हाँ मैं हूँ सावित्री – बालेश्वर गुप्ता

   आपकी आंखों में आँसू मैं देख नही पाती, उपेंद्र तुमने अपना जीवन खुद जिया है, बनाया है तो क्यों इतना कमजोर होते हो?सुनो मैं हूँ ना,तुम्हे यमराज के हाथों से भी छीन लाउंगी।बस तुम हिम्मत मत हारो।

     मालती के कहे शब्दो का असर ही था कि एक माह बाद  उपेंद्र ने आंखे खोल भरपूर दृष्टि से मालती की ओर देखा और अपने निष्क्रिय हाथ से मालती के हाथ को हल्के कंपन के साथ दबा दिया।खुशी के अतिरेक में चिल्ला पड़ी मालती, देख सोनिया तेरे पापा ने अभी अभी मेरा हाथ दबाया है, आंखे खोली है।देख भारती तेरे पापा बिल्कुल ठीक हो जायेंगे।कहाँ है अभिषेक? आंखों में आंसू भरे दोनो बिटिया,और बेटा माँ की बावली खुशी को निहार रहे थे, तो दूसरी ओर निस्पंद पड़े पापा को वे भी आशा भरी निगाहों से देख रहे थे।

            उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में ही गांव के निवासी उपेंद्र नाथ का परिवार वही अपनी बड़ी भूमि पर खेती करता था।भूमिहार  उपेंद्र राय के परिवार का पूरे गावँ  में सम्मान और ठसक थी।उनकी अपनी बड़ी आलीशान हवेली और उसके आगे लगा पीपल का वृक्ष जहां अपनी छटा बिखेरता वही शीतल बयार का प्रवाह भी प्रदान करता।वही वृक्ष के नीचे बनाये गये चबूतरे पर शाम को गावँ की महफिल जमती।गाने शायरी का आदान प्रदान होता दो दो नौकर सबकी आव भगत में लगे रहते।

      उपेंद्र राय की शिक्षा जैसे ही पूरी हुई, सहकारिता विभाग में नौकरी लग गयी।एक प्रतिष्ठित परिवार में उपेंद्र की शादी तय कर दी गयी।नव नवेली दुल्हन के रूप में मालती आ गयी उपेंद्र के जीवन मे जीवन संगिनी बनकर।

     जीवन मे इंद्रधनुष के रंग बिखर चुके थे।गावँ में जमीदारी वाली हैसियत और ऊपर से सरकारी अच्छी भली नौकरी।और क्या चाहिये जीने को।ऐसे ही समयचक्र के साथ एक बेटा और दो बेटियां आ गयी घर की नीरसता में संगीत की स्वर लहरी गुंजायमान करने।

       उपेंद्र राय जॉब में जरूर थे,पर मन रहता अपने गांव की हरियाली में,गावँ की चौपाल में,वहां के निर्मल और स्वच्छंद वातावरण में।पिता के न रहने पर तो उपेंद्र राय को यदा कदा गांव आना ही होता,जब आते तो उनका मन वहां से जाने को न करता।पर बच्चो की पढ़ाई लिखाई के कारण शहर तो आना ही पड़ता।

      एक दिन बेटा अभिषेक अपनी तोतली भाषा मे मांग कर बैठा, पापा पापा वो चईये, क्या मांग रहा है रे, पूछ रहे थे उपेंद्र?पर अभिषेक बालपन में कैसे बताता,बस बार बार उंगली उठा रहा था।उंगली की दिशा में देखा तो वह कलेंडर की ओर इशारा कर रहा था।उपेंद्र जी ने कलेंडर उतार कर दे दिया पर अभिषेक अब भी उंगली ही उठा रहा था।काफी देर बाद समझ आया कि वह कलेंडर ने बने हवाईजहाज की मांग कर रहा था।उसको चुप होते न देख उपेंद्र जी उसके लिये हवाईजहाज का खिलौना ले आये,पर अभिषेक ने तो उसे एक दम फेंक दिया।बड़ी मुश्किल से उपेंद्र और मालती ने उसे बहलाया।उपेंद्र हंस कर बोले देख मालती गधा कही का असली हवाईजहाज मांग रहा था।मालती बोली देखो जी मेरे बच्चे को गधा मत कहना यह मेरा घोड़ा है देखना  ये हमे कैसे सवारी कराता है।

