माही ने नजर उठा कर घड़ी की और देखा तो उसे कुछ घबराहट सी हो आई। सिरफ एक घंटा ही बचा है,
मेहमानों के आने में, और अभी कितने काम पड़े है। मेड भी बेचारी कितनी तेज़ी से हाथ चला रही है। चाय भी पड़ी
पड़ी ठंडी हो गई तो वो उठा कर एक घूँट में ही पानी की तरह पी गई। अब माही को थोड़ा अपने आप पर ग़ुस्सा भी
आया। क्या ज़रूरत थी फालतू में किट्टी मैंबर बनने की। वो तो इन सब से कोसों दूर रहती है। वैसे भी नौकरी करने
वाली औरतों के पास समय ही कहा होता है। ये चोंचले तो घरेलू महिलाओं के लिए ही ठीक है। इसी बहाने मिलना
जुलना हो गया और मुहल्ले की ख़बरें भी मिल गई। सब से बड़ी बात ये भी थी कि संजने सँवरने का इससे बढ़िया
मौका कब मिलता।
नौकरीपेशा को तो रोज ही घर से निकलने के लिए तैयार होना पड़ता है। पर उस तरह तैयार होने में और इस तरह
तैयार होने में बहुत अंतर है। अपनी बचपन की सखी सुहानी के बहुत कहने पर उसने पहली बार जिंदगी में एक किट्टी
डाली।
जिसके घर भी किट्टी होती , उसे लंच तैयार करना होता था दस बारह मैंबरस के लिए। रखा तो उन्होनें ये हुआ
था कि ज्यादा ताम- झाम नहीं करना। लेकिन हर कोई एक से बढ कर एक व्यंजन तैयार करता था। आख़िर स्टेटस
भी तो दिखाना होता है। उसको तो ये सोच कर ही हैरानी हो रही थी कि कुछ कुछ महिलाओं ने तो चार चार किट्टियां
डाली हुई थी। कोई होटल में तो कोई किसी क्लब में ।सुहानी के कहने पर जिस किट्टी की मैंबर माही बनी वो घर
पर ही की जाती थी। घर का बना खाना और खर्च भी कम। चाहो तो कुछ सामान समोसे , स्वीट डिश वगैरह बाजार
से मँगवा लो। लेकिन माही खाना बनाने में निपुण थी तो उसने घर पर ही सब कुछ तैयार करने का फैसला किया।
चूँकि ये सब उसके लिए नया था, वैसे मेहमान तो उसके घर पर आते ही रहते है, लेकिन आज का अनुभव कुछ अलग
था।
और फिर उसे ग़ुस्सा आ रहा था प्रिय सखी सुहानी पर। कितना कह रही थी कि वो हर काम में मदद कर देगी, जलदी
ही आ जाएगी। पंगचुऐलिटी, तंबोला , गेम्स , सब तैयारियाँ वो कर लेगी , लेकिन न जाने कहाँ रह गई, फ़ोन भी
नहीं उठा रही।
जैसे तैसे सब तैयारियाँ हो गई। बस टेबल सजानी ही बाकी थी तो सुहानी आई। आते ही चुपचाप
काम में लग गई। माही को भी तैयार होना था । सुहानी को देख उसकी जान में जान आई और बचा काम उसके
हवाले कर वो बाथरूम में घुस गई। बारह बजते ही सब आने शुरू हो गए। हँसी खेल, मज़ाक, बातें , खाना पीना सब
अच्छे से हो गया। सुहानी ने हर काम में भाग भाग कर मदद की, लेकिन उसके चेहरे पर जो उदासी की परत थी वो
माही की पारखी नज़रों से छुपी नहीं रह सकी। उसने एक दो बार पूछा भी कि सब ठीक तो है घर में। लेकिन काम की
वजह से ज़्यादा बात नहीं हो पाई, और सुहानी ने भी हँस कर कहा , सब ठीक है। लेकिन माही उसकी रग रग से
