सोफे पर बैग पटकते हुए मीना धम्म से बैठ गई।
सर भी भारी लग रहा था। इतने में मम्मी (पूनम जी) भी पानी लेकर आ गईं।
“क्या हुआ मीना बेटा, बड़ी थकी-थकी सी लग रही हो। तबीयत तो ठीक है ना?”
“हाँ, बस थोड़ा सर भारी है… ज़रा अपने हाथों से दबा दो ना।”
कहते हुए मीना, पूनम जी की गोद में लेट गई।
पूनम जी की प्यार भरी थपकी मीना को बड़ा सुकून दे रही थी।
उसने आंखें बंद कीं तो अतीत की तस्वीरें सामने तैरने लगीं।
मीना को हमेशा से ही बड़े सपने देखने का शौक था।
बचपन से ही बस यही धुन थी कि बड़ी होकर नौकरी करना, पार्टी करना, दोस्त बनाना और अपने पैसों पर दुनिया घूमना।
एमबीए होते ही मीना की नौकरी लग गई।
अब तो उसके सपनों में मानो पंख लग चुके थे।
जैसा उसने चाहा था वैसा ही हो रहा था।
अब तक उसका रहन-सहन भी बिल्कुल बदल चुका था—
ऊँचे-ऊँचे लोगों के साथ उठना-बैठना, महंगी पार्टियों में जाना, ऐशो-आराम की ज़िंदगी जीना—यही उसकी दिनचर्या थी।
वहीं कौशल का दिल, मीना पर पहली मुलाक़ात में ही आ गया था।
एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में उनका मिलना हुआ था।
काम के चलते कई बार दोनों का मिलना हुआ और मीना भी कौशल को पसंद करने लगी।
दोनों की रज़ामंदी हुई और शादी भी हो गई।
कौशल बहुत ही समझदार और सरल स्वभाव का इंसान था।
उसका परिवार भी बड़ा सुलझा हुआ था।
मीना को उन्होंने तुरंत ही अपना लिया।
मीना की सास, सीमा जी तो और भी भली महिला थीं।
मीना की तो पहले से ही देर तक सोने की आदत थी,
पर सीमा जी ने उसे कभी किसी बात के लिए नहीं टोका।
वो खुद ही सबके लिए सुबह का नाश्ता बना लेतीं।
मीना उठते ही ऑफिस के लिए तैयार हो जाती,
नाश्ता भी बना-बनाया मिलता।
मीना के दिन मज़े से कट रहे थे।
और उसे और क्या चाहिए था—मनचाही नौकरी, मनचाहा पति और अब तो ससुराल भी ऐसा जहाँ कोई कमी नहीं।
शाम को भी घर जाकर काम न करना पड़े,
इसीलिए मीना जानबूझकर देर से घर पहुंचती।
कौशल को प्रोजेक्ट के सिलसिले में अक्सर बाहर जाना होता था,
इसलिए घर में क्या चल रहा है उसे कुछ खबर ही न थी।
सीमा जी ने कभी कौशल से इस बारे में जिक्र नहीं किया।
हमेशा मन में सोचतीं—“मायके की आज़ादी एकदम से नहीं जाती, धीरे-धीरे सीख जाएगी।”
एक रोज़ जब कौशल घर पहुंचा तो सीमा जी खाना बना रही थीं।
“अरे मां, आप किचन में अकेली क्यों हैं, मीना भी तो घर में है। उसे भी अपने जैसा सिखा दो।”
“अरे बेटा, अभी नई-नई है, सीख लेगी बाद में।”
पर कौशल को मां का यूँ अकेले काम करना अच्छा न लगा।
वह सीधा अपने कमरे में गया।
कमरे में मीना बिस्तर पर लेटी, फोन चला रही थी।
“तुम यहाँ आराम कर रही हो और मां इतनी गर्मी में किचन में लगी हुई हैं?”
कौशल के यह शब्द मीना को अच्छे न लगे।
“क्या मतलब है तुम्हारा कौशल?
हफ्ते में एक दिन छुट्टी मिलती है और उसमें भी मैं चैन से न बैठूँ?
वैसे भी मांजी तो दिनभर घर में ही रहती हैं।
थोड़ा काम कर लिया तो कौन सा पहाड़ टूट गया?”
मीना ने लापरवाही से कहा।
“मतलब, मां घर पर रहती हैं तो क्या वो तुम्हारी सेवा करें?
मैंने तो आज तक तुम्हें एक गिलास भी इधर-उधर करते नहीं देखा।
कम से कम छुट्टी के दिन तो मदद कर ही सकती हो उनकी।”
“मैं यहाँ किसी की नौकरानी नहीं हूँ और न ही यहाँ किसी पर निर्भर हूँ।
नौकरी करती हूँ और तुमसे तो ज़्यादा ही कमाती हूँ।
तुम कहो तो अपने पैसों से एक नौकरानी ज़रूर लगवा देती हूँ।”
इतने में सीमा जी भी कमरे में आ चुकी थीं।
“क्या बेटा, कहाँ की बात कहाँ ले जा रहे हो।
अब जाने दो इन बातों को।”
पर बात दोनों के मन पर असर कर चुकी थी।
मीना में भी अपनी नौकरी का गर्व था।
इसलिए तुरंत ही बैग लेकर मायके चली गई।
कौशल ने एक बार भी मीना को रोकने की कोशिश नहीं की
और इतने महीनों में न ही कभी फोन किया।
मीना ने भी अहम के चलते खुद से कभी फोन लगाने की कोशिश न की,
पर उसे कौशल के फोन का इंतज़ार ज़रूर रहता
कि कौशल खुद ही माफी माँग ले।
कई महीने बाद उसने कौशल को ऑफिस में देखा।
उसे देखते ही मन बात करने को चाहा,
पर कौशल मुँह फेरता हुआ चला गया।
सर भारी हुआ तो छुट्टी लेकर घर आ गई।
कभी नौकरी पर इतराने वाली मीना अब इस भाग-दौड़ भरी नौकरी से थक चुकी थी।
आए दिन दोस्तों के साथ पार्टी करने वाली मीना को अब अकेलापन सताने लगा था।
खुशियाँ तो जैसे खो ही गई थीं।
अपनी हँसती-खेलती गृहस्थी को स्वयं ही बर्बाद कर आई थी।
“अब किस मुँह से लौट कर जाऊँ?”
यही सोच रही थी कि मां ने आवाज़ दी—
“देख बेटा, दामाद जी आए हैं।”
मीना ने झट से आँखें खोलीं तो सामने कौशल ही था।
उसे देखते ही मीना का घमंड आँसुओं में बह गया।
वह दौड़कर कौशल के गले लग गई।
“मुझे माफ कर दो कौशल…”
बस इतना ही बोल पाई और आँसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा।
कौशल के बगल में बैठते ही,
मीना का आज वास्तव में गृह प्रवेश होने जा रहा था—
खुशियों का गृह प्रवेश।