घरौंदा – प्रतिमा श्रीवास्तव :

 Moral Stories in Hindi

अंतिम समय आने से पहले सुहासिनी जी को अहसास हो चुका था की अब वो कुछ दिनों की मेहमान हैं तो उन्होंने अपने बच्चों से अंतिम इच्छा जाहिर की कि” बेटा मैं कुछ दिन अपने घरौंदे में वक्त बिताना चाहती हूं।ना जाने कब ईश्वर का बुलावा आ जाए और मेरे प्राण पखेरू बन कर उड़ जाएं मैं चाहती हूं कि अपने गांव की माटी में ही अंतिम सांसें लूं।”

मां,” ऐसी बातें करके हमारा दिल नहीं दुखाओ।आप गांव में रहना चाहतीं हैं तो हम सब जरुर चलेंगे और आपको वो सारी खुशियां मिले जो कुछ भी हम सब दे सकते हैं ,हर एक इच्छा आपकी पूरी की जाएगी ” विश्वनाथ ने मां के हाथों को अपनी हथेली में रखकर पूरी तरह से आश्वासन दिया।

छोटे भाई लक्ष्मण का परिवार भी साथ में ही रहता था। सुहासिनी जी ने सचमुच में पिछले जन्म में मोती दान किया था जो इतना अच्छा परिवार था उनका जहां हर रिश्ते की अपनी मर्यादा और सम्मान था।

लक्ष्मण,” गांव में हरिया काका से कहो कि वो घर की साफ-सफाई करा दें हम लोग कल ही मां के साथ वहां चलेगें  “विश्वनाथ ने छोटे भाई को कहा ‌।

जी,” भइया हम सभी चलेंगे मैं राधिका भाभी और रूपल को बोल देता हूं कि ज़रुरी सामान रख लें, जिससे वहां मां को कोई भी तकलीफ़ ना होने पाए ” लक्ष्मण ने विश्वनाथ को आश्वस्त किया और लग गया तैयारियों में।

हरिया काका ही गांव में घर और खेती – बाड़ी देखा करते थे। छुटि्टयों में सभी गांव का एक चक्कर जरूर मारते थे क्योंकि गांव नजदीक ही था। शहर से पांच घंटे लगते थे।

बच्चे सब काॅलेज चले गए थे तो घर में इस तरह का भी बन्धन नहीं था। राधिका और रूपल ने भी याद करके एक – एक सामान जरूरत का रख लिया था की अम्मा को किसी तरह की तकलीफ़ ना होने पाए। विश्वनाथ ने डॉ नूतन से बात करके ज़रूरी दवाइयां लिखा ली थी की अचानक कभी भी रात विरात कुछ जरुरत पड़े तो भाग कर शहर ना आना पड़े।

दूसरे दिन सभी गांव के लिए रवाना हो गए थे।सफर बड़ा नहीं था तो सभी समय पर पहुंच गए थे।

अम्मा की आंखों में चमक आ गई थी देहरी पर पांव रखते ही। इंसान जहां से अपनी गृहस्थी शुरू करता है और कटौती कर – कर के एक – एक समान जोड़ कर अनगिनत यादों को समेटे हुए एक मकान को घर में परिवर्तित करता है वो घर उसकी आत्मा में बसता है।आज भले ही सारी सुख-सुविधाएं क्यों ना हो फिर भी शुकून तो अपने घर में ही मिलता है।

अम्मा ने बाबूजी के फोटो के आगे दीपक जलवाया और प्रणाम करते हुए बोलीं कि,” आपने तो हमसे और इस घर से कब का मुंह मोड़ लिया था लेकिन इस घर के हर कोने में आपकी यादें आज भी ताजा हैं। हम बहुत भाग्यशाली हैं विश्वनाथ के बाबूजी की हमारे बच्चों ने बड़े ही सम्मान से हमें रखा है।”

आप अक्सर कहा करते थे कि,” हमारे बच्चे हमारी दौलत हैं, सचमुच में हमने धन दौलत भले ही कम कमाई हो पर सम्मान बहुत कमाया है।” आंचल से आंसू पोंछते हुए चारपाई पर लेट गई थी अम्मा।

सफर भले ही छोटा था लेकिन कमजोर शरीर के लिए तकलीफ़ देह तो था। दोनों बहूओं ने जल्दी – जल्दी हांथ मुंह धोकर रसोई घर में खाना बनाने की तैयारी करने लगी और लक्ष्मण  खेत का चक्कर लगाने चला गया।

अम्मा ने अपनी छोटी सी संदूक मंगाया और दोनों बहूओं से बोली कि,” मेरे पास सोना चांदी तो नहीं था बिटिया लेकिन कुछ चीजें मैंने संभाल कर रखी थीं। तुम दोनों हमेशा अपने पास रखना इसे।”

बड़ी बहू को एक गीता और छोटी को रामायण देते हुए बोलीं थी अम्मा। उनके संदूक में एक पुरानी सी धोती और एक पनडब्बा था और कुछ चिट्ठी जिसे बच्चे लिखकर भेजा करते थे।यही जायदाद थी अम्मा की, कितनी अच्छी तरह से सहेज कर रखा था अम्मा ने।

बिटिया,” तुम लोगों को तो गृहस्थी जमाने में ज्यादा मेहनत नहीं लगी थी पर हम तो ससुराल से एक ओढ़ना बिछौना और चार बर्तन लेकर आए थे। तुम्हारे बाबूजी स्कूल मास्टर थे। हर महीने कुछ पैसा बचाते फिर एक – एक समान जोड़ते थे। इस घर के हर कोने की अपनी कहानी है।इस घरौंदे ने बहुत सारी तकलीफें और खुशियां देखीं थीं।हम इसी लिए  हम चाहते थे कि यहीं अंतिम समय में रहूं और तुम्हारे बाबूजी की यादों के साथ इस दुनिया से रूखसत हो जाएं।”

अम्मा की सांसें टूटने लगी थी। बहुत जोर लगा कर बोल रहीं थीं। अम्मा खाना खा कर सो जाइए और मैं आपको तेल मालिश कर देती हूं।इतनी देर तक पैर लटका कर आईं हैं तकलीफ़ बहुत हुईं होगी।

छोटी बहू ने खाना लगाया सभी लोग एक साथ खाना खाते – खाते पुरानी स्मृतियों में खो गए थे। जहां बचपन से जुड़ी अनगिनत यादें हों उस मिट्टी से लगाव होता ही है।

अम्मा खाना खा कर सो गई थी और सभी अपने – अपने कमरे में चले गए थे।

गांव की सुबह तो मुर्गे की बांग और खुले आसमान में सूरज की किरणों की दस्तक से ही शुरू हो जाती है। सचमुच में शहर में तो खुला आसमान बड़ी मुश्किल से दिखाई देता है और स्वच्छ हवा ऐसा मनोरम दृश्य सभी का मन मोह लिया था।

राधिका ने चाय बनाई और सभी को दलान में पहुंचा कर अम्मा को जगाने आई।

अम्मा… अम्मा उठिए आप भी मुंह हांथ धोकर चाय पी लीजिए।

अम्मा का चेहरा बिल्कुल शांत था।ऐसा लग रहा था की जिंदगी से निश्चिंत हो गईं हों और उनकी तलाश यहां समाप्त हो गई हो ।इतनी शांति से सो रहीं हों।

राधिका की आवाज पर जब अम्मा नहीं हिली डुली तो उसने तेज से आवाज लगाई विश्वनाथ को। सुनिए जी,” अम्मा कोई जबाब नहीं दे रहीं हैं डॉ को बुलाइए।”

इतने में सभी भाग कर आए तो लक्ष्मण ने मुंह पर हांथ लगाया तो देखा सांस रुक चुकी थी और अम्मा सभी को छोड़कर अपने कान्हा जी की दुनिया में चली गई थी।

सचमुच अम्मा की सांसें शायद इसीलिए रुकीं थीं कि वो  अपने घरौंदे में चैन से रहना चाहतीं थीं।

सभी गांव वाले एकत्रित हो गए थे। बड़ा मान जान था अम्मा का। अंतिम यात्रा में ना जाने कहां से इतनी भीड़ एकत्रित हो गई थी की समझ में नहीं आ रहा था।

इसी को अच्छे कर्म कहते हैं कि अंतिम विदाई जिसकी इतनी शानदार हो तो समझ लीजिएगा की वो इंसान बहुत ही भला मानस था।

तेरहवीं के बाद सभी वापस शहर आ गए थे।एक पीढ़ी का अंत हो चुका था।

अम्मा ने मनचाही जिंदगी जी ली थी। सभी को संतोष था पर घर का दलान और अम्मा का कमरा सूना – सूना हो गया था।

यादों में अम्मा जीवित थीं सभी के लेकिन अब वो परिवार के बीच में नहीं थीं।

एक घर तभी सही मायने में घर कहलाता है जहां अपनों को सम्मान और आपस में प्यार लुटाया जाता हो ।एक दूसरे की कद्र होती है। वहीं सुख शांति और समृद्धि का भी निवास होता है।

                          प्रतिमा श्रीवास्तव

                         नोएडा यूपी

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