अरुण और तरुण माता जी के दोनों बेटों का घर साथ साथ ही था। ननद लीला भी सोनीपत में ही रहती थी| अरुण दिल्ली में कोर्ट में नौकरी करता था और सुधा भी दिल्ली के ही स्कूल में टीचर थी। वह सोनीपत से ही रोजाना दिल्ली जाती थी। स्कूल समय पर पहुंचने के उद्देश्य से सुधा घर से 6:00 बजे ही निकल जाती थी। सुबह 4:00 बजे उठकर वह बच्चों का और माता जी का खाना बनाकर रख देती थी घर आने में उसे अक्सर 3:00 तक तो बज ही जाते थे। उसके दोनों बच्चे गुड्डी और पप्पू क्रमशः छठी और आठवीं क्लास में थे। अरुण घर से सुबह 8:00 बजे निकलकर रात 8:00 बजे तक वापिस आ पाता था। लाला जी ने मृत्यु से पहले ही मकान के दो हिस्से करके दोनों बेटों को दे दिए थे| दूसरे हिस्से में तरुण और उसकी पत्नी शीला अपने 2 साल के बेटे बंटी के साथ रहते थे। अपने पति तरुण के दुकान पर जाने के बाद शीला बंटी को लेकर माताजी के पास आ जाती थी।गुड्डी और पप्पू स्कूल से आने के बाद बंटी को भी संभालते थे लीला(ननद) भी अपनी मां से मिलने वहां ही बैठी रहती थी। सुधा की अनुपस्थिति में वहीं सब खाना पीना करके घर को फैलाते थे।
अरुण घर में चाहे कितना भी खाने का सामान और फल लेकर आ जाए लेकिन शाम तक कुछ भी नहीं बचता था,। कभी-कभी उसने यह बात दबी जबान में कहने की भी कोशिश करी लेकिन सासू मां ही नहीं बल्कि देवरानी भी उसे उल्टा सुनाने में कसर नहीं छोड़ती थी। बिना वजह बात बढ़ाने का ना तो सुधा के पास समय था और ना ही हिम्मत। हालांकि उसकी छुट्टी और बीमारी में जब भी सुधा को जरूरत होती तो उस समय सासू मां देवरानी शीला के घर में ही होती थी।
उस दिन तो हद ही हो गई जब सुधा दफ्तर से आई और उसने देखा कि उसकी देवरानी और ननदिया दोनों उसकी ड्राईक्लीन की हुई साड़ी पहनकर कहीं जाने की तैयारी कर रही थी। सुधा ने वह साड़ी इतवार को अपने पीहर की एक पार्टी में शामिल होने के लिए ड्राई क्लीन करवाई थी लेकिन हमेशा की तरह अब के भी उसका बोलना और रोना बेकार ही रहा, क्योंकि सासु मां ने कह दिया इन दोनों ने मुझसे पूछ कर ही यह साड़ियां पहनी है।बात ना बढ़े इसलिए अरुण ने भी उसे ही चुप रहने को कहा और यह फैसला हुआ कि आगे से सुधा अपनी अलमारी में ताला लगा कर जाया करेगी। हालांकि इस फैसले के बाद भी घर में बहुत कहासुनी हुई थी।
अब क्योंकि स्कूल में बायोमेट्रिक भी हो गई थी और रास्ते में जाम की भी बहुत समस्याएं आ रही थी और अरुण को भी दिल्ली में ही सरकारी मकान मिल गया था इसलिए उन्होंने दिल्ली में ही शिफ्ट करना सही समझा। माताजी ने सुना के साथ दिल्ली जाने से एकदम मना कर दिया था उनके ख्याल से सुधा उन्हें अपने साथ सिर्फ बच्चे संभालने के लिए ही ले जाना चाहती है। उन्होंने शीला के साथ रहने का फैसला किया।सुधा ने दिल्ली में अपने बच्चों को भी अपने ही स्कूल में दाखिल करवा लिया था।
दूर-दूर से अच्छा बनना तो बहुत आसान होता है लेकिन जब खुद पर पड़ती है तो? काम करने की शीला को आदत तो थी ही नहीं और उसके ऊपर जब तब ननद लीला के भी अपनी मां से मिलने आने पर वह परेशान होने लगी।इस बार जब लीला (ननद) के आने पर सासू मां ने उसे चाय और खाना बनाने के लिए कहा तो वह चिढ़कर बोली जब से आप हमारे साथ रहने लगी हो तबसे तीन पैकेट बिस्कुट और चार पैकेट तो नमकीन ही फालतू लग गई। सुधा ने तो कभी किसी चीज का हिसाब ही नहीं करा माताजी ने बोला। तो क्या हुआ? वह तो 2 लोग कमाते थे। माताजी चिल्लाई, तो उनके घर का खर्चा भी तो ज्यादा होता था, मैंने सवेरे से शाम तक बेचारी सुधा को कभी आराम करते नहीं देखा। अभी गुस्से से चिल्लाई अगर वही ज्यादा अच्छे लगते थे तो उनके साथ ही दिल्ली क्यों ना चली गईं?बात बढ़ते बढ़ते इतना बढ़ गई कि ननद लीला फिर कभी ना आने की कसम खाकर रोती रोती वहां से चली गई थी।
दिल्ली में अरुण के कोर्ट की कुछ दिन की छुट्टियां पड़ गई और सुधा किसी गर्मियों की छुट्टियां थी तो, तो वह लोग कुछ दिन के लिए अपने घर सोनीपत में रहने के लिए चले आए। सुधा के आने की खबर सुनकर ननद लीला घर पर उनसे मिलने के लिए आई। सासू मां भी सुधा के पास आ गई थी। इससे पहले कि सुधा उन दोनों के लिए चाय या खाना बनाने को उठे| लीला खुद ही सुधा के साथ सारे घर के काम करवाने लगी| सुधा हैरान थी माताजी भी उससे मिलकर बहुत खुश हुई थी। कुछ दिन रहकर जब वे वापस दिल्ली जाने को हुए तो माताजी ने सुधा से पूछा “क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकती हूं?”
आप तो घर की बड़ी सदस्य हो, आपका ही घर है। आपने खुद ही मना करा था, हमें तो सदा ही बस आपका आशीर्वाद चाहिए । आप हमारे साथ चलो ना, कहते हुए सुधा की आंखों में खुशी की लकीरें स्पष्ट थीं| उसे लग रहा था कि उसका अधूरा घर अब पूरा हो जाएगा। बच्चे भी दादी से लिपटकर उनके साथ जाने से बहुत खुश थे। सुधा को शीला के व्यवहार की सब बातें पता चल चुकी थी परंतु सुधारने का जो जैसा करेगा वह वैसा भरेगा आपका तो वह घर ही है और आपके घर में ननद रानी का तो स्वागत है। हालांकि किसी ने शीला को कुछ नहीं कहा पर सबको जाते देखकर उसे भी खुशी से ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।
मधु वशिष्ठ फरीदाबाद हरियाणा।