करवा दी। मातंगी ने एम० ए० करके बी० एड० कर लिया और उसे नौकरी भी मिल गई।
मातंगी को माधवी ने विधवा की तरह नहीं रहने दिया। वह भी माधवी की बेटी सुचित्रा की तरह ही रहती थी।
राजेन्द्र के साथ माधवी तो कभी-कभी मायके जाती भी थी लेकिन मातंगी कभी मायके नहीं गई। बच्चों के कार्यक्रमों में भाई और पापा बुलाने भी आये लेकिन मातंगी ने एक ही उत्तर दिया – ” मेरे कारण मेरे भाई और पापा का घर बरबाद हो, मैं नहीं चाहती। आप लोग खुश रहो, अब दीदी ही मेरी मम्मी और जीजाजी ही मेरे पापा हैं।”
” बीती बातों को कुरेदने से कोई फायदा नहीं है। चलो, मैं तुम्हें बुलाने आया हूॅ। अपने भतीजे भतीजी को चलकर आशीर्वाद दो।”
” जिसकी छाया तक मनहूस है, उसके आशीर्वाद से बच्चों का क्या कल्याण होगा?समझ लीजियेगा कि उस एक्सीडेंट में देव के साथ मातंगी भी मर गई।”
यहॉ तक माता पिता की मृत्यु पर भी उसने श्मशान में जाकर उन दोनों के अन्तिम दर्शन किये लेकिन एक बार दुत्कार कर निकाल दिये जाने के बाद दुबारा उसने पिता के घर की चौखट पर पैर नहीं रखा
समय के साथ तीनों बड़े होते गये। राजेन्द्र और माधवी चाहते थे कि मातंगी का दुबारा घर बस जाये और मातंगी का वैधव्य अधिक बड़ी समस्या नहीं था लेकिन पैर से विकलांग और कभी मॉ न बन पाने की कमी के कारण मातंगी के लिये कोई रिश्ता मिल नहीं रहा था।
मातंगी को जब पता चला तो वह माधवी और राजेन्द्र के सामने फूट फूटकर रो पड़ी – ” मुझे दो घरों से मनहूस और अशुभ कहकर निकाल दिया गया है। अब आप लोग मुझे अपने घर से मत निकालो।”
” हम तुम्हें निकाल नहीं रहे हैं लेकिन जिन्दगी अकेले नहीं कटती। हम प्रयत्न कर रहे हैं, तुम चिन्ता मत करो कोई न कोई साथी तुम्हें मिल ही जायेगा।”
” आप लोगों ने माता पिता से अधिक मेरे लिये किया है और आप ही मेरे सब कुछ हैं और ये बच्चे ही मेरे बच्चे हैं। अगर आप लोग मुझे निकालना चाहते हैं तो जब कहेंगे, मैं आप सबसे दूर चली जाऊंगी लेकिन अब कभी शादी के लिये मत कहियेगा। मैं देव की अमानत हूॅ और चिता तक उनकी अमानत बनकर ही जाना चाहती हूॅ।
भले ही अभी कोई मुझसे भावुकता या मेरी नौकरी के लालच में शादी कर ले लेकिन कुछ ही दिनों बाद उसे और उसके परिवार को मेरी कमियां खटकने लगी हैं। आप लोगों ने मुझे नया जीवन दिया है, वरना यदि ससुराल या मम्मी के घर में होती तो तानों और उलाहनों से तंग आकर आत्महत्या कर चुकी होती।”
माधवी ने उसे गले से लगा लिया – ” मेरा कर्तव्य था सब कुछ करना लेकिन •••••।”
” नही दीदी, मुझे अपनी छत्रछाया में रहने दीजिये।”
इसके बाद भी राजेन्द्र और माधवी ने बहुत प्रयत्न किया लेकिन कोई भी मातंगी को उसकी कमियों सहित अपनाने वाला नहीं मिला।
मातंगी भी परिवार में पूरी तरह रच बस गई। उसकी चंचलता लौट आई। उसे दोनों बच्चों के साथ हंसते, खेलते, मुस्कराते और शरारत करते देखकर राजेन्द्र दम्पत्ति का मन सुखद आह्लाद से भर उठता।
दोनों बच्चों की उच्च शिक्षा और एक सपनों का सुन्दर सा घर खरीदना शायद मातंगी के बिना संभव न होता। माधवी के मना करने पर वह रोने लगी – ” क्या करूंगी अपने वेतन के पैसे का। आप लोगों के सिवा मेरा है ही कौन? क्या आप मुझे अपना नहीं समझते?”
