हरिया चाचा – के आर अमित

स्कूल के छोटे बच्चे उनके आसपास बैठकर शरारतें किया करते कभी उनके औज़ार छुपा देते कभी जूते में छोटी कंकड़ डालकर चाचा को हँसी में परेशान करते। कभी कभी तो चाचा के थैले से निकालकर उसकी रोटी और आचार भी खा जाते। हरिया चाचा भी मुस्कुराकर सब सह लेते जैसे वो बरगद का पेड़ हों जिसकी छाया में हर कोई निश्चिंत हो जाता है। पर समय बदलता है और बच्चों के दिल भी।

गाँव के किनारे पुराने स्कूल वाले रास्ते पर एक विशाल बरगद का पेड़ शायद गाँव का सबसे पुराना सबसे शांत और सबसे जीवित प्रतीक जिसकी छांव में न जाने कितनी नन्ही पीढ़ियां ने सपने बुने होंगे । उसकी जटाएँ ज़मीन को ऐसे छूती थीं जैसे धरती की धड़कन महसूस कर रही हों। उसी पेड़ की छाँव में थी हरिया चाचा की छोटी-सी मोची की दुकान जिसमे दो लकड़ी के बक्से एक पुरानी लालटेन कुछ औज़ार और चाचा की वही पहचान बन चुकी मुस्कान।

कहानी हिमाचल प्रदेश के छोटे से कस्वे अम्ब की है यहां कभी कबार पालमपुर धर्मशाला या मैक्लोडगंज जाने वाला कोई टूरिस्ट घूमते हुए आ जाता था। बरगद के पेड़ के नीचे की छांव तले बनी ये दुकान स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए यह जगह सिर्फ एक पेड़ या दुकान नहीं थी, बल्कि रोज़मर्रा की छोटी खुशियों का अड्डा थी। हरिया चाचा जब मुस्कुराकर कहते आओ बेटा लाओ जूता दिखाओ दो मिनट में ठीक हो जाएगा तो बच्चों के चेहरे खिल उठते।

बरगद के तने के पास एक मटका भी रखा रहता था। मिट्टी का बना मोटी सतह वाला जिसमें गर्मियों में भी अंदर का पानी ऐसा ठंडा कि हाथ लगाते ही सुकून उतर जाए। बच्चे आते जाते वहीं रुककर पानी पीते घड़े के पास ही गीली मिट्टी पर शहरों में न मिलने वाली ठंडक महसूस करते और हँसी मज़ाक के बीच अपने छोटे मोटे टूटे जूते बैग सिलवाते।हरिया चाचा पैसे वसूलते थे पर बच्चों से नहीं अरे तुमसे पैसे लूँगा तो भगवान मुझे क्या देगा उनका यह वाक्य उनमें बसे अपनापन की पहचान था।

स्कूल के छोटे बच्चे उनके आसपास बैठकर शरारतें किया करते कभी उनके औज़ार छुपा देते कभी जूते में छोटी कंकड़ डालकर चाचा को हँसी में परेशान करते। कभी कभी तो चाचा के थैले से निकालकर उसकी रोटी और आचार भी खा जाते। हरिया चाचा भी मुस्कुराकर सब सह लेते जैसे वो बरगद का पेड़ हों जिसकी छाया में हर कोई निश्चिंत हो जाता है। पर समय बदलता है और बच्चों के दिल भी।

जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए वैसे-वैसे समाज का बोझ उन पर उतरने लगा घर में मोहल्लों में खेतों में बैठकों में बुज़ुर्गों की बातों में जाति नाम का ज़हर धीरे धीरे उनके मन में डाल दिया गया। उस हरिया मोची का पानी पिया था तूने अरे वो नीची जात का है, दूर से बोल छू मत देना।क्या ज़रूरत थी वहाँ बैठने की घड़ा छू आया होगा नहाना पड़ेगा।

जो बच्चे कभी हरिया को चाचू कहकर खुशी से गले लगते थे वो अब अचानक उनके घड़े से पानी पीने पर खुद को कोसने लगे। जिन्होंने बचपन में उनकी गोद में बैठकर गप्पें मारी थीं अब पास से गुजरते भी नज़रें फेर लेते।

हरिया चाचा सब समझते था पर उनकी मुस्कान कभी कम नहीं हुई। दर्द जितना भीतर उतरता वो उतनी ही ऊँची आवाज़ में किसी बच्चे का टूटा जूता ठीक करते हुए कहते ये लो बेटा अब ठीक से दौड़ पाओगे। मगर गाँव में शादी-विवाह का समय आता तो हरिया चाचा को बुलाया तो जाता मगर जब वह किसी भी घर में जाते तो

उन्हें अलग चटाई अलग गिलास और कभी-कभी तो घर से बाहर ही बैठा दिया जाता। यहीं बैठिए चाचा अंदर आने की ज़रूरत नहीं। और फिर वही पुराना दर्द भोजन नहीं देंगे पानी अलग देंगे छूते समय हाथ धो लेंगे पर उसके हाथों से बने चमड़े के जूते घर के अंदर तक आराम से चले जाते उसमे कोई गुरेज नहीं होता था।

हरिया चाचा मन ही मन पूछते क्या मेरा काम पवित्र है और मैं अपवित्र?पर जवाब हवा में खो जाता। एक अनोखा दिन जिसने सब बदल दिया एक तपती दोपहर बरगद के नीचे काम में लगे हरिया चाचा अचानक सकपका गए जब एक गोरा सा आदमी उसकी पत्नी और दो टोपी पहने बच्चे उनकी दुकान के पास आए। साहसी खुले स्वभाव वाले उस अंग्रेज़ ने आते ही हाथ आगे बढ़ाया

Hello! You are the cobbler? We heard you are the best here.

हरिया चाचा हड़बड़ा गए।उन्होंने अपना हाथ पीछे खींचने की कोशिश की पर अंग्रेज़ ने गर्मजोशी से उसका हाथ पकड़ लिया।चाचा का दिल धक से रह गया किसी ने पहली बार उन्हें ऐसे छुआ था जैसे वे इंसान हो और बराबर हों।अंग्रेज़ महिला ने उसके घड़े से बिना झिझक पानी पी लिया।

उसने मुस्कुराकर कहा

“Very refreshing! Best water we’ve had today.”

हरिया चाचा अवाक दोनों पति-पत्नी उनके पास बैठ गए, ऐसे जैसे कोई पुराना दोस्त हो।उन्होंने सैंडल ठीक करवाए काम की तारीफ़ की और जाते समय अच्छे पैसे भी दिए। तुम कारीगर हो कलाकार हो अंग्रेज़ ने कहा। तुम्हारा काम सम्मान के लायक है। Thank you, friend.”

Friend.

यह शब्द पहली बार किसी ने उनके लिए कहा था। उस दिन बरगद की छाया थोड़ी और ठंडी लगने लगी। हरिया चाचा की आँखें भर आईं।उन्हें लगा कि दुनिया का बोझ एक पल को हट गया है। अंग्रेज़ दंपति के जाने के कुछ दिन बाद हरिया चाचा ऊना जिला की एक  चर्च पहुँचे। उन्हें लगा था कि वहाँ भी लोग उन्हें दुत्कारेंगे नाम पूछेंगे जाति पूछेंगे या बैठने की जगह अलग देंगे। पर अंदर जो हुआ वह उनके जीवन का सबसे पवित्र अनुभव बन गया। चर्च में सभी लोग एक-दूसरे से हाथ मिलाते थे। कोई जाति नहीं कोई भेद नही सब एक ही पंक्ति में बैठते थे। हर कोई उन्हें ब्रदर कहकर संबोधित कर रहा था। उनके लिए यह सिर्फ एक प्रार्थना स्थल नहीं बल्कि बराबरी का पहला स्वाद था।

हरिया चाचा ने उसी दिन धर्म परिवर्तन का निर्णय ले लिया।

उन्होंने परिवार को समझाया हम वहाँ क्यों रहें जहाँ हमें इंसान नहीं समझा जाता मैं उस राह पर चलूँगा जहाँ मुझे भगवान के सामने बराबरी मिलती है इंसान होने का हक़ मिलता है। परिवार ने उनका साथ दिया। आस-पड़ोस के कई लोग जो हर रोज़ अपमान का घूँट पीते थे वे भी उनके साथ जुड़ने लगे। समय बदलता गया। गाँव में एक छोटा सुंदर चर्च बना। हरिया चाचा को उनकी नेक नीयत,ल सेवाभाव और स्वच्छ जीवन देखकर पादरी की जिम्मेदारी दे दी गई। गांव में चर्च खुली तो कुछ संगठनों ने धर्म परिवर्तन के इल्जाम लगाकर मुद्दा बनाया मगर हरिया चाचा की ईमानदारी और सच्चाई के आगे कोई मुद्दा न्यायालय में टिक न सका भला लोकतंत्र है संविधान है कोई अल्पनि मर्जी से बिना लालच बिना डर बिना किसी षड्यंत्र के धर्म बदले तो उसे कौन रोक सकता था।

अब गाँव का वही मोची जो बरगद के नीचे बैठकर घड़ा भर पानी रखता था अब “फादर हरिया” कहलाता था। उनकी सफेद पोशाक और मुस्कुराता चेहरा देखते ही गाँव के लोग आदर से सिर झुकाते। यहाँ तक कि वे लोग भी जिन्होंने कभी उन्हें घर के बाहर बैठाकर पानी दिया था अब उन्हें सम्मानपूर्वक अपने समारोहों में बुलाते। हरिया चाचा के मन में टीस तो अभी भी कहीं छुपी रहती थी पर अब वे मजबूत हो चुके थे। वह जानते थे कि इंसान को केवल धर्म नहीं बदलता इंसान को उसका आत्मसम्मान बदल देता है।

कुछ महीनों बाद जब मेरी उनसे मुलाकात हुई मेरा मन हुआ कि पुराने स्कूल को देखकर आऊं उस बरगद की छांव में बैठकर आऊं तो मैंने देखा हरिया चाचा चर्च के बरामदे में बच्चों को पढ़ा रहे थे। मुझे बड़ी हैरानी हुई वो बरगद तो थी मगर उसके नीचे वो पानी का मटका नही था वो मोची की टपरी नही थी मगर सामने हरिया चाचा थे मैन हैरानी से देखा चाचा को अपने बारे में बताया कि 10 साल पहले मैं इसी स्कूल में पड़ता था उन्हें वो बचपन की शरारते याद दिलाई तो चाचा को मुझे पहचानने में देर न लगी। बात ही बात में मैन पूछा कि चाचा  क्या आपको धर्म बदलने का  कभी अफसोस हुआ ? उन्होंने शांत आवाज़ में जवाब दिया

“बेटा, अफसोस तो हुआ मगर उन सालों का जो हमने झुककर काट दिए। अफसोस उन बच्चों का है जिनके मन में बचपन से जाति भर दी गई ।और हाँ अफसोस उस आरक्षण के नाम का भी है जिसका ढोल पीटकर नेताओं ने हमें बेवकूफ बनाया। मैं चौंका।लेकिन चाचा आरक्षण तो हक़ है।

वह मुस्कुराए पर आँखों में दर्द था।हक़ तब है जब कोई पाना चाहता हो।गाँव में देखो किसे मिला?काम तो वही लोगों को मिलता है जो नेताओं के चाटुकार हों।आम लोग क्या पाए?

सिर्फ अपमान जलालत नफरत और इंतज़ार। हमारी हालत न नौकरी से सुधरी न सरकारी कागज़ों से ।।।। सुधरी तो तब जब हमने खुद को इज़्ज़त दी। जब हम खड़े हुए और कहा हम भी इंसान हैं।

उनकी आवाज़ भारी हो गई, लेकिन सच्चाई की चमक उसमें साफ थी बरगद अभी भी खड़ा है पर कहानी बदल गई है आज भी उस रास्ते पर ताजा हवा बहती है। बरगद का पेड़ उतना ही पुराना है। पर उसके नीचे बच्चों की हँसी एक नई कहानी सुनाती है।अब वहाँ कोई घड़ा नहीं कोई मोची की दुकान नहीं। पर चर्च की घंटी की आवाज़ आती है मानो कह रही हो कि इंसान की सबसे बड़ी पूजा है इंसानियत। हरिया चाचा कहते हैं । मैंने धर्म नहीं बदला मैंने अपना सिर उठाया है।

उनकी कहानी यह बताती है कि जाति का ज़हर इंसान को तोड़ता है, पर सम्मान का एक बूंद उसे जीना सिखा देती है। और शायद यही इस कहानी का सार है कि समाज बदलने से पहले हमें अपने मन के बरगद के नीचे जमी सदियों पुरानी धूल झाड़नी होगी।

                            के आर अमित

             अम्ब ऊना हिमाचल प्रदेश

             #अधिकार कैसा

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