वाक़िफ़ थी। दोनों बचपन की सखियाँ थी और संयोग भी देखिए, दोनों की शादी एक ही शहर में हुई और घर भी
ज्यादा दूर नहीं थे। दोनों पढ़ी लिखी थी, लेकिन घरेलू हालात के चलते सुहानी ने नौकरी नहीं की,और उसकी नौकरी
में दिलचस्पी भी कम थी। उसकी सास बीमार रहती थी, दो बच्चे , पहले तो देवर ननंद भी थे। अब शादियाँ हो गई
थी। जबकि माही पर घरेलू जिम्मेदारी बहुत कम थी। शुरू से नौकरी करती थी। पति की आय भी अच्छी, अपना
फ़्लैट और परिवार गाँव में रहता था। कभी कभार जाना आना होता था। एक बेटा, कुल मिलाकर बढ़िया जिंदगी थी।
सुहानी के पति का ठीक ठाक सा बिजनैस था। तीन मजिंला अपना छोटा सा घर था। नीचे सुहानी, उसका
पति , दो बच्चे और सास थे। पहली मंजिल पर देवर अपने परिवार के साथ निवास करता था। उसके उपर की मंजिल
को किराये पर दे रखा था। उसका किराया माताजी के बैंक खाते में जमा हो जाता। अपनी ज़रूरत के हिसाब से वो पैसे
मँगवा लेती थी। दोनों बेटों को कारोबार ठीक ठीक था। अपना मकान था तो गुजारा अचछा हो जाता था। तभी तो
कहते है कि मकान अपना हो तो थोड़े कम पैसों से भी काम चल जाता है, लेकिन अगर किराया देना पड़े तो आधी
कमाई उसी में निकल जाती है। सुहानी तो दिन रात अपने ससुर का शुक्रिया अदा करती कि उनहोनें दूरदर्शिता दिखाते
हुए थोड़ी सी कमाई में भी इतना अच्छा घर बना लिया।बेटी को भी पढ़ा लिखा दिया और किस्मत से उसे बैंक में
नौकरी मिल गई। पति भी बैंक में कार्यरत थे और अपना खूब बड़ा सा घर था। अच्छा शाही घर था उसका। कहते है
कि घर की बेटी सुखी तो सारा परिवार सुखी। सुधा की अपने दोनों भाईयों से बहुत बनती थी। भाई भी उस पर जान
छिड़कते थे। शादी पर भी खूब खर्च किया था। सब अच्छा ही अच्छा था।
ये थी दोनों सहेलियों की कहानी। सुहानी के चेहरे पर जो उदासी थी वो माही से छुपी नहीं थी। एक दो
बार पूछा भी मगर वो टाल गई। काम खतम होते ही वो चली गई। माही ने भी जयादा रोका नहीं। वो ख़ुद बहुत थकी
हुई थी और अाराम करना चाहती थी। दो तीन दिन निकल गए। माही आफिस के काम में व्यसत हो गई। मगर उसे
सुहानी की चिंता बराबर सता रही थी।उसने सुहानी को शाम को पारक में सैर करने के लिए फ़ोन किया। वो दोनों पहले
भी समय मिलने पर पारक में शाम को कभी कभी घूमती थी। महीने दो महीने में तो एक बार तो दोनों परिवार
पिकनिक वगैरह के लिए भी चले जाते थे। मिलना जुलना , बच्चों का सैर सपाटा भी हो जाता था। लेकिन पिछले छ:
महीने से वो जा नहीं पाए थे। कारण कि सुहानी की सास का स्वर्गवास हो गया था। चलो उम्र के हिसाब से सबको
जाना ही होता है। सब कुछ ठीक ठाक था तो सुहानी उदास क्यूँ। इसीलिए माही ने उसे पार्क में बुलाया, ताकि उसके
दिल का हाल जान सके।
दोनों ने कुछ देर यहाँ वहाँ की बाते की। रात होने को थी तो माही ने उससे पूछा कि लगता है कि
तुम किसी बड़ी उलझन में हो। मुझे बताओ तो शायद कोई हल सोचा जाए। सुहानी अपनी पारिवारिक समस्या बताना
नहीं चाहती थी लेकिन माही के बहुत ज़ोर देने पर उसने सब बता दिया। जैसा कि सरकार की और से माँ बाप की
सम्पति पर सभी बच्चों का हक निशचित है। बेटा हो या बेटी, सब बराबर के हक़दार है। सुहानी जिस मकान में रहती
है , जब तक सास ज़िंदा थी सब ठीक था। तीनों भाई बहन आपस से प्यार से रहते।इकलौती बहन सुधा भी उसी
शहर में रहती थी। जब जी चाहता , आ जाती। दोनों भाई अपनी बहन और उसके परिवार के स्वागत सत्कार में कोई
कसर नहीं छोड़ते थो। राखी, टीका , दीवाली, तीज सब का नेग करते। माँ के पास भी अपने पैसे होते थो, बेटी को हर
त्यौहार, सालगिरह, जन्मदिन पर खूब तोहफे देती। समस्या तब खड़ी हुई जब मां के मरने के बाद सुधा ने घर में से
अपना हिस्सा माँगा और न देने पर कानूनी कार्यवाही की धमकी तक भी दे डाली।
उनहें अपनी प्यारी छोटी बहन से इस तरह के व्यवहार की क़तई उम्मीद नहीं थी। माँ की कोई वसीयत भी
नहीं थी। उनहोनें उसे कहा कि वो उपर वाली मंजिल उसकी। चाहे बेचे चाहे किराया ले ले (आजकल कई शहरों में उपर
नीचे के मकान बिक जाते है) लेकिन उसका कहना है कि तीसरी मंजिल की कीमत कम है। पूरे मकान की कीमत
डालकर उसे उसका तीसरा हिस्सा दिया जाए। अब या तो हम उसे काफी नक़द दे और उपरी मंजिल तो हम दे ही रहे
है, लेकिन कीमत के हिसाब से तीस चालीस लाख और दें या फिर मकान बेचे। पैसे देने की हमारी हैसियत नहीं है और
अगर एक बार मकान बिक गया तो पता नहीं फिर कब बनेगा। बनेगा भी या नहीं। बच्चे बड़े हो रहे है, उनकी पढाई
लिखाई, शादी विवाह और बिजनैस भी इतना बड़ा नहीं। बस दिन रात दोनों भाई इसी चिंता में डूबे रहते है। अब इस
समस्या का क्या हल निकाला जाए।
यह सब सुनकर माही के पैरों तले भी ज़मीन खिसकती लगी। भारी मन से दोनों सखियों ने विदा ली। माही
का किसी काम में मन नहीं लग रहा था। रात का खाना पीना निपटाकर वो लेट गई, लेकिन नींद आँखों से कोसों दूर।
जब उसकी ये हाल है तो सुहानी के दिल पर क्या बीत रही होगी। सुहानी ने बताया था कि उन्होनें तो बहन को ये भी
कहा उपरी मंजिल की रजिस्टरी अपने नाम करवा ले, किराया लेती रहे जितने पैसे और बनते है दोनों भाई धीरे
धीरे करके दे देगें। माही की समझ में ये नहीं आ रहा था कि ग़लत कौन है। अगर हम लडकियों के हिस्से की हक की
बात करे तो सुधा भी ग़लत नहीं थी। अगर तीसरा भाई होता तो हो सकता है वो भी यही कहता। नीचे का घर बड़ा है,
बीच वाला उससे छोटा, टाप वाला उससे भी छोटा। लेकिन प्यार मुहब्बत भी तो कोई चीज है। माना कि सरकार ने
लडकियों के हक़ों की रक्षा करते हुए ये फैसला किया है। मगर देखा जाए तो जमाना कितना बदल चुका है।
पुराने जमाने में लडकियों की पढाई लिखाई पर कुछ खर्च नहीं था। जायदाद में हिस्सा भी नहीं था। शायद
इसी लिए दहेज प्रथा थी। इसके इलावा हर तीज त्यौहार पर मायके से तोहफे जाने ही जाने थे। चाहे उसके बच्चों की
शादियाँ हो या ससुराल में कुछ भी खुशी गमी हो, मायके से कुछ न कुछ आना है। बेटियों के घर आज भी खाली हाथ
नहीं जाते। सारी उम्र ससुराल में रहने के बाद लड़कियों को तो कफ़न भी मायके का होने का रिवाज है। समय के साथ
साथ बहुत कुछ बदला लेकिन दहेज या बाकी लेन देन तो नही बदला। ज्यादा ही हो गया लगता है। लड़की जितना
मर्ज़ी पढ़ी लिखी हो, दहेज तो फिर भी है, स्वरूप चाहे बदल गया। पुराने जमाने में तो हाथ का पंखा देकर ही काम
चल जाता था, अब तो ए. सी . भी कम है। शादियाँ तो और मंहगी हो गई है। जब बराबर का हिस्सा है तो फिर फ़र्ज़
भी बराबर होने चाहिए। आज कितने माँ बाप है जो लड़कियों के पास रहते है। ये देन लेन बिलकुल खतम होना
चाहिए। अगर खर्च करना भी है तो दोनों पक्ष बराबर करे। लेकिन दूसरी तरफ देखा जाए तो कई बार लडकियों को
सचमुच ही मायके की स्पोर्ट चाहिए होती है। माही को आज भी याद था कि बचपन में कैसे उसकी एक सहेली के
पिता की असामायिक मौत पर उसकी माँ ने लोगों के घरों में काम करके गुजारा चलाया था। उन दिनों कानून औरतों
के पक्ष में नहीं था। उसकी माँ भी बहुत कम पढ़ी लिखी थी। भाभियों ने तो घर में घुसने तक नहीं दिया। चोरी छुपे
भा ई कुछ मदद कर देते लेकिन वो बहुत कम थी। ससुराल पक्ष भी कमज़ोर था।
सोचते सोचते माही ने यही निष्कर्ष निकाला कि सरकार ने तो अपनी और से सही फैसला किया है,
औरतों को क़ानूनन जायदाद में हिस्सा देकर। अपने हक का सही प्रयोग करना तो औरतों के हाथ में है। हक की सही
परिभाषा भी उनहें ही तय करनी होगी। बहुत कुछ परिसिथितियों पर भी निर्भर करता है। सुहानी के केस में देखा जाए
तो उसे सुधा ग़लत लगी। जब सुधा के पास सब कुछ है तो भाईयों को बेघर करना बिलकुल ग़लत है। लड़कियों की
मायके से कितनी यादें जुड़ी होती है। जब अपना हिस्सा ले लिया तो फिर सब खतम। लेकिन अगर उसकी सहेली की
माँ के समय ये कानून होता तो उसे इतने दुख न उठाने पड़ते। माही ने निष्कर्ष ये निकाला कि अपने हक की और
फ़र्ज़ और कर्तव्यों की सही मायने में परिभाषा तो हालात और ज़रूरतों को देखते हुए संवय ही तय करनी चाहिए।
सुधा से उसकी भी अचछी दोस्ती थी। उसने फैसला किया कि वो जाकर उससे बात करेगी कि वो ये सब क्यों कर रही
है। आख़िर क्यों अपने प्यारे भाईयों को बेघर करने पर तुली है। शायद कुछ हल निकल आए। यही सोचते सोचते वो
नींद के आग़ोश में चली गई।
विमला गुगलानी