” ऐसा नहीं है लेकिन तुम हम लोगों से छोटी हो, तुम्हारे पैसे हम कैसे ले सकते हैं?”
” क्या ये बच्चे मेरे नहीं हैं? क्या मैं आप दोनों की बेटी नहीं हूॅ? जब आप दोनों ने माता पिता का फर्ज निभाया है तो मुझे मेरे कर्तव्य से वंचित क्यों कर रहे हैं?”
दोनों बच्चे उच्च शिक्षा के लिये घर से बाहर गये तो घर में तीन व्यक्ति ही रह गये। बच्चे एक बार बाहर गये तो परदेशी ही हो गये। पहले शिक्षा, फिर नौकरी, फिर शादी। अब बच्चों के आने पर एक अतिथि के आने का भाव ही रहने लगा। पक्षियों की तरह वे कुछ दिनों के लिये आते तो पूरा समय उनके स्वागत सत्कार में ही निकल जाता। अब मातंगी ही उन दोनों का सहारा थी।
सेवानिवृत्त के पहले तीनों ढेरों योजनायें बनाया करते लेकिन कुछ भी पूरी नहीं हुई। सेवानिवृत्त के दो महीने बाद ही पता नहीं कैसे माधवी का पैर सीढ़ियों से फिसल गया और सिर पर बहुत चोट आ गई। एक सप्ताह तक अचेत रहने के बाद वह सबका साथ छोड़ कर चली गई।
इस आकस्मिक घटना से राजेन्द्र अवाक रह गये। उनका तो जैसे सब कुछ लुट गया था। कैसे रहेंगे वह माधवी के बिना। माधवी बिना भी जीवन कुछ है, यह बात तो वह भूल ही चुके थे।
अंतिम संस्कार और कर्म काण्ड के बाद दोनों बच्चे वापस लौट गये। राजेन्द्र जैसे सुध बुध खोकर अर्धचेतन से हो गये। न खाने की सुध, न नहाने का ध्यान। जहॉ बैठ जाते, शून्य में ताकते हुये घंटों बैठे रहते। माधवी की तस्वीर से न जाने क्या बोलते रहते।
मातंगी उनका पूरा ध्यान रखती। मातंगी पर वह पूरी तरह निर्भर हो गये। राजेन्द्र की स्थिति देखकर मातंगी को अपना बीता समय याद आ जाता। देव को खोकर उसकी भी तो ऐसी ही दशा हो गई थी, सब ओर निराश्रित और जर्जर उसे इन्हीं लोगों ने सम्हाला था।
वह राजेन्द्र का मन बहलाने और इस दुख से निकालने का हर संभव प्रयास करती। हालांकि माधवी का इस तरह जाना उसके लिये भी किसी भयंकर आघात से कम नहीं था लेकिन उसने अपने दुख को भीतर ही दबा लिया। वह जानती थी कि इस समय दीदी की अमानत अपने जीजू को सम्हालना ही उसका पहला कर्तव्य है।