       और सचमुच में ही अभिषेक अपनी शिक्षा पूर्ण करके दुबई एयर लाइन्स में पायलट बन गया।बचपन मे कलेंडर पर बने हवाईजहाज को मांगने वाला अभिषेक अब अपनी उंगलियों से आकाश में हवाईजहाजों से अठखेली करने लगा।देखो जी मैंने कहा था ना मेरे बेटे को गधा मत कहना,देखो निकला न घोड़ा,ऐसे ही कभी भी मालती उपेंद्र पर कटाक्ष कर देती।उपेंद्र भी गर्व पूर्ण मुस्कुराहट में कह देते हाँ, ये तो है।

       समय चक्र चलता रहा, उपेंद्र ने अपने जॉब से रिटायरमेंट ले लिया और अपने को नोयडा शिफ्ट कर लिया।असल मे बेटा जब भी अपनी फ्लाइट से दिल्ली आता तो उसे उनसे मिलने में आसानी होती।

       उस दिन उपेंद्र की खुशी छिपाये न छिप रही थी।आखिर काफी समय बाद उनका कार्यक्रम अपने गांव जाने का बन गया था।अतिरेक में उपेंद्र बार बार मालती को निदेशित कर रहे थे,भागवान कुछ भी छूटना नही चाहिये।पूरे दो महीने गांव रह कर आयेंगे।पूरी योजना बना ली थी,कैसे कैसे वहां जाकर कहाँ कहाँ मरमत करानी है,कहाँ निर्माण कराना है।और उपेंद्र अपने गांव पत्नी मालती के साथ पूरे उत्साह में चले गये।गाँव मे जाते ही जो जो कार्य सोचकर गये सबकी शुरुआत करा दी।उपेंद्र बहुत ही खुश थे।गांव गये ऐसे ही डेढ़ माह बीत गया,वापस नोयडा आने की तैयारी होने लगी कि एक मनहूस रात ऐसी आयी जिसने इस हँसते परिवार को रुला दिया।रात्रि में उपेंद्र ने अपने मित्रों से अपनी पुत्रियों से,अपने बेटे से बात की और लेट गये।हल्की घरड घरड की आवाज से मालती की आंख खुली तो देखा आवाज उपेंद्र की थी और उनके मुँह और नाक से खून बह रहा था।

    अकेली मालती, काली रात और  गांव जहां इलाज की सही व्यवस्था भी नही,करे तो क्या करे?किसी प्रकार मालती उपेंद्र को गाजीपुर लेकर आयी, वहां पता लगा ये तो उपेंद्र को ब्रेन हेमरेज हुआ है, गाजीपुर में प्रॉपर इलाज उपलब्ध नही है।अगले दिन उपेंद्र को वाराणसी लाया गया,तब तक उनकी पुत्री सोनिया और उनके दामाद आ गये।पांच छः दिन में ही परिवार वालो को अहसास हो गया कि उपेंद्र जी को नोयडा ले जाना ही उपयुक्त होगा,सो एयर लिफ्ट कर उन्हें नोयडा के फोर्टिस अस्पताल में दाखिल कर दिया गया।यहां आकर जीवन के लिये संघर्ष शुरू हो गया।पूरा परिवार एकत्रित था,एकजुट था,दुबई से बेटा भी आ चुका था,बड़ी बेटी भारती नोयडा में उपस्थित थी ही।

        जीवन से जंग तो उपेंद्र को लड़नी थी जो बेसुध था,पर मालती की लड़ाई भगवान से थी।उसका एक ही प्रश्न था जब हमने किसी का बुरा करना तो दूर किसी का बुरा सोचा तक नही तो फिर हमे ये  सजा क्यों?

     पता नही ईश्वर ने कोई उत्तर दिया या नही,पर मालती ने भगवान को चुनौती दे दी कि वह उपेंद्र को मुझसे छीन कर दिखाये।पूरी तन्मयता से मालती ने उपेंद्र की देखभाल तो की ही साथ ही अर्ध होश में आये उपेंद्र की इच्छा शक्ति को जाग्रत करना प्रारंभ कर दिया।मालती ने फिर एक दृढ़ निर्णय लिया और वे अपने पर विश्वास रखते हुए उपेंद्र को घर लिवा लायी।घर पर ही सब व्यवस्था कर तथा दो मेल नर्स रख खुद उपेंद्र के उपचार में जुट गई।एक माह बाद ही मालती की तपस्या रंग लाने लगी।

      आज उपेंद्र पूर्ण रूप से तो अभी स्वस्थ नही हुए हैं, पर वे जिंदगी की जंग जीत चुके हैं।कौन कहता है कि सावित्री की कथा पौराणिक है, पर हमने तो साक्षात सावित्री को सामने देखा है, यमराज को पराजित होते देखा है।

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

सत्य घटना।

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