एक वर्ष से अधिक समय बीत गया था। मनोचिकित्सक का प्रयास भी अधिक कार्य नहीं कर पा रहा था। एक दिन मातंगी ने रोते हुये राजेन्द्र के पैरों में अपना सिर रख दिया – ” जीजू, आपने सदैव मुझे अपनी बेटी माना है, आपके सिवा मेरा कोई नहीं हैं। दीदी हम दोनों को एक दूसरे के सहारे जीने के लिये छोड़ कर चली गई हैं। अपनी इस बेटी के लिये अपने आप को सम्हाल लीजिये।”
पता नहीं क्यों इस बात से राजेन्द्र के मन पर जमी बर्फ पिघल गई। वह मातंगी के सिर पर हाथ रखकर फूट फूटकर रो पड़े – ” मुझसे गल्ती हो गई बेटा। हम दोनों का दुख एक ही है, फिर मैं अपने दुख में तुम्हें भूल कैसे गया? हम दोनों ने ही अपने सबसे प्रिय को खोया है।”
उस दिन दोनों बहुत देर तक रोते रहे और उस दिन के बाद से धीरे धीरे राजेन्द्र ने भी इस यथार्थ को स्वीकार कर लिया कि जीवन की राह पर कोई तो पहले जायेगा ही। किसी के जाने से जीवन समाप्त नहीं हो जाता और उन्होंने अपने को सम्हालना सीख लिया। उन्होंने हंसना, मुस्कराना, सुबह टहलना, दोस्तों से मिलना शुरू कर दिया।
जब तक राजेन्द्र की स्थिति ठीक नहीं थी, तब तक बेटे और बेटी फोन से उनका समाचार पूॅछते रहे और मातंगी से वीडियो कान्फ्रेंसिंग के द्वारा कहते – ” मौसी, आप ही पापा को सामान्य कर सकती हैं क्योंकि आप उनका बड़ा बच्चा हैं। हम दोनों तो पढाई, नौकरी और शादी के कारण बहुत पहले आप सबसे दूर आ गये थे, अब मम्मी के बाद आप ही उनकी निकटतम हैं।”
मातंगी रोने लगती – ” मैं पूरी कोशिश कर रही हूॅ लेकिन दीदी के जाने से हम दोनों के दिलों में इतना सूनापन आ गया है कि समझ में नहीं आता क्या करूं? और विडम्बना यह है कि मैं जीजू के सामने रो भी नहीं सकती। अपने घायल और टूटे दिल को सम्हाल नहीं पा रही हूॅ।”
” हम समझते हैं मौसी लेकिन क्या करेंगी? आपको ही हिम्मत से काम लेना होगा तभी आप पापा और घर को सम्हाल पायेंगी। मम्मी का साथ इतने दिन का ही था।”
राजेन्द्र के सामान्य होते ही दोनों बच्चे उनसे मिलने आये। उन्हें भी बहुत अच्छा लगा, घर में रौनक हो जाती। मातंगी उनका माधवी की तरह ही ख्याल रखती।
अब बच्चे जल्दी जल्दी आने लगे। अब दोनों बच्चे उन्हें अपने साथ ले जाने की जिद करने लगे। राजेन्द्र ने जीवन भर बाहर की दुनिया देखी थी, उन्हें समझ में आने लगा कि आगे क्या होने वाला है?
वह मातंगी को कचहरी ले गये और कुछ ऐसा कार्य किया जिसे समय आने पर ही उजागर करना था। हालांकि उन्हें मातंगी को मनाने में बहुत श्रम करना पड़ा – ” मैं आपकी बेटी हूॅ, ऐसा मत करिये। मेरे लिये आपकी छत्रछाया ही बहुत है। मैं ईश्वर से रोज प्रार्थना करती हूॅ कि आपके हाथों मेरा अन्तिम संस्कार हो।”
” तुम बेटी हो और बेटी ही रहोगी लेकिन आने वाले भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये यह आवश्यक है और जब तक बहुत आवश्यक न हो किसी से इस सम्बन्ध में बताने की आवश्यकता नहीं है। माधवी और मैं तुम्हें इस घर में लाये थे, इसलिये तुम मेरी जिम्मेदारी हो।”
इस बार बेटा और बेटी साथ आये। उन दोनों के बार बार के आग्रह से वह उन लोगों के साथ कुछ दिनों के लिये जाने को तैयार हो गये- ” कुछ दिनों के लिये नहीं पापा, हमेशा के लिये। अब आप जब मन हो मेरे और जब मन हो समर्थ के साथ रहियेगा। आप यहॉ का सब बेच दीजिये, हम लोग एक सप्ताह की छुट्टी लेकर आये हैं। आपका बैंक सम्बन्धी सारा कार्य करवा देंगे लेकिन अब यहॉ आपको अकेले नहीं छोड़ सकते।”
” मैं अकेला कहॉ हूॅ, मेरे साथ मातंगी है। माधवी के बाद उसने ही मुझे सम्हाला वरना शायद तुम मॉ के साथ अपने पापा को भी खो चुके होते।”
” यह तो उनका कर्तव्य था, आप लोगों ने भी तो उनके साथ बहुत कुछ किया है।”
” किया तो तुम लोगों के साथ भी था लेकिन जब तक मैं सामान्य नहीं हो गया, तुम लोगों ने कभी अपने साथ ले चलने के लिये नहीं कहा, बल्कि तुम लोगों ने आना ही छोड़ दिया था और जब मातंगी की सेवा और प्रयासों में सामान्य हो सका हूॅ तो तुम लोग चाहते हो कि मैं स्वार्थी बन जाऊॅ। कभी सोचा है कि मातंगी कहॉ जायेगी? अभी उसकी नौकरी है।”
” यह सोचना उनका काम है। वर्किंग स्त्रियों के लिये तमाम हॉस्टल हैं, अपने लिये फ्लैट लेकर रह सकती हैं।” समर्थ का तर्क था।
” लेकिन क्यों? मैं क्यों उसे ऐसे अकेले छोड़कर तुम लोगों के साथ जाऊॅ और बंजारों की तरह तुम दोनों के घरों में भटकता रहूॅ? जबकि यहॉ मेरा घर, शहर, दोस्त सब हैं। इस घर में माधवी और तुम दोनों की यादें हैं।”
दोनों चुप तो हो गये लेकिन राजेन्द्र ने देखा कि दोनों एक दूसरे से इशारों द्वारा कुछ कहने के लिये कह रहे हैं – ” क्या बात है, कुछ और भी कहना है क्या? अब मैं कुछ दिनों के लिये भी तुम लोगों के साथ नहीं जाऊॅगा। मैं अपने घर में खुश हूॅ।”
आखिर सुचित्रा ही बोली – ” आपको पता भी है कि आप दोनों के एक साथ अकेले घर में रहने से लोग क्या क्या बातें करते हैं। हम इज्जतदार लोग हैं, इसलिये आपको यहॉ से ले जाना चाहते हैं। अभी तक मम्मी थीं तो कोई बात नहीं थी लेकिन अब आप लोगों का इस तरह रहना आप लोगों के साथ हम लोगों को भी बदनामी दे रहा है।”
राजेन्द्र कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले – सुम्मी, अगर तुम्हारी शादी न हुई होती और मधु के जाने के बाद तुम और मैं साथ रहते तो…..।”
” दीदी आपकी बेटी हैं पापा।” इस बार समर्थ बोला।
” मातंगी भी मेरी बेटी है, मुझसे बारह साल छोटी है।”
” इस बात को आप जानते हैं, समाज ऐसे सम्बन्ध नहीं मानता। आपको तो पता भी नहीं है कि हम लोगों को आपके कारण कैसी बातें सुननी पड़ती है। इसी कारण हम लोगों ने आना छोड़ दिया था।”
” अब तुम्हारी और तुम्हारे तथाकथित लोगों की सोंच तो मैं बदल नहीं सकता लेकिन सच्चाई को किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास आने से तुम लोगों की इज्जत खराब होती है तो आज के बाद मत आना और न ही मुझसे सम्बन्ध रखना। समझ लेना कि मॉ के साथ ही तुम्हारा बाप भी मर गया। मैं समझ लूंगा कि मेरे दोनों बच्चे विदेश चले गये हैं।”
समर्थ और सुचित्रा ने ऑखों ही ऑखों में एक दूसरे से बात की, फिर समर्थ ही बोला – ” ठीक है, आपको हमसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना तो हमें सम्पत्ति में हमारा हिस्सा दे दीजिये।”
” हिस्सा! कैसे हिस्सा? तुम दोनों ने अपनी-अपनी नौकरी में कितना कमाया, कभी मुझे एक भी पैसा दिया है क्या? मैंने कभी न तुम दोनों की आमदनी पूॅछी और न तुम लोगों से कुछ मॉगा फिर मेरी कमाई, मेरी सम्पत्ति में हिस्सा मॉगने का तुम्हें क्या अधिकार है? मैं जिसको मन होगा उसे दूंगा, तुम लोग इस सम्बन्ध में कुछ भी कहने वाले कौन होते हो?”
दोनों अवाक रह गये – ” हम आपके बच्चे हैं पापा। हमारे सिवा आपका दूसरा कौन है? मौसी, अब सक्षम हैं, आप लोगों ने उनके प्रति अपने कर्तव्य पूरे कर दिये। एक गैर के लिये आप अपनी और हमारी बदनामी क्यों करवा रहे हैं? उनसे आपका कोई रिश्ता नहीं है, वह मम्मी की बहन हैं और समाज ऐसे रिश्तों पर उंगली उठाता ही है। समाज को स्त्री और पुरुष के बीच एक ऐसा रिश्ता चाहिये जो स्थाई और सगा हो।”
” ठीक है, तुम लोग भी देख लो और चाहो तो अपने तथाकथित समाज को भी बता देना।”
राजेन्द्र उठकर भीतर गये और कुछ कागजात उठा लाये। उन कागजातों को देखकर दोनों बच्चों के होश उड़ गये। राजेन्द्र और मातंगी के कोर्ट में शादी के प्रमाण के अतिरिक्त राजेन्द्र ने अपना सब कुछ मातंगी के नाम कर दिया था साथ ही मृत्यु उपरान्त देहदान का संकल्प पत्र भी भर दिया था।
दोनों बच्चों को स्तब्ध देखकर राजेन्द्र मुस्करा दिये – ” मातंगी हमेशा मेरी बेटी रहेगी लेकिन तुम्हारे जैसी मानसिकता और इज्जतदार लोगों के लिये मैंने यह व्यवस्था पहले ही कर ली है। अब जाओ, सन्तान बनकर पहले की तरह आना चाहो तो घर के दरवाजे हमेशा खुले हैं लेकिन इज्जतदार बनकर आना चाहो तो कभी मत आना। मैंने तुम लोगों को अन्तिम संस्कार, अर्थी को कंधा देने और मुखाग्नि देने के दायित्व से मुक्त करने के लिये अपना और मातंगी का देहदान कर दिया है।”
राजेन्द्र की ऑखों से ऑसू बहने लगे – ” तुम इज्जतदार लोगों को मेरे जैसे बदनाम व्यक्ति के पास आने की कोई जरूरत नहीं है। मातंगी के आने के पहले तुम लोग वापस लौट जाओ, मैं नहीं चाहता कि पहले ही अन्दर से जर्जर हो चुकी उसे तुम्हारी इन बातों से कष्ट हो। उसने तुम दोनों को माधवी से कम ममता नहीं दी है। एक मॉ का हृदय अपनी ही सन्तान का ऐसा घिनौना रूप सहन नहीं कर पाता है। तुम लोगों को उसे मेरी बेटी, मेरी पत्नी जो मानना हो मान लो लेकिन कागजों के अतिरिक्त वह मेरी बेटी ही रहेगी।”
इतना कहकर राजेन्द्र ने अखबार उठा लिया – ” ठीक है, हम जा रहे हैं और अब कभी नहीं आयेंगे।”
दोनों ने अपने अपने सूटकेस उठा लिया, राजेन्द्र कुछ न बोले केवल अपनी बहती हुई ऑखों से दो इज्जतदार लोगों को गेट खोलकर बाहर जाते हुये देखते रहे।
****स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित*******